मुंबई एक फिल्मी सैट है / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 22 नवम्बर 2014
साहित्य में कथानक की पृष्ठभूमि वाले गांवों आैर शहरों का विविध वर्णन होता है, पश्चिम की फिल्मों में शहर पात्र की तरह प्रस्तुत होते हैं परंतु आम हिन्दुस्तानी फिल्मों में विशद विवरण नहीं होता। कभी-कभी शहर के प्रसिद्ध स्थानों के शॉट्स होते हैं परंतु शहर की अंतड़ियों में कभी झांका नहीं जाता। जयंतीलाल गढ़ा की सुजॉय घोष निर्देशित 'कहानी' एक अपवाद है जिसमें कलकत्ता की आंकी-बांकी सर्पीली गलियों का चित्रण हुआ है। जॉन अब्राहम की 'मद्रास कैफे' में भी चित्रण हुआ है। चौथे आैर पांचवे दशक की फिल्मों में बंबई की चौपाटी, मैरिन ड्राइव इत्यादि जगहों का चित्रण हुआ है आैर बंबई की राष्ट्रीय लाइब्रेरी की प्रसिद्ध सीढ़ियों पर कई दृश्य फिल्माए गए हैं। 'वंस अपॉन टाइम इन मुंबई' में अग्निपाड़ा की गलियां चित्रित हुई है।
आमिर खान ने अपनी 'तलाश' में मुंबई 'पीला हाऊस' नामक तवायफों के मोहल्ले की शूटिंग पांडिचेरी में की थी आैर केवल दुकानों के साइन बोर्ड बदले गए। अनुराग कश्यप की रणबीर कपूर अभिनीत "बॉम्बे वेलवेट' भी श्रीलंका में मुंबई का सेट लगाकर फिल्माई गई है। किसी भी शहर की पहचान से आप उसकी तवायफों को अलग नहीं कर सकते। अभी हाल ही में 'दावत-ए-इश्क' में हैदराबाद आैर लखनऊ के भीतरी इलाकों में शूटिंग की गई है। खबर है कि बोनी कपूर की तेवर में आगरा आैर मेरठ की गलियों की शूटिंग का बाहुल्य है।
राजकपूर आैर देवआनंद की श्याम-श्वेत फिल्मों में बंबई दिखाया गया है आैर आज के मुंबई की भीड़ देखकर, उस दौर की शांति एक चुभने वाली याद की तरह टीस देती है। आज भी मुंबई बुजुर्गों की स्मृति में एक शांत मुंबई धड़कता है। हर व्यक्ति के विकास में उसके शहर की छाप कहीं कहीं होती है। किशोर कुमार ताउम्र अपना परिचय खंडवा वाले किशोर कुमार बोलकर करते रहे आैर उनकी अंतिम इच्छा के अनुरूप उनका अंतिम संस्कार खंडवा में हुआ। आज कोई उम्रदराज आदमी उस शहर या कस्बे में जाता है जहां उसने बचपन या जवानी गुजारी हो तो उसे अपनी स्मृति में दर्ज शहर नहीं आता। हमने गुजश्ता सालों में सीमेंट के बीहड़ खड़े किए हैं आैर भविष्य में सौ स्मार्ट सिटी बन जाने पर 'अपरिचय के कितने विंध्याचल' खड़े होंगे। पुराने दोस्तों से मिलना भावना का तकाजा है परंतु मिलने आप उसे अजनबी पाते हैं क्योंकि हर व्यक्ति अलग-अलग ढंग से बड़ा होता है। फलों के पैदा होने आैर पकने में फर्क होता है। जीवन के हालात की भट्टी सबको अलग-अलग सांचे में ढालती है। युद्ध के समय किशोर दो दिन में युवा हो जाता है, युवा चार दिन में बूढ़ा हो जाता है। छद्म देश-प्रेम की नारेबाजी में युद्ध का आवाहन उससे जन्मी त्रासदी को नहीं जानते।
'मिरर' में मीनल बघेल ने मुंबई का वर्णन कविता की तरह किया जिसका शब्दश: अनुवाद मेरे बूते का नहीं है परंतु सारांश यूं है- शहर का वर्णन कठिन है, उसे शब्दों में कैसे बांधा जा सकता है। यह शहर सपनों का शहर कहलाता है जो कभी सोता नहीं। यह कुछ के लिए दम घोटने वाला होता है तो कुछ के लिए प्रेरणादायी है दोनों अनुभव गलबाही करते हैं। इस शहर में प्रेम आैर नफरत एक साथ कायम है। इसका चेहरा सुंदर भी है, कुछ मुंहासे भी प्राय: उभरते रहते हैं, इसकी चौंकाने वाली सच्चाई आैर इसके भयावह झूठ रहस्यमयी है। यह एक ही समय में अच्छा, बुरा आैर असुंदर भी है। जब भी कोई इस शहर की अंतड़ियों में छुपे मवाद को उजागर करता है तो उसके खिलाफ इसके अंधेरे में नफरत का ज्वारभाटा हिलोंरे लेता है। आप जिन्हें बचाते हैं उनके लिए नायक हैं तो इसमें बसे अपराध जगत के लिए खलनायक है। सच्चाई प्रस्तुत करने के लिए कुछ लोग आपसे नफरत करें तो इस नफरत को अपने साहस का परिधान समझें।
इसमें गौरतलब यह है कि सच्चाई की खातिर मिली निहित स्वार्थ की नफरत को साहसी की गरिमा बताया है। आज सब जगह भांति-भांति की प्रशंसा गाने वालों का हुजूम है, सभी चारण गाथा के गवैये बन गए हैं आैर इस आडम्बर की मुखालफत को बेसुरा होना कहा जा रहा है। सहिष्णुता का दौर खत्म हो गया है। इस नफरत आैर हिंसा की जड़ में डर है। यह डर का साम्राज्य है। बहरहाल मुंबई समुद्र के किनारे इंसानी लहरों का शहर है। इस शहर की खूबी यह है कि पूरे भारत के अनेक शहर आैर कस्बों में मुंबई का सपना बसा है आैर मुंबई में पूरे देश के अंचल गगन चुम्बी इमारतों की वृष्टि छाया में बस चुके हैं। मुंबई में छोटा बिहार, छोटा मध्यप्रदेश इत्यादि सभी मौजूद हैं।
दअसल मुझे लगता है कि मुंबई एक भव्य फिल्मी सैट है जिस पर इंडिया नामक फिल्म भी शूट हो रही है। यह फिल्म एक ट्रैजी-कॉमेडी है- यह विद्या कला में अलसभोर कहलाती है।