मीडिया बनाम निजता पर अदालती फैसला / जयप्रकाश चौकसे

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मीडिया बनाम निजता पर अदालती फैसला
प्रकाशन तिथि : 20 जुलाई 2018


इंग्लैंड में जन्मे गायक अभिनेता रिचर्ड क्लिफ ने एक दौर में अंतरराष्ट्रीय सफलता अर्जित की थी। उनकी फिल्म 'द यंग वन्स' ने हंगामा बरपा दिया था। उनसे जुड़ी घटना इस तरह थी कि शंका के आधार पर पुलिस ने कलाकार के घर छापा मारा और मीडिया ने 'आंखों देखा हाल' टेलीविजन पर दिखाया। छापे में पुलिस को कुछ नहीं मिला परंतु मीडिया ने कलाकार को बदनाम कर दिया। इस घटना के खिलाफ कलाकार ने मुकदमा दायर किया कि पुलिस को शंका के आधार पर तलाशी लेने का अधिकार था परंतु मीडिया को बवाल मचाने का अधिकार नहीं था। हर एक व्यक्ति का घर उसकी निजता है और निजता भंग करने का अधिकार मीडिया को नहीं है। अदालत ने मीडिया को दंडित किया है और मीडिया क्षतिपूर्ति के रूप में कलाकार को करोड़ों रुपए अदा करेगा। यह प्रकरण व्यक्ति की निजता बनाम मीडिया की स्वतंत्रता का बन गया। मीडिया का काम है अवाम को खबरें देने का परंतु सनसनीखेज बनाने की प्रक्रिया में अतिरेक हो जाता है। पश्चिम में व्यक्ति की निजता की रक्षा मनुष्य का मौलिक अधिकार है। 'खोजी पत्रकारिता' सनसनी पर सवार होकर सब जगह घुसपैठ करती है। निजता के द्वीप पर खोजी पत्रकारिता की लहरें निरंतर हमला करती हैं। इस तरह मीडिया का आतंकवाद अन्य आतंकवाद से कम भयावह नहीं है।

याद आता है कि राजकुमारी डायना की कार के पीछे मीडिया की अनेक कारें पीछा कर रही थीं और उनसे बचने के प्रयास में डायना की कार दुर्घटनाग्रस्त हो गई। एक मोहक महिला की असमय मृत्यु हो गई। चिंताजनक बात यह है कि खोजी पत्रकार समाज में हो रहे अन्याय व कुरीतियों को मिटाने का प्रयास नहीं करता, क्योंकि अवाम को भी सनसनीखेज समाचारों की भूख है। आम आदमी अपने जीवन के सूनेपन को पाटने के लिए सनसनीखेज समाचारों के लिए हमेशा बेकरार बना रहता है। यह सूनापन, यह संस्कार विहीनता ही सारे फसाद की जड़ में है। आज मनुष्य अकेलेपन से भयाकांत है, क्योंकि वह स्वयं को पूरी तरह समझने का प्रयास ही नहीं करना चाहता। वह अपनी बदसूरती से दूर भागना चाहता है। इस बदसूरती का शरीर से कोई संबंध नहीं है, यह विचार प्रक्रिया की कुरूपता है, जो त्वचा को गोरी बनाने वाले किसी साबुन या क्रीम से जुड़ी हुई नहीं है। विचार प्रक्रिया को किसी नीम साबुन से धोया नहीं जा सकता।

किशोर कुमार ने मीडिया से बचने के लिए अपने बंगले के चारों ओर नहर खुदवा ली थी। इसके साथ यह भी जुड़ा है कि किशोर कुमार का एक खंडवा वाला ठेकेदार मित्र आर्थिक संकट में था और वह इतना स्वाभिमानी था कि अपने सितारा मित्र से कोई धन नहीं लेता था। अत: किशोर कुमार ने अपने ठेकेदार मित्र को बताया कि मीडिया से बचने के लिए वे यह काम कर रहे हैं। उस ठेकेदार मित्र की अधिक मदद के लिए किशोर कुमार ने उससे कहा कि मुंबई महानगर पालिका के नियम का उल्लंघन है इस तरह की नहर बनाना तो उसी ठेकेदार से नहर पाट दी गई, जिसका मेहनताना भी उसी ठेकेदार को मिला। किशोर कुमार के सनकीपन के हर किस्से का सच कुछ और ही है।

कुछ कलाकार अपनी निजता की रक्षा के लिए भांति-भांति के काम करते हैं। सुचित्रा सेन दादा फालके पुरस्कार ग्रहण करने दिल्ली नहीं आईं, क्योंकि वे जानती थीं कि मीडिया कई दिन तक पीछे पड़ेगा। सुचित्रा सेन कभी-कभी अपने बंगले के पिछले दरवाजे से बुरका पहनकर बाहर आती थीं और जरूरी चीजें खरीदकर लौट जाती थीं। सभी कलाकार अपनी निजता के प्रति इतने संवेदनशील नहीं होते। राजेश खन्ना तो आवश्यकता से अधिक उजागर होने का प्रयास करते थे। वे पत्रकार देवयानी चौबल को हर जगह अपने साथ ले जाते थे। एक दिन उन्होंने अपने संन्यास की खबर प्रचारित करा दी। वे जानते थे कि इस खबर के विस्फोट के आणविक विकिरण भी होंगे परंतु वे यह नहीं जानते थे कि इस खबर के बाद उनकी अनेक फिल्में असफल हो जाएंगी और वे संन्यास लेने के लिए बाध्य कर दिए जाएंगे। इस सारी कवायद के कारण देवयानी चौबल भी एक सितारे की तरह बन गईं, जिसका खामियाजा उन्हें इस तरह चुकाना पड़ा कि वे बीमार हो गईं और उनकी अपनी बिरादरी का कोई साथी उनकी सहायता के लिए नहीं आया। सितारों की निकटता भयावह हो सकती है। यथार्थ की धरती पर खड़े रहकर ही सितारों को देखना चाहिए। 'जीवन एक लंबी कहानी, सितारों की बात सुने रात सुहानी'। इससे अधिक मौजूं है यह शेर 'इक रिदाएतीरगी है और ख्वाबे कायनात, डूबते जाते हैं तारे और भीगती जाती है रात'। 'भोली सूरत और दिल के खोटे, नाम बड़े और दर्शन छोटे' फिल्म 'अलबेला' का यह गीत गली-गली घर-घर गूंजता रहा और फिल्मकार भगवान दादा सफलता के घोड़े पर सवार हो गए। अपनी फिजूलखर्ची और शराबनोशी ने उन पर यह कहर ढाया कि उनका आखरी वक्त झोपड़पट्टी में देशी ठर्रा पीकर गुजरा। दरअसल जीवन में संतुलन बनाए रखना आवश्यक है।

एक दुष्चक्र यह है कि मीडिया सनसनीखेज बने रहने की अपनी मजबूरी बताता है कि अवाम यही चाहता है। सनसनीखेज का बाजार किसने रचा है? काश अवाम कहे कि बाजार से गुजरा हूं परंतु खरीददार नहीं हूं। सामाजिक सोद्देश्यता से जुड़कर मीडिया सामाजिक न्याय दिलाए जैसे कि हमने देखा फिल्म 'नो वन किल्ड जेसिका' में। समाज के सारे घटक सार्थक दिशा में एक साथ चल पड़ें तो अब भी बात बन सकती है।