मीठी -सी खुशबू:सीमा स्मृति / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हाइकु आज विश्व की चर्चित काव्यविधा बन गई है। जब किसी विधा का व्यापक विस्तार होता है, तो उसमें अच्छे और ग्राह्य परिवर्तन के साथ ऐसे परिवर्तन भी आने लगते हैं, जो विधा के लिए अधिक शुभ नहीं कहे जा सकते हैं। यही कारण है कि कुछ ऐसे हाइकुकार भी इस विधा में आ पहुँचे हैं, जिनकी काव्य के प्रति समझ नहीं है। ऐसे लोगों के लिए काव्य साध्य नहीं, 5-7-5 वर्ण का गणित ही प्रथम और अन्तिम है। शब्दकोश सामने रखकर, उसमें से शब्द चुगकर और चुनकर 5-7-5 के खाँचे में रखना हाइकु को विद्रूप बना रहा है। हाइकु के व्यापक प्रचार के कारण इसके तरह के दोष आने स्वाभाविक हैं। किसी भी साहित्यिक विधा की सबसे बड़ी शक्ति उसका संवेद्य होना है। हाइकु के लिए भी यही अनिवार्य शर्त है कि उसे अच्छा काव्य होना चाहिए. अच्छा हाइकु रचने के लिए गहन एकाग्रता और गम्भीर भाषायी समझ की आवश्यकता है। भावानुकूल शब्द चयन अगर हाइकु को ऊँचाई देता है, तो दरिद्र लचर और असंगत भाषा उसे विकृत करती है। धैर्य की कमी और आसानी से यश पाने का लोभ हाइकु के लिए अहितकर है।

सीमा स्मृति लघुकथाकार के रूप में मेरे सम्पर्क में आई. हिन्दी हाइकु जुलाई 2010 में शुरू हुआ, तो इससे भी जुड़ गई. कम लिखने का अच्छा लिखने का इनका प्रयास रहा है। कोई हाइकु साधारण हो या विशिष्ट, वह कोई न कोई भाव-अनुभूति लिये हुए है। प्रकृति के प्रति प्रेम के कारण जड़-चेतन के सौन्दर्य अभिभूत होना, सामाजिक परिवर्तन पर तटस्थ दृष्टि न रखकर उसको विश्लेषित करना, विघटनकारी प्रवृत्तियों पर कड़ी नज़र इनके सामाजिक सरोकारों की पुष्टि करती है। कोई आदमी कितना भी बड़ा हो या कितना भी छोटा-दु: ख सबको मथता है और सुख पुलकित करता है। रचनाकार का भी अपना जीवन होता है, उसमें भी धूप-छाँव होती है। काव्य-रचना में वह कहीं न कहीं छलक पड़ता है। सीमा के हाइकु-संग्रह 'मीठी-सी खुशबू' में जीवन-सत्य की अलग ही चमक और मिठास दृष्टिगत होती है। जो जीवन के द्वार बन्द करके बैठता है, खुशियाँ उसके यहाँ आएँ तो कैसे? अगर उनके लिए द्वार खोल देंगे तो वे आकर क़दम चूम लेंगी। कल्पना और सत्य में बहुत अन्तर है, लेकिन आज जो कल्पना की उड़ान है, प्रयास करने पर वह कल का सत्य बन जाएगा, इससे भी आगे कहें तो शाश्वत सत्य। प्रकृति को ही देखिए-प्रतिदिन सूर्य क्या करता है? वह भी तो धरती के द्वारा आकर किवाड़ खटखटाता है-

साँसों में बसे / जिन्दगी की मिठास / सत्य जो साथ।

द्वार तो खोलो / खुशियों की वादियाँ / चूमें कदम।

खोजती पंख / छू लेती आसमान / मेरी उड़ान।

धरा के द्वार / सूरज दे दस्‍तक / खोलो किवाड़।

जीवन की लम्बी यात्रा में कभी किसी का साथ मिलता है, कभी छूट जाता है। दु: ख तो ठहरा बादल, घुमड़ा है तो कहीं न कहीं ज़रूर बरस जाता है और रही बात सुख की, वह तो पंछी है, ज़रा-सी आहट हुई कि उड़ चला। सुख कोई खोजने की चीज़ नहीं है, आसपास है तो पहचान में नहीं आता, बाहर ढूँढने की कोशिश करते हैं, तो उसकी जगह अनायास कुछ और ही मिल जाता है, हम उसे पूँजी समझ बैठते हैं, पर वह दु: ख ही होता है। हमारे आसपास में जो अपने होते हैं, वे भी कब किसी को समझ पाते हैं। अपनों से कुछ भी साझा नहीं कर पाते। भीड़ में घिरे होने पर भी हम अकेले ही रह जाते हैं। मेरा मानना है कि हाइकु में जीवन दृष्टि से सिंचित संवेदना तो है, लेकिन कोरे दर्शन के लिए हाइकु में कोई स्थान नहीं है। सीमा ने जीवन की ये बातें हाइकु के माध्यम से अत्यन्त सहज भाव से प्रस्तुत कर दी हैं। हाइकु के सिर पर दर्शन का ठीकरा फोड़ने वाले दुरुह शब्दों दर्शन ही बघारने लगते हैं। हाइकु जैसी कोमल कोंपल को इससे मुक्त ही रखा जाए.

दु: ख बादल / सुख उड़ता पंछी / यात्रा अनंत।

खोजता सुख / हाथ लगे है दु: ख / यही है पूँजी.

अजब मेला / अपनों संग चले / / दिल अकेला।

बाह्य प्रकृति में भोर और साँझ अपनी-अपनी सकारात्मक भूमिका का निर्वाह करते हैं। भोर की लालिमा अनुराग जगाती है, आशा को पल्लवित करती है। जाते-जाते सन्ध्या भी सूरज को काम सौंप देती है, फिर से उजास लाने का। सृष्टि में कुछ अपना काम चुपचाप करते जाते हैं, जीवन-जगत् में भी ऐसा ही होता है-

भोर का रंग / दे उम्मीदों के पंख / नयी उड़ान।

यूँ गई साँझ / सूरज को दे काज / लाये उजास।

ध्रुव तारा / दबे पाँव आता / नभ सजाता।

प्राकृतिक सौन्दर्य का रूपक व्योम पिया, मेघ–बाराती और धरा वधू के रूप में अत्यन्त सहज है, बादल और धूप की आँख–मिचौनी भी कम सुन्दर नहीं है, दोनों में सख्यभाव जो है। हवा की चंचलता भी भरपूर लुभाती है। धरती और आकाश को एक ही साथ चूम लेती है-

है व्योम पिया / मेघ बने बराती / धरा शर्माती।

ये मनचला / ले धूप का आँचल / उड़ता चला।

चूम लेती ये / धरती व आकाश / एक ही साथ।

धूप-पगली / बादल की सहेली / करे शैतानी।

सुख के दिनों की तलाश आशा सबको रहती है, मानव-मन को भी, प्रकृति को भी, प्रकृति के ठूँठ को भी-

वो ठूँठ बना / करता इंतजार / आए बहार।

महके फूल / तितली चूमे होंठ / भँवरे गाएँ।

यादें जीवन की पीड़ा भी हैं माधुर्य भी हैं, फूल भी हैं और शूल भी। स्मृतियों को खँगालना और भी सुखद है। इन्हें बाँधकर नहीं रखा जा सकता। पाखी–सी उड़ें तो हाथ नहीं आएँ-

चुने जो फूल / अँजुरी भर लाई / हुए ये शूल।

मिश्री-सी मीठी / निबौरी-सी कड़वी / अनंत यादें। पछी-सी उड़ें / यादें कब होती हैं / तहों में कैद। विछोह की पीड़ा को सीमा ने बहुत सादगी से प्रस्तुत किया है। 'साथ ना मिला' में एक दु: ख भरी नि: श्वास द्रवित कर जाती है। तपते दिन, बेचैन रातें और लरजते आँसू जीवन की विवशता और बेचैनी लिये हुए हैं-

बिखरे मोती / टूटी मन की माला / साथ ना मिला।

तपते दिन / और बेचैन रातें / तन्हा सफर।

थमें या बहें / पलकों पर रुके / अश्क ये कहें।

आँखों की खामोशी भी कुछ नहीं बल्कि बहुत बोलती है। जीवन का चक्र चलता रहता है। एक छोटी–सी लहर भी सागर के गुण समाहित किए हुए है। हाइकु भी इसी तरह अपने कथ्य में विराट रूप (आकार के सन्दर्भ में नहीं, बल्कि अर्थ की गहनता में) समाहित किए हुए होता है।

खामोश बोलें / ये राज हर खोलें / बोलती आँखें।

हर लहर / यूँ टूटी किनारे पर / बनी सागर।

सर्दी की शाम का बहुत सार्थक चित्र खींचा है। संवेदना से साम्य नवीन उद्भावना है, साथ ही सर्दी में माँ के घुटनों का कड़कड़ाना, ढलती उम्र की विकट समस्या है

सर्दी की शामें / संवेदना-सी जमी / ढूँढ़ती आँच।

माँ के घुटने / खूब कड़कड़ाते / सर्दी के आते।

बिगड़ता हुआ पर्यावरण जीव-जन्तु सबके लिए अहितकर है। पूरी प्रकृति लगता कुपित हो उठी है, तभी तो बधिर मेघ खेतों की व्याकुलता नहीं सुनते। नदिया इसलिए आहें भर रही हैं कि उनका अस्तित्व न जाने कब विलीन हो जाए! इन दोनों हाइकु का कथ्य द्रवित करने वाला है

खेतों की आँखें / कर रहीं सवाल / बधिर मेघ।

नदिया ब‍हे / यूँ आहें भर कहे- / कितने पल?

भ्रूण हत्या के विरुद्ध भी सीमा ने अपने मन की बात इन पंक्तियों में उद्धृत की है

अजन्‍मी मिटी / जन्‍मी घुटती रही / जीवन धुरी।

जीवन के बहुत सारे शब्द चित्र इनके हाइकु के विषय वैविध्य को रेखांकित करते हैं। टूटे आइने की तरह खण्डित व्यक्तित्व कभी सही रूप का निर्धारण नहीं कर सकता। बस मन की खिड़की खोलने की बात है। खिड़की खुलते ही मुस्कानों की सौगात स्वागत करेगी।

टूटा आईना / / अक्स नहीं दिखाता / स्वीकारो सच। खोलो खिड़की / मुस्कानों की सौगात / बैठी बेताब।

विगत चार वर्षों में डॉ सुधा गुप्ता, भावना कुँअर, हरेराम समीप, डॉ हरदीप सन्धु, रचना श्रीवास्तव, डॉ कुँवर दिनेश, कुमुद बंसल, डॉ ज्योत्स्ना शर्मा, अनिता ललित, पुष्पा मेहरा, सन्तोष कुमार सिंह, डॉ आशा पाण्डेय, सुदर्शन रत्नाकर, विभा रश्मि के हाइकु–संग्रह ने विशिष्ट उपस्थिति दर्ज़ की है। आशा करता हूँ कि सीमा स्मृति का 'मीठी-सी खुशबू' इसी दिशा में एक और कृति सिद्ध होगी।

10 फ़रवरी, 2016