मीनाकुमारी 39 साल की लंबी कविता / जयप्रकाश चौकसे

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मीनाकुमारी 39 साल की लंबी कविता


मुंबई के दादर क्षेत्र में बसे रंजीत स्टूडियो के निकट की एक संकरी गली के आखिरी मकान में मेहजबीं नामक बच्ची का जन्म हुआ। उसके असफल पिता शराबनोशी के शिकार थे और मां को गरीबी नामक घातक बीमारी थी, अत: सात वर्षीय मेहजबीं को विजय भट्ट की ‘लेदरफेस’ में बाल कलाकार की भूमिका मिली और सारा बचपन वह पूरे परिवार की एकमात्र कमाने वाली रही और सच तो यह है कि ताउम्र वह दूसरों के लिए कमाती रहीं। दजर्नों सुपरहिट फिल्मों में काम करने वाली शिखर सितारा की आखिरी बीमारी का अस्पताल का बिल उसके डॉक्टर ने अदा किया।

वह खाली हाथ आई थीं, खाली हाथ चली गईं। उनके हाथों के मैल से कई चूल्हे जले, कई फिल्मकार बन गए और कुछ तो शायर भी बन गए।

ऐसा कहते हैं कि उनकी मां का रवीन्द्रनाथ टैगोर से दूर का रिश्ता था। इसका एकमात्र सबूत सिर्फ इतना है कि बंगाली औरतों की भूमिकाएं उन्होंने बड़ी कशिश से निभाई। उन्होंने कविताएं भी लिखी हैं। नाज के छद्म नाम से और उनकी एक कविता उनके व्यक्तित्व का परिचय देती है‘ मांगी मांगी हुई सी कुछ बातें दिन की झोली में भीख की रातें मेरी दहलीज पर भी आई थी जिंदगी, दे गई है कुछ सौगातें।’ विजय भट्ट की ‘बैजू बावरा’ से मीनाकुमारी सितारा हो गईं और उन्होंने सफल फिल्मों की श्रृंखला खड़ी कर दी। ‘परिणिता’ 1953 ‘एक ही रास्ता’ 1954, ‘शारदा’, ‘आजाद’ इत्यादि। कमाल अमरोही बॉम्बे टॉकीज के लिए ‘महल’ बना चुके थे, इसलिए वे मीनाकुमारी को अनारकली की भूमिका सुनाने गए लेकिन ये फिल्म मीना के साथ नहीं बन पाई। परंतु उनके अदब से प्रभावित मीना कुमारी ने उनसे निकाह कर लिया। दरअसल वह अपने लालची रिश्तेदारों की कैद से छूटना चाहती थीं। परंतु वर्षो वाद उसे ज्ञात हुआ कि वह एक कैद से दूसरी कैद में आ गई। सच तो यह कि परिवार के लिए रोटी कमाने में उसने बचपन खो दिया था और सारी उम्र प्यार की मृगतृष्णा में भटकता रहीं। इस राह में उन्होंने बहुत धोखे खाए। देह के पिंजड़े से वह 31 मार्च 1972 को आजाद हुई।

मीना कुमारी और कमाल अमरोही की पाकीजा को बनने में सत्रह वर्ष लगे, क्योंकि संबंध बिगड़ने के कुछ वर्ष शूटिंग नहीं हुई, परंतु लोगों की प्रार्थना के कारण मीना कुमारी ने ‘पाकीजा’ का बचा हुआ काम खत्म किया। उन दिनों उनकी तबियत बहुत खराब थी, परंतु अपनी इच्छाशक्ति से ही फिल्म पूरी कर सकीं। उनकी मौत ने भी मृत्यु तक दूसरों को लाभ ही पहुंचाया।

मीना के जीवन में गुरुदत्त की ‘साहब बीवी और गुलाम’ ने उनके व्यक्तित्व तक को गहरे रूप से प्रभावित किया। जमींदार घराने की छोटी बहू अपने अय्याश पति को सद्गृहस्थ बनाने के लिए उसके आग्रह पर शराब पीती है। मगर, पति की सद्राह पर लौटते-लौटते वह शराब पीने की आदी हो जाती हैं। यह किरदार उसकी आत्मा में समा गया और वह अपने जीवन की कमी को भी शराबनोशी में गर्त करने लगीं। एक निहायत ही खूबसूरत प्रतिभाशाली कलाकार को एक भूमिका ही खा गई। मार्लिन ब्रेन्डो हर फिल्म के बाद मनोचिकित्सक की सहायता से भूमिका से मुक्त होते थे। दिलीपकुमार ने भी अपने डॉक्टर की सलाह पर गंभीर व त्रासदी के बदले हास्य फिल्में कुछ समय तक कीं। दरअसल मीना कुमारी को अपने जीवन के किसी भी दौर में निस्वार्थ भाव से मदद करने वाले नहीं मिले। वह ताउम्र दूसरों की टकसाल बनी रहीं।

मीनाकुमारी का विशलेषण करना असान नहीं है। उनके अवचेतन में दर्ज दर्द का अनुमान लगाना कठिन है। किसी व्यक्ति का सारी उम्र ठगा जाना, शोषण होना उसे जटिल बना सकता है।

कासिफ इंदौरी का शेर हमें मीना को समझने में मदद कर सकता है‘सरासर गलत है इल्जामे बलानोशी का, जिस कदर आंसू पिए हैं, उससे कम पी है शराब।’ यह बात गौरतलब है कि मीनाकुमारी द्वारा प्रस्तुत दुखियारी महिला का पात्र उस दौर में इतना कामयाब हुआ कि मध्यम वर्ग की युवा लड़कियां मीना की भूमिकाओं की तरह दर्द की देनी की छवि अपना लेती थीं। गोयाकि मीनाकुमारी ने अपने अभिनय से दर्द की लहर पैदा की।