मीठे सपने / गोवर्धन यादव
नेताजी इस समय परेशानी के दौर से गुजर रहे थे, परेशानी का कारण यह नहीं था कि उनकी कुर्सी खतरे में थी अथवा किसी आतंवादी ने उन्हे धमकी दे रखी थी, परेशानी कुछ ऐसी थी कि वे न तो किसी को बता सकते थे और न ही किसी की सलाह ही ले सकते थे, परेशानी के मूल में थे वे भयानक सपने, जो उन्हे हर रात दिखलाई पडते थे,
नींद की आगोश में जाते ही उन्हें दिखलाई पडता कि वे किसी अज्ञात स्थान पर जा पहुँचे हैं, जहाँ चारो तरफ़ धुआं ही धुआं फ़ैला हुआ है, फिर उसमे एक धुधंली-सी आकृति दिखती, धीरे-धीरे वह आकृति स्पष्ट होने लगती, आकृति स्वयं उनकी होती, थॊडी देर बाद वह किसी सूअर की योनि में बदल जाती, सुअर अपने नथूने से विचित्र आवाज़ निकालता हुआ गंदगी के ढेर में जा घुसता और बदबुदार कीचड में लोट-पोट होने लगता,
अजीबॊ-गरीब हरकते दिखकर उनकी नींद खुल जाती, वे बिस्तर पर उठ बैठते और पाते की उनकी समूची देह पसीने लथपथ हो गई है और शरीर से बदबू उठ रही है, वे सीधे बाथरुम में जा समाते और शावर खोल कर उसके नीचे खडे हो जाते, बदबू अब भी पीछा नहीं छोड रही है, वे किसी खुशबुदार साबुन से घिस-घिस कर नहाते, तब जाकर वे बदबू से निजात पाते,
कभी सपने में वे गिद्द बन जाते और उडते हुए किसी मरे हुए जानवर पर जा बैठते और उसका मांस-पिंड नोच-नोचकर खा्ने लगते, जानवर के जिस्म के फ़टते ही चारॊं तरफ़ खून की नदिया बहने लगतीं, नेताजी की नींद खुल जाती और वे हडबडाकर उठ बैठते, और देखते कि कमरे में खून बिखरा पडा है,
काफ़ी सोचने-विचार करने के बाद वे इस निर्णय पर जा पहुँचे कि ये सब किसी दिलजले विरोधी दल के नेता कि करतूत है, उसने निश्चय ही किसी तांत्रिक की मदद से अथवा किसी अघोरी से मिलकर इस षडयंत्र को रचा है और इसका कोई न कॊई तोड निकलवाना चाहिए,
उन्होने अपने पी, ए, को बुला भेजा और आदेश दिया कि वह किसी सिद्ध तान्त्रिक को लेकर आए,
एक बंद कमरे में उन्होंने अपाने दुख की गठरी उस तान्त्रिक के सामने खोलकर रख दी और कहा कि जितनी जल्दी हो सके उन्हे इस यंत्रणा से बाहर निकाले, उन्होनें यह भी कहा कि चाहे जितना भी पैसा ख़र्च हो जाए उसकि फ़िक्र न की जाए,
तान्त्रिक भी घाघ क़िस्म का था, वह समझ गय कि इस समस्य जितनी भी चांदी वह काट सकता है, काट लेनी चाहिए, ऎसा स्वर्णीम अवसर बार-बर नहीं आ सकता,
दो-ढाई माह तक चाले अनुष्टान में लाखॊ का ख़र्च आया, अनुष्ठान के पुरा होते ही नेताजी को अब बुरे सपने आने बंद हो गए थे,
उन्होने सारे खर्चॊं को सरकारी मद में डाल दिया था, अब नेताजी निश्चिंत होकर अपनी टांगे पसारकर सोते, बुरे सपनों के बजाय अब उन्हें मीठे-मीठे सपने गुदगुदाया करते थे, सपनॊं में अब शोख चंचल हसीनाओं का मेला-सा लगने लगा था।