मुंबई के श्रेष्ठी इलाके में पंजाब का पिंड / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 08 दिसम्बर 2014
आज धर्मेंद्र अपने जीवन के अस्सीवें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं गुजश्ता लगभग पचपन वर्षों से अभिनय क्षेत्र में है। किशोरावस्था में अपने पिंड से मीलों दूर साइकिल पर बैठकर फिल्में देखने जाते थे। किसान पुत्र धर्मेंद्र स्वाभाविक रूप, सुंदर शरीर के मालिक थे आैर स्वभाव में पंजाब की फिजाआें की मस्ती थी। उनके मन में अभिनेता बनने का जुनून सवार हुआ परंतु स्कूल शिक्षक पिता घर में भी अपनी स्कूल वाली छड़ी लेकर आते थे तथा उसके इस्तेमाल में उनका रुख अपने छात्रों आैर पुत्रों के प्रति समान था गोयाकि पिटाई समान रूप से सबकी होती थी। एक तरफ पिता का अनुशासन था तो दूसरी तरह उनके स्वभाव की मस्ती थी।
बहरहाल मुंबई आकर उन्होंने खूब कड़ा संघर्ष किया। उन दिनों दिलीप-राज-देव की प्रतिभा तिकड़ी अपने पूरे उफान पर थी। मुंबई के मारिया गेस्ट हाउस में सारे संघर्षरत युवा थे। उस दौर में सलीम खान, धर्मेंद्र आैर मनोज साथ-साथ संघर्ष करते थे। अपने पिंड में दिन में तीन बार सरसों का साग आैर मक्के की रोटी आैर मलाईदार लस्सी के आदी धर्मेंद्र को चाय में डुबाकर डबल रोटी खाना अजीब लगा आैर कड़की का यह आलम था कि एक रात दिन भर की भागदौड़, अस्वीकृतियों आैर भूख से त्रस्त धर्मेंद्र ने अपने रूम पार्टनर की ईसबगोल की भूसी का पूरा डब्बा पानी के साथ खा लिया। अगली सुबह पार्टनर धर्मेंद्र की दस्तावर हालत देखकर डॉक्टर के पास ले गए तो सारी बात समझकर डॉक्टर ने कहा कि इन्हें दवा की नहीं दावत की जरूरत है।
बहरहाल हिंगोरानी की 'दिल भी तेरा, हम भी तेरे' में काम मिला जिसके एवज में धर्मेंद्र ने ताउम्र उसकी फिल्में अपने बाजार दाम के बीस प्रतिशत में की। विमलराय की 'बंदिनी' में छोटी भूमिका में उन्हें सराहा गया आैर मीना कुमारी के साथ आे.पी.रल्हन की 'फूल आैर पत्थर' से उन्हें सफलता मिली तथा रामानंद सागर की 'आंखें' से वे सितारा बन गए। आज के सितारे अपने मनपसंद चुनिंदा निर्माताआें के साथ ही काम करते हैं जिसे वे अपना 'कंफर्ट जोन' मानते हैं जबकि अपने शिखर दिनों में धर्मेंद्र ने बड़े-छोटे सभी निर्माताआें की फिल्म की जिसके कारण भारत के छोटे बड़े शहरों के सिनेमाघरों को निरंतर आय प्राप्त हुई, प्रांतीय सरकारों को मनोरंजन कर के रूप में अपार धन मिला। अगर धर्मेंद्र श्रेष्ठि वर्ग के निर्माता के साथ 'शोले' आैर मनमोहन देसाई के साथ 'धरमवीर' जैसी भव्य फिल्में कर रहे थे तो उन्होंने छोटी फिल्मों के निर्माता एस. कपूर के साथ भी काम किया आैर महान राजकपूर की 'जोकर' में भी भूमिका की। धर्मेंद्र ने कभी निर्माताआें के श्रेणीकरण में यकीन नहीं किया। यह उनका भारतीय सिनेमा को बहुत बड़ा योगदान है कि उनका अथक परिश्रम से शो हर स्तर पर जारी रहा। इसके साथ ही उन्होंने ऋषिकेश मुखर्जी के साथ कम मेहनताने पर 'सत्यकाम' जैसी सार्थक फिल्म की तथा अमिताभ बच्चन के साथ बाबू मोशाय के लिए एक बेमिसाल हास्य फिल्म भी की। हर किस्म की फिल्म आैर हर श्रेणी के निर्माता के लिए उनका द्वार खुला रहता था।
उनके भोलेपन की हद देखिए कि उन्होंने राजकपूर को अपने नए बंगले के गृह-प्रवेश पर आमंत्रित किया आैर पूछे जाने पर कितना बड़ा बंगला है, उन्होंने स्क्वेयर फीट वाला हिसाब तो कभी समझा ही नहीं, उनका जवाब था 'राज जी मुझे लगता है तीस चालीस मंजियां (बिस्तर) तो लग सकती है।' इस भव्य बंगले में उनके पिंड से आए हर बंदे का स्वागत था आैर रहने की जगह के साथ भोजन भी उपलब्ध था। इस तरह उन्होंने मुंबई के श्रेष्ठि वर्ग की रिहाइश के जुहू क्षेत्र में अपने घर को 'पंजाब का पिंड' बना दिया। अपने रिश्तेदारों को भी सफल निर्माता बना दिया। उन्होंने ताउम्र अपनी पंजाबियत कायम रखी। सितारा बनने के बाद जब अपने पिता को घर बुलाया तो मास्टर साहब अपनी छड़ी साथ लाए तथा सितारा पुत्र भी देर से लौटने पर पिछले दरवाजे से ही घर में घुसते थे। पिता के लिए सम्मान, पुत्रों के लिए प्यार कायम रखा। अब अस्सीवें वर्ष में भी पंजाबियत कायम है। ईश्वर उन्हें दीर्घ आयु दें।