मुंबइया बंगाली हावड़ा बंगाली / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुंबइया बंगाली हावड़ा बंगाली

प्रकाशन तिथि : 28 जून 2012

मुंबई के सिनेमा में समय-समय पर बंगाल के फिल्मकार सक्रिय रहे हैं। आजकल सुजॉय घोष, शूजित सरकार और दिबाकर बनर्जी फिल्में बना रहे हैं। सुजॉय घोष की 'कहानी' और शूजित सरकार की 'विकी डोनर' पसंद की गईं और सफल भी रहीं। बंगाल की बीएन सरकार द्वारा स्थापित न्यू थिएटर्स फिल्म कंपनी ने साहित्यिक कृतियों पर सफल और सार्थक फिल्में रचीं। उस कंपनी के आधार स्तंभ थे देवकी बोस, नितिन बोस और प्रथमेश बरुआ। नितिन बोस के कैमरामैन बिमल रॉय ने 'देवदास', 'मंजिल' और 'माया' का छायांकन किया और बरुआ के लिए 'मुक्ति' में उनके द्वारा की गई आउटडोर शूटिंग की बहुत प्रशंसा हुई। बिमल रॉय ने बंगाल में सफल फिल्में बनाने के बाद मुंबई आने का निश्चय किया। न्यू थिएटर्स के विघटन के बाद नितिन बोस भी मुंबई आ गए। ऋषिकेश मुखर्जी बिमल रॉय की फिल्मों के संपादक रहे। भारत की स्वतंत्रता के बाद बंगाल से आए फिल्मकारों ने सार्थक सफल फिल्में बनाईं और उनमें बिमल रॉय को भारत के महान फिल्मकारों में एक माना जाता है।

ऋषिकेश मुखर्जी ने दिलीप कुमार अभिनीत 'मुसाफिर' से बतौर निर्देशक अपना सफर प्रारंभ किया और उनकी 'सत्यकाम' तथा 'आनंद' महान फिल्में मानी जाती हैं। असित सेन ने सुचित्रा सेन और अशोक कुमार के साथ अपनी बंगाली फिल्म 'सात पखे बाधा' का हिंदी संस्करण 'ममता' के नाम से बनाया। उनकी राजेश खन्ना शर्मिला टैगोर अभिनीत 'सफर' भी सफल फिल्म रही। नितिन बोस ने दिलीप कुमार अभिनीत 'मिलन' बनाई थी और बाद में 'गंगा जमुना' भी निर्देशित की, परंतु 'गंगा जमुना' की केंद्रीय ऊर्जा दिलीप कुमार थे। मृणाल सेन ने अपनी अल्प बजट की 'भुवन शोम' से समानांतर सिनेमा की लहर प्रवाहित की।

गायक-संगीतकार हेमंत मुखर्जी ने भी 'बीस साल बाद', 'कोहरा' इत्यादि अनेक सफल फिल्मों का निर्माण किया। यह गौरतलब है कि मुंबई में बसे बंगाली शशधर मुखर्जी ने हमेशा मसाला फिल्में बनाईं और उनके स्कूल से निकले अनेक लोगों ने भी सफल मसाला फिल्में बनाईं। आमिर खान के ताऊ नासिर हुसैन भी इसी पाठशाला से निकले थे, परंतु बंगाल में काम करने के बाद मुंबई आए लोगों ने सार्थक फिल्में रचीं। अत: मुंबइया बंगाली और बंगाल के बंगाली फिल्मकारों की फिल्मों में अंतर है। बिमल रॉय के सिनेमाई स्कूल से ही गुलजार आए हैं, जो जन्म से सिख हैं, परंतु उनकी फिल्मों में बिमल रॉय स्पर्श देखा जा सकता है।

यह भी कहा जाता है कि विगत कुछ वर्षों से बंगाल में मुंबइया मसाला फिल्में बन रही हैं और रविंद्रनाथ टैगोर तथा सत्यजीत रे के प्रभाव का लोप हो गया है। वहां चेन्नई से माल उठाकर 'राऊडी राठौर' भी बनाई जा रही है। दरअसल मसाला मनोरंजन की लहर प्रांतीय सरहदों के परे जाती है। हिंदुस्तानी सिनेमा की यह चारित्रिक विशेषता है कि मसाला मनोरंजन के साथ ही सार्थक सोद्देश्य मनोरंजन भी गढ़ा जाता रहा है और मध्यमार्गीय फिल्में भी बनाई जाती रही हैं।

बंगाल से आई सुचित्रा सेन, राखी, शर्मिला टैगोर, अपर्णा सेन और बिपाशा बसु तथा कोंकणा सेन शर्मा जैसी अभिनेत्रियां मुंबई में सफल सितारा बनीं, परंतु वहां का कोई नायक मुंबई में सफल सितारा नहीं बन पाया। यहां तक कि उत्तम कुमार भी नहीं चले। मिथुन चक्रवर्ती ने मृणाल सेन की 'मृगया' से पारी शुरू की, परंतु वे मुंबइया बंगाली सिद्ध हुए। नक्सलवाद की पृष्ठभूमि से बेंगलुरू में पांचसितारा होटल 'मोनार्क' तक का सफर तय किया। इसी तरह दक्षिण भारत की वैजयंती माला से श्रीदेवी तक अनेक तारिकाएं मुंबई में शिखर-सितारा रहीं, परंतु कमल हासन और रजनीकांत मुंबइया फिल्मों में आशानुरूप सफल नहीं हुए। लड़कियां मानसून की तरह केरल से दक्षिण होते हुए मुंबई में खूब बरसती हैं।

सुजॉय घोष, शूजित सरकार और दिबाकर बनर्जी जैसे आज के बंगाली बिमल रॉय और ऋषिकेश मुखर्जी की तरह बंगाल के टैगोर युग के सांस्कृतिक पुनर्जागरण के बनिस्बत पश्चिमी देशों के फिल्मकारों की तरह सोचते हैं। वे ठेठ बंगाली फिल्में नहीं रचते। उनकी आधुनिकता में दुर्गा पूजा के दृश्य शामिल होतेहुए भी 'बिमलमय' नहीं हैं। 'कहानी' फ्रांस में बनी थ्रिलरनुमा फिल्म है और शायद इसी कारण उस पर आधारित फिल्म हॉलीवुड में बनने जा रही है। अभी इस सौदे की वार्ता जारी है। 'विकी डोनर' पीजी वुडहाउस की लिखी-सी लगती है। केवल अछूते कथानक और उनकी ताजगी हमें बंगाली सिनेमा का स्मरण कराती है। मुंबई में बनी हिल्सा मछली और कोलकाता में बनी हिल्सा के स्वाद में अंतर होता है। इतना ही नहीं, पोखर-पोखर में अंतर होता है। सिनेमा में भी यही अंतर है।

आज की पीढ़ी के बंगाली फिल्मकारों में बिमल रॉय ढूंढना भी अनुचित है। आज का असहिष्णु समाज गांधीवादी 'सुजाता' को चलने नहीं देगा, 'बंदिनी' द्वारा युवा सफल डॉक्टर को अस्वीकृत करना भी सहन नहीं कर पाएगा। हर कालखंड की अपनी संवेदनाएं और सीमाएं होती हैं। समय अपने कालखंड का डुप्लीकेट नहीं रचता।