मीडिया की जाति / मुकेश मानस

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(यह लेख दैनिक हिन्दुस्तान की विदूषी संपादिका मृणाल पांडे के लेख ‘जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान’ के जवाब में लिखा गया है। अपने लेख में उन्होंने लिखा है कि मीडिया की जाति नहीं पूछनी चाहिए क्योंकि उसकी कोई जाति नहीं होती। मीडिया जाति के पूर्वाग्रहों से मुक्त होता है।)



मीडिया की जाति नहीं पूछनी चाहिए क्योंकि उसकी कोई जाति नहीं होती। मीडिया जाति के पूर्वाग्रहों से मुक्त होता है। हिन्दुस्तान की विदूषी संपादिका मृणाल पांडे अपने लेख ‘जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान’ में शायद यही कहना चाह रही हैं। यह एक आदर्श स्थिति है कि मीडिया जाति के पूर्वाग्रहों से मुक्त हो। और जाति ही क्यों उसे वर्ग, धर्म, लिंग, क्षेत्र, भाषा के पूर्वाग्रहों से भी मुक्त होना चाहिए। आदर्श एक ऐसी स्थिति है जिसको सच्चाई में बदलने के लिए इस धरती पर इंसान न जाने कब से संघर्ष करता आ रहा है। आदर्श सच्चाई से दूर की चीज होती है। विद्वान लोग सिर्फ आदर्श की ही बात नहीं करते, वे उस सच्चाई को भी सामने रखते हैं जिससे समाज को रोजाना दो-चार होना पड़ता है। हिन्दुस्तानी समाज में जाति, वर्ग, धर्म, लिंग, क्षेत्र आदि से जुड़े पूर्वाग्रह ऐसी सच्चाईयां हैं जिनका असर हमें हर क्षेत्र में देखने को मिलता है। मीडिया भी इसका अपवाद नहीं है।

ये सही है कि समझदार लोग इन पर ध्यान नहीं देते और वे इन पूर्वाग्रहों से मुक्त होते हैं। मृणालजी पर भी यही बात लागू होती है। मगर वह अपने व्यक्तित्व और विचारों को पूरे समाज का आइना नहीं बना सकती हैं। यह सही है कि मीडिया से जाति नहीं पूछनी चाहिए। मगर हिन्दुस्तानी समाज में जाति न पूछने से जाति छिपती नहीं और न ही उसका असर कम होता है। यही बात धर्म, लिंग, क्षेत्र, भाषा के क्षेत्र के मामले में भी लागू होती है। हिन्दुस्तानी समाज में ये सभी बातें बहुत मायने रखती हैं और इन सभी को अनदेखा नहीं किया जा सकता। मीडिया कोई समाज से स्वतंत्र वस्तु नहीं है और न ही वह समाज में मौजूद तमाम पूर्वाग्रहों से पूरी तरह से मुक्त है।

मीडिया खाली मशीनी संयोजन का नाम नहीं है। उसमें लोग काम करते हैं यानी समाज के विभिन्न तबकों से आए लोग उसमें शामिल होते हैं। ये लोग ही मीडिया को उसका रूप,विचार और व्यक्तित्व प्रदान करते हैं। और ये लोग कहीं आसमान से नहीं टपकते। वे इसी समाज का हिस्सा होते हैं और तमाम पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होते हैं। उनके पूर्वाग्रहों का असर मीडिया के समूचे व्यक्तित्व पर देखा जा सकता है। इस मामले में मीडिया समाज में मौजूद पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं है। कम से कम हिन्दुस्तानी समाज में तो मीडिया की यही वस्तुगत सच्चाई है। और यह बात 37 अखवारों और टीवी चैंनलों के 300 शिखर मीडिया कर्मियों पर करवाए गए सर्वेक्षण से प्रमाण के साथ सही साबित होती है। अगर मृणालजी को इस सर्वेक्षण पर यकीन न हो तो वह कोई दूसरा सर्वेक्षण करवाकर इस सच्चाई को सत्यापित करके देख सकती हैं।

मीडिया में दलितों का क्या प्रतिनिधित्व है इस बात को तो सर्वेक्षण साबित कर चुका हैअम दैनिक हिन्दुस्तान का ही एक उदाहरण देते हैं। दैनिक हिन्दुस्तान में दलितों और अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व क्या है, यह कोई छुपी हुई बात नहीं है। उसके संपादन मंडल में तो काफी लम्बे समय तक समाजवादियों और उदारवादियों की पकड़ रही है। फिर ऐसा क्यों हुआ कि दैनिक हिन्दुस्तान में भी पांडों, त्रिपाठियों और मिश्राओं की पकड़ हो गई। खुद मृणाल पांडे भी अगर इन पूर्वाग्रहों से मुक्त हैं तो वह बताएं कि उन्होंने अपने अखवार में दलितों की भागीदारी बढ़ाने के लिए क्या किया? और मृणालजी को बुरा नहीं मानना चाहिए कि दलितों की भागीदारी बढ़ाने के लिए प्रयास न करना भी जातिवादी मानसिकता का ही पर्याय है।

मृणालजी ने अपने लेख में जाति से ज्यादा ज्ञान पर जोर दिया है। उन्होंने लिखा है कि मीडियाकर्मियों की जाति नहीं उनका ज्ञान देखना चाहिए, उनकी सवेदनशीलता देखनी चाहिए। सही बात है। आज पूरे देश में दलितों की जो स्थिति है उसके हिसाब से हमें ये मान लेना चाहिए कि किसी भी क्षेत्र में अगर उनका प्रतिनिधित्व कम है तो इसका कारण उनमें प्रतिभा का अभाव ही है। ऐसे ही मान लेना चाहिए कि आज अगर दलित लोग मीडिया में दिखाई नहीं पड़ते तो इसकी सीधी सी वजह ये है कि उनमें इस क्षेत्र के लिए जरूरी प्रतिभा नहीं है।

काबिलियत का, प्रतिभा का राग अलापना भी सामंती, पूंजीवादी और ब्राह्मणवादी मानसिकता का ही पर्याय है। काबिलियत क्या उच्चवर्णीय लोगों की ही बपौती है? नहीं है। लेकिन उसे लगातार बनाया जा रहा है, लाखों-करोंड़ों एकलव्यों के अंगूठे काटकर। चूंकि हर क्षेत्र में उच्च वर्ण के लोगों का ही वर्चस्व रहा है। इसलिए दलितों को उन्होंने किसी भी क्षेत्र में बहुत ही कम प्रवेश करने दिया है। ऐसा सिर्फ उनके जातीय पूर्वाग्रहों की वजह से हुआ है। मीडिया में भी जाति के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त उच्च पदों पर काबिज लोगों के चलते ही ऐसा हुआ है। वरना मीडिया में दलित नदारद नहीं होते। इसे शिक्षा के क्षेत्र में भी देखा जा सकता है। दिल्ली विश्वविद्यालय में 1500 दलित शिक्षकों की बजाय 400 से भी कम दलित शिक्षकों का होना किस मानसिकता का पर्याय है। क्या यहाँ भी हम यह मानकर इन आंकड़ों को झुठला दें कि दलित शोधार्थी काबिल नहीं होते।

चलिए जाति नहीं पूछते ज्ञान ही पूछ्ते हैं। पर ज्ञान से पहले इस ज्ञान का आधार पूछना चाहिए। जिसे आज ज्ञान कहा जाता है आखिर उसका आधार क्या है? हिन्दुस्तानी समाज में ज्ञान भी जाति और वर्ग की आधारभूमि से मुक्त है क्या? हजारों सालों से दलितों को ज्ञान से वंचित रखने की पूरी कोशिशें की गई है। एकलव्य, शंबूक इस बात के सशक्त उदाहरण हैं। हिन्दू धर्म की वर्णवादी मानसिकता ने दलितों को ज्ञान से दूर रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। उसके धर्म ग्रंथों में ये मानसिकता भरी पड़ी है। इस बात को साबित करने के लिए सिर्फ मनुस्मृति ही काफी है।

यह एक सच्चाई है कि आज के हिन्दुस्तानी समाज में तथाकथित ज्ञान एक प्रोडक्ट है जिसे खरीदा जाता है। इसे खरीदने के लिए पैसा चाहिए। पैसा दलितों के पास कहाँ? उन्हें तो सम्मान के साथ रोजी-रोटी पाने के भी लाले पड़े हुए हैं। तथाकथित ज्ञान खरीदने के लिए उनके पास पैसा कहाँ? लेकिन क्या इस देश की संपदा में उनका हक नहीं? संपदा के असमान वितरण के चार्ट में दलित सबसे नीचे हैं और उच्च वर्ण सबसे ऊपर। और ये बात आज की नहीं, यह मनु के विधान तक जाती है। मनु के विधान में दलितों से उनकी संपत्ति छीने जाने का प्रावधान तो है मगर उनके लिए संपत्ति और धन अर्जित करने का वहाँ कोई प्रावधान नहीं है।

क्या आज के हिन्दुस्तान की वित्तीय व्यवस्था इस बात का अपवाद है? 2006 के देश के बजट को ही लीजिए। पूरे देश का बजट 160 लाख करोड़ है। दलितों की आबादी 30 प्रतिशत है। इस हिसाब से उनका हिस्सा बनता है 48 लाख करोड़। उनके हिस्से में आये हैं केवल 1500 करोड़ रुपए। पूछा जाये कि उनका बाकी हिस्सा कहाँ गया? और जो उन्हें मिलता है वह भी क्या पूरा मिल पाता है? क्योंकि क्रियान्वयन के के तमाम उच्च पदों पर जाति के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त लोग बैठे हैं। तो दलितों के पास पैसा कहाँ से आयेगा कि वे ज्ञान के प्रोडक्ट को खरीद सकें। इस तथाकथित ज्ञान को वही लोग खरीद सकते हैं जिन्होंने सदियों से दलितों के हिस्से को मारा है। और इन्हीं के ज्ञान के आधार पर मीडिया चलता है। तो कहना होगा कि ये ज्ञान उच्चवर्णीय और उच्चवर्गीय है और इस ज्ञान पर चलने वाला मीडिया भी इस मायने में समाज उच्चवर्णीय और उच्चवर्गीय है।

यह सही है कि पिछ्ले कुछ सालों में मीडिया इस मामले में कुछ सतर्क हुआ है। वह दलितों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के मामलों को उठा रहा है। लेकिन यहाँ यह समझ लेना भी जरूरी है कि मीडिया की अब ऐसे मामलों में दिलचस्पी क्यों बन रही है। आज का मीडिया एक बहुत बड़े उद्योग की शक्ल ले चुका है। उसमें इस देश का पूंजीपति वर्ग बड़े पैमाने पर पूंजी लगा रहा है। ज़ाहिर बात है कि आज का मीडिया पूरी तरह से पूंजी के तर्क से संचालित है। आज का मीडिया हिन्दुस्तान के पूंजीपति वर्ग क नया ‘प्रोड्क्ट’ है जिसे वह बाजार में बेच कर ज्यादा से ज्यादा मुनाफ़ा कमाना चाहता है। इस बाज़ार में बने रहने के लिए मीडिया सारी तिकड़में करता रहता है। अगर आज वह दलितों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के मामले में सतर्क हुआ है तो यह उसकी जरूरत है। वह दलितों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं की एक बहुत बड़ी तादात में अपने ग्राहक बनाना चाहता है। दूसरे इन वर्गों की जागरूकता और सांगठनिकता का दवाब भी उस पर बढ़ा है। इसी दवाब के चलते वह इनकी ओर मुड़ रहा है। लेकिन मीडिया का ‘ओवर आल’ नज़रिया अभी भी तमाम पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है। अगर ऐसा न होता तो दलितों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के संगठनों को अपने स्वतंत्र मीडिया सेंटर स्थापित करने की जरूरत न पड़ती।

लेकिन यहां यह भी देखना होगा कि इन मामलों को उठाने में उसका नज़रिया क्या है? दलितों के कई मामलों में मीडिया थोड़ी संजीदगी जरूर दिखाता है। पर इन मामलों में दिखने वाली उसकी भूमिका को उसके पूरे नज़रिए का आइना नहीं माना जा सकता है। दलितों की आर्थिक-सामाजिक, शैक्षिक और सांस्कृतिक वस्तुगत सच्चाईयों को सही परिप्र्क्ष्य में उठाने की तरफ उसका ध्यान कम ही जाता है। खासतौर पर आरक्षण के मामले में तो अक्सर उसका असली रूप सामने आ ही जाता है। जब-जब आरक्षण का मसला उठता है तो वह प्रतिभा का राग अलापना शुरू कर देता है। उसकी सहानुभूति आरक्षण विरोधियों की तरफ़ दिखाई देने लगती है। और ऐस एक बार नहीं कई बार हो चुका है। अभी हाल में जब सुप्रीम कोर्ट ने दलितों के बीच मौजूद क्रीमी लेयर को आरक्षण न देने की वकालत की तो पूरा मीडिया सुप्रीम कोर्ट के पाले में जाकर खड़ा हो गया।

मीडिया समाज में मौजूद पूर्वाग्रहों और अन्तरविरोधों से मुक्त हो यह अच्छी बात है। लेकिन ऐसी स्थिति फिलहाल किसी स्वर्ग या डेनियल डेफ़ो के उपन्यास ‘राबिन्सन क्रूसो’ के निर्जन टापू में ही संभव हो सकती है। हकीकत यही है कि मीडिया जाति के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है। कबीर ने ही कहा था कि ‘जाति ना पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान’। मगर कबीर के तमाम आलोचक ब्राह्मण ही थे जिन्होंने उनसे उनकी जाति बार-2 पूछी। उन्हें बार-बार यही लगा कि ऐसा ज्ञानी और समाज सुधारक कवि दलित कैसे हो सकता है। इसलिए उन्होंने उन्हें बार-2 ब्राह्मण बताने के प्रयास किए। उनके काव्य को ब्राह्मणवादी परम्परा में ढ़ालने की पूरी कोशिशें कीं। मृणालजी मीडिया की जाति होती है। कम से कम हमारे समाज की सच्चाई तो यही है। उसका ज्ञान भी जाति के पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं है।

जनवरी,2007 कापीराईट सुरक्षित