मुंशी प्रेमचंद की ‘ईदगाह’ और चौदहवीं का चांद / जयप्रकाश चौकसे

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मुंशी प्रेमचंद की ‘ईदगाह’ और चौदहवीं का चांद
प्रकाशन तिथि : 24 मई 2020


मुंशी प्रेमचंद की कथा ‘ईदगाह’ में एक दादी-पोते की कथा प्रस्तुत की गई है। दादी और पोता अत्यंत गरीब हैं। रमजान के महीने में दादी ने अपने पुराने वस्त्र दर्जी को दिए कि वह उन्हें काटकर उनके पोते के लिए कुर्ता-पायजामा बना दे। दादी रोटी सेंकते समय अपने हाथ जला लेती है, क्योंकि उसके पास चिमटा नहीं होता है। पोता यह सब देखता है। ईद के समय वस्त्र बनकर आते हैं। पोता शिकायत करता है कि यह पुराने वस्त्र से बनी पोशाक है। दादी पायजामे में नया नाड़ा डालती है और कहती है कि कम से कम नाड़ा तो नया है। गरीब के कपड़ों में नया नाड़ा होना ही एक शगुन है। अनगिनत वर्षों में यह नया नाड़ा ही जीवन की डोर बन गया है और इसी उम्मीद के सहारे गरीब का जीवन कट जाता है। व्यवस्था सब कुछ छीन सकती है, परंतु नाड़े पर हमारा जन्मसिद्ध अधिकार नहीं छीन सकती।

ईद पर मेला लगता है। दादी अपने पोते को इकन्नी देती है। मेले में बच्चे भांति-भांति की चीजें खरीदते हैं। जलेबी खाई जाती है। पोता इस खरीदारी में शामिल नहीं है। पोता इकन्नी से एक चिमटा खरीदता है। वह अपनी कल्पना शक्ति से चिमटे को अलग तरीके से इस्तेमाल करके अपने साथियों को चौंका देता है। शाम को घर लौटकर पोता दादी को चिमटा देता है, ताकि रोटी सेंकते समय उनके हाथ न जलें। सदियों से दादी की छाती जख्मी है और चिमटा मरहम बन जाता है। प्रेम दवा बन जाता है। दादी को लगता है कि उनका जन्म लेना सार्थक हो गया।

विगत सदी के तीसरे दशक में चंदूलाल शाह का छोटा भाई फिल्में बनाता था। चंदूलाल शाह शेयर बाजार में एक माहिर व्यक्ति माने जाते थे। कुछ लोग उनसे सलाह लेकर शेयर खरीदते और बेचते थे। उनके भाई के पैर की हड्डी तड़क गई, अतः चंदूलाल शाह फिल्म निर्माण की देखरेख करने लगे। एक सिनेमा मालिक ने उन्हें 20 हजार रुपए पेशगी दिए और ईद पर प्रदर्शन के लिए मुस्लिम सामाजिक फिल्म बनाने का अनुबंध किया। चंदूलाल शाह को विषय की जानकारी नहीं थी। उन्होंने गुजरात की लोककथा ‘गुण सुंदरी’ से प्रेरित फिल्म बना दी। सिनेमा मालिक ने मुकदमा कायम करने की धमकी दी, परंतु समय कम होने के कारण ‘गुण सुंदरी’ का प्रदर्शन ईद पर किया गया। फिल्म अत्यंत सफल रही। वर्तमान समय में ईद पर ‘गुण सुंदरी’ का प्रदर्शन विरोध का शिकार नहीं भी हो तो भी सफल नहीं हो सकती। समाज से भाईचारे का गुण ही गायब कर दिया गया है। कुछ वर्ष पूर्व भी फिल्मकार अनुभव सिन्हा की ऋषि कपूर और तापसी पन्नू अभिनीत ‘मुल्क’ का प्रदर्शन हुआ। फिल्म में एक मुस्लिम परिवार का युवा आतंकवादी गिरोह का सदस्य बनकर बम विस्फोट करता है। पुलिस पूरे परिवार को ही दोषी मान लेती है। अदालत में वकीले सफाई यह कहती है कि एक गुमराह सदस्य के गुनाह के कारण पूरे परिवार को गुनाहगार नहीं माना जा सकता। हमने मुल्क को दो हिस्सों में बांट दिया है- ‘हम’ और ‘वो’ । इसी चश्मे से समाज को देखने पर हम उसे बंटा हुआ पाते हैं। फिल्म में मुस्लिम पुलिस अफसर आतंकवादी को जिंदा पकड़ सकता था। उससे गिरोह की जानकारी ली जा सकती थी। अफसर को यह साबित करना था कि वह देश प्रेमी है, इसलिए जीवित पकड़ने के अवसर को जानकर गंवा दिया। जज कहता है कि 800 वर्ष पूर्व बिलाल कौन था, यह देखते रहेंगे तो हजारों वर्ष पीछे चले जाएंगे। फिल्म ‘मुल्क’ के अंत में सूफी समूह गीत है- ‘सात रंग पिया के, कभी खुद देख लगाकर..’। यह सांस्कृतिक विविधता ही तो निशाने पर है।

ज्ञातव्य है कि रामकृष्ण परमहंस कुछ समय तक एक मुस्लिम परिवार के साथ मुसलमान की तरह रहे। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सभी धर्म अपने मूल स्वरूप में समान हैं। विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस के शिष्य थे। विवेकानंद ने आशा व्यक्त की कि सभी धर्मों के लोग भाईचारे से रहेंगे तभी सच्चा विकास होगा। एक दौर में मुस्लिम सामाजिक फिल्में बनती थीं। साधना और राजेंद्र कुमार अभिनीत ‘मेरे मेहबूब’ सफल रही। फिल्मकार एच.एस.रवैल के निर्देशन में जितेंद्र ने ‘दीदारे-यार’ का निर्माण किया। इसी फिल्म के घाटे को पाटने के लिए जितेंद्र ने दक्षिण भारत में बनी हिंदी फिल्मों में अभिनय किया। ‘कागज के फूल’ की असफलता के बाद गुरु दत्त ने एम.ए.सादिक के निर्देशन में ‘चौदहवीं का चांद’ नामक सफल फिल्म बनाई। ‘शोले’ के बाद अमजद खान अभिनीत फिल्म में एक गरीब परिवार के बालक के रोजे रखने को प्रस्तुत किया गया है। गुरबत में भी बच्चा अपनी आस्था पर टिक रहता है। वर्तमान में मुस्लिम समाज की फिल्मों का बनना रुक गया है। दर्शक भी ‘हम’ और ‘वो’ के सांचे में बंट गए हैं। गालिब का शेर है-

‘ईमां (धर्म) मुझे रोके है, जो खींचे है मुझे कुफ्र (अधर्म), काबा मेरे पीछे है, कलीसा (गिरजाघर) मेरे आगे है’।