मीना कुमारी बायोपिक : आखिरी पिंजड़ / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :26 मार्च 2015
तिगमांशु धूलिया लंबे अरसे से मीनाकुमारी की बायोपिक कंगना रनोट को लेकर बनाना चाहते हैं। ज्ञातव्य है कि विनोद मेहता ने अपने संघर्ष के दौर में मीनाकुमारी की जीवनी लिखी थी। कुछ और किताबें भी लिखी गई हैं। सुधीर मिश्रा ने 'खोया खोया चांद' नामक फिल्म सोहा अली के साथ बनाई थी, जिसका आधार भी मीनाकुमारी का जीवन था। सुना है कि मीनाकुमारी के पति कमाल अमरोही के साहबजादे ने इस प्रस्तावित फिल्म के खिलाफ कानूनी लड़ाई की घोषणा की है। कमाल अमरोही की सारी संतानें उनकी पहली पत्नी से जन्मी है और मीना नि:संतान ही थीं। किवदंती है कि टैगोर परिवार की किसी कन्या ने हारमोनियम वादक से प्रेम विवाह किया था और उस संगीत निर्देशक बनने की महत्वाकांक्षा रखने वाले असफल आदमी की सुपुत्री मेहरुन्निसा उर्फ मीना कुमारी ने बाल कलाकार के रूप में अभिनय किया और ताउम्र वे अपने परिवार की एकमात्र कमाऊ स्त्री रही। बाल कलाकार के रूप में उनकी पहली फिल्म विजय भट्ट की 'लेदर फेस' 1939 थी और विजय भट्ट की ही 'गणेश महिमा' में वे नायिका के रूप में आईं और भट्ट की ही 'बैजू बावरा' ने उन्हें सितारा हैसियत दी। मीना अपने पिता द्वारा घर की नौकरानी से किए गए दूसरे विवाह से नाराज हुईं और पिता का घर छोड़ने की जल्दी में उन्होंने अपने से बड़ी उम्र के कमाल अमरोही से शादी कर ली और पिता के पिंजरे से निकल कर पति के पिंजरे में आ गईं। कमाल साहब बहुत ही अच्छे लेखक थे और उनकी रोजमर्रा की जबान भी निहायत ही शायराना थी और यह शायराना मिज़ाज ही मीना कुमारी की कमजोरी थी। उन्होंने गुलज़ार की 'मेरे अपने' में काम करते समय स्वयं की शायरी के सारे अधिकार गुलज़ार को सौंपे, जिन्होंने उसे किताब के रूप में प्रकाशित भी कराया था। संभवत: उसका नाम था '39 वर्षीय दर्द की कविता।' ज्ञातव्य है कि मीना चालीस की होने के पहले ही मर गईं। मौत का डॉक्टरी प्रमाण-पत्र कहता है - सिरोसिस ऑफ लीवर अर्थात शराबनोशी से खराब हुआ यकृत परंतु शायद वे अपने निरंतर शोषण के दु:ख से मरीं। उनका अपना जीवन का नज़रिया रूमानी शायरी का था और उनकी विचार शैली का यह शीशमहल बार-बार दुनियादारी से टकराता रहा और इसके टूटे कांच की किरचियां उनकी आंख में गिरती रहीं, यही कारण है कि उन्हें फिल्मी दृश्य में रोने के लिए कभी अन्य कलाकारों की तरह ग्लिसरीन नहीं लगाना पड़ा।
वह भारतीय सिनेमा का स्वर्ण काल था, नर्गिस, मधुबाला और मीनाकुमारी की प्रतिभा त्रिवेणी राज कपूर, दिलीप कुमार, देव आनंद के साथ यादगार फिल्मों की झड़ी लगा रही थी। उसी दौर के अंतिम चरण में नूतन भी शामिल हो गई थीं। बहरहाल, मीना कुमारी पति के पिंजरे से 1964 में मुक्त हो गईं और उन्होंने अपनी स्वतंत्रता को इतने जोश-खरोश से मनाया कि वे व्यवहार में अराजक हो गईं। तनाव से मुक्त होने के लिए चोरी छुपे एक दो ब्रैंडी पीने वाली मीना सरेआम पीने लगीं। गुरुदत्त की 'साहब,बीबी और गुलाम' में अपने पति का प्यार पाने के लिए पीना शुरू करने वाली पारम्परिक बहू इतनी आदी हो गई कि पति की वापसी के बाद भी शराब नहीं छूटी। क्या 'बीबी' का पात्र मीना के अवचेतन में इस कदर बैठा की त्रासदी की क्वीन अपनी तमाम त्रासद भूमिकाओं का जमा जोड़ नज़र आने लगीं। वही 'बीबी' अपनी पार्श्वगायिका गीता दत्त की काया में भी प्रवेश कर गई और दोनों की मौत कमोवेश एक जैसी ही हुई। पात्र द्वारा परकाया में प्रवेश अविश्वसनीय लगता है।
बहरहाल, सत्रह वर्ष तक रुक-रुक कर बनने वाली 'पाकीजा' मीना ने बहुत बीमारी के समय पूरी की और यूनिट का कहना है कि शॉट देकर वे निढाल पड़ जाती थीं परंतु कैमरे के सामने जैसे कोई अनजान ऊर्जा उनके जिस्म में दौड़ जाती थी और ऐसा क्यों न होता, चार वर्ष की अवस्था से चालीस तक यही रिश्ता तो नहीं बदला था। न कैमरे ने बेवफाई की और न मीना के प्रेम में कमी आई। मीना की मृत्यु के बाद पाकीजा के लिए दर्शक उमड़ पड़े गोयाकि ताउम्र दूसरों का भला करने वाली मीना की मौत भी बाक्स ऑफिस पर हिट थी। इस तरह वह अपने जिस्म के पिंजरे से भी मुक्त हुई।