मुंबई सिनेमा की बाहों में / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 09 फरवरी 2013
ज्ञान प्रकाश की किताब 'मुंबई फैबल्स' पर आधारित अनुराग कश्यप की पटकथा 'बॉम्बे वेल्वेट' के नायक रणबीर कपूर फिल्म के सहनिर्माता भी हैं और उनके सुझाव के अनुरूप कुछ परिवर्तन किए गए हैं। आरके फिल्म्स के चाहने वालों को थोड़ा दुख हो सकता है कि राज कपूर का पोता अपनी पारिवारिक संस्था के तहत फिल्म का निर्माण नहीं कर रहा है, परंतु आज उद्योग के नित्य बदलते अर्थशास्त्र में हर सफल सितारा अपने द्वारा अभिनीत हर फिल्म में प्रमुख हिस्सेदार हैं। वे अपने मेहनताने के बदले तीस, पचास या अस्सी प्रतिशत मुनाफे के हकदार हो जाते हैं। ज्ञान प्रकाश की किताब मुंबई के महानगर बनने की कथा कहती है, जिसकी पृष्ठभूमि मनुष्य की महत्वाकांक्षा, लोभ, प्रेम और हिंसा है। महानगर बनने की प्रक्रिया में ही अपराध जगत नगर की अंतडिय़ों में जरासीम की तरह अपना सिस्ट या स्थान बना लेता है। मनुष्य की अंतडिय़ों में अमीबा नामक कीटाणु अपनी जगह बना लेता है और उसकी संख्या बढ़ती है। हर अमीबा एक 'सिस्ट' में सुरक्षित रहता है और दवाओं के प्रभाव से शरीर से निकलता है, परंतु एक भी बचा रहे, तो अनेक पैदा कर लेता है। ठीक इसी तरह पुलिस की कार्रवाई से अपराध के कीड़े शहर की अंतडिय़ों से मल के साथ निकल जाते हैं, परंतु एक के भी बचे रहने पर वे नया दल बना लेते हैं।
किसी भी शहर का पूरा परिचय उसकी इमारतों, चौड़ी सड़कों और सर्पीले फ्लाईओवर से नहीं मिलता, वरन उसकी अंतडिय़ों में पनपते अपराध जगत एवं उसकी तवायफों तथा दलालों को समझना भी जरूरी है, जिसकी हल्की-सी झलक हमें आमिर की 'तलाश' और उनकी पत्नी किरण की 'धोबीघाट' में मिलती है। हालांकि महेश भट्ट की पुरानी फिल्मों में मुंबई का यह घिनौना चेहरा अपने पूरे विद्रूप के साथ नजर आता है। राज कपूर और देव आनंद की श्याम-श्वेत फिल्मों में हम आज के अपराध जगत का मासूम बचपन देखते हैं। इन फिल्मों में शहर की धड़कन को हम सुन सकते हैं। राज कपूर और देव आनंद ने बड़े ही रूमानी ढंग से महानगर के विविध रूप प्रस्तुत किए, परंतु महेश भट्ट ने उस रूमानियत को खारिज करके उसे प्रस्तुत किया। बदलते हुए दौर में मुंबई की विविधता अनेक फिल्मों में प्रस्तुत हुई है। मिलन लूथरिया की 'वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई' में भी इसकी झलक थी। मीरा नायर की 'सलाम बॉम्बे' ने भी यथार्थवादी चित्रण किया है और हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि अनुराग कश्यप मीरा नायर और महेश भट्ट की वर्तमान कड़ी प्रस्तुत कर सकते हैं। उनके पास 'ब्लैक फ्रायडे' का अनुभव भी है तथा यह उम्मीद भी कर सकते हैं कि वे मुंबई को 'वासेपुर' की तरह प्रस्तुत नहीं करेंगे। दरअसल इस प्रकरण में महत्वपूर्ण होना चाहिए ज्ञान प्रकाश की नजर और नजरिया। हिंदुस्तान के महानगर दुनिया के अन्य देशों के महानगर से अलग हैं। उनमें छोटे-छोटे गांव, कस्बे और अंचल नहीं होते, जैसे हिंदुस्तानी महानगरों में होते हैं। हमारे महानगर अपनी ग्रामीण गर्भनाल नहीं तोड़ पाते और उसमें यथेष्ठ कस्बईपन महानगरीय आधुनिकता के साथ गलबहियां करता नजर आता है। महानगर से दूर बैठे लोग उसे एक सपने और अवसर की तरह देखते हैं तथा उसमें जिस निर्ममता की वे कल्पना करते हैं, दरअसल वैसी निर्ममता नहीं है। महानगर की उपशाखाओं में लोग पूरी मोहब्बत के साथ रहते हैं। हर भारतीय महानगर का एक छोटा-सा श्रेष्ठि वर्ग वाला हिस्सा जरूर निरंतर न्यूयॉर्क, लंदन या सिंगापुर से जुड़ा रहता है और यह वर्ग काफी हद तक गैरभारतीय भी है। यह वर्ग हॉलीवुड को नहीं समझते हुए भी उसकी सराहना करता है और बंबइया फिल्मों का मखौल उड़ाते हुए भी उसके सितारों के लिए पलक पांवड़े बिछाता है, गोयाकि गुड़ खाकर गुलगुले से परहेज करता है। भारत में एकांगी विकास के कारण महानगरों की ओर अनगिनत लोगों ने पलायन किया और अपने साथ अपनी परंपराएं तथा अंधविश्वास भी लेकर आए। यहां बस जाने पर उनकी आंखों में अपने गांव की याद हमेशा बसी रहती है और वे पूरी तरह महानगरीय नहीं हो पाते।
इस पलायन ने मुंबइया सिनेमा को अनेक पात्र दिए, अनेक नायक और िविध खलनायक दिए। कोई आश्चर्य नहीं कि महान किशोर कुमार ने अपनी अंत्येष्टि अपने जन्म-नगर खंडवा में करने की बात की थी। उनकी 'दूर गगन की छांव में' उनके खंडवा-प्रेम की ही फिल्म है, जिसकी मूल प्रेरणा उन्हें सत्यजीत राय के सिनेमा से मिली। मुंबई समुद्र तट पर बसा इंसानी लहरों का शहर है और इसकी आत्मा में पैठकर अभी तक न कुछ लिखा गया है और न ही फिल्में बनी हैं। अरविंद अडिगा की किताब 'द व्हाइट टाइगर' न्याय करती है। संभवत: ज्ञान प्रकाश की भी करती हो, जिसे अभी तक पढ़ नहीं पाया। रात में मुंबई को किसी टीले पर खड़े रहकर देखें तो हजार आंखों वाला दैत्य नजर आता है और आसमान में उड़ते हुए हवाई जहाज की खिड़की से देखने पर टिमटिमाते तारों से सजा आकाश दिखाई देता है। उसे दिल की नजर से देखो तो वह माशूका है और दिमाग से सोने की खान नजर आता है। दरअसल शहर आपके दिल में बसा होता है। अब यह आप पर निर्भर है कि आप उसे क्या समझते हैं। रणबीर कपूर ने अपने दादा की श्याम-श्वेत फिल्में अनेक बार देखी हैं और शायद वह फुटपाथ पर भीख मांगते हुए चरित्र को नहीं भूले होंगे। वह रद्दीवाले काका के किरदार को कैसे भूल सकते हैं, जो कहता है कि हर नया आदमी मुंबई को खरीदने का सपना लिए आता है और कुछ समय बाद कबाड़ी के कूड़े में पड़ा मिलता है।