मुआवजा / संजय अविनाश

Gadya Kosh से
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पटना-भागलपुर मुख्य सड़क मार्ग पर अवस्थित टुटपुँजिया चौक भिड़हा ढ़ाला, जिसे वर्षों पहले अदिया ढ़ाला नाम से पुकारा जाता था। विकास की रस्सी लंबी होती गई और ओर-छोर को पकड़ खींचते-खींचते बीच वाला हिस्सा सुखौता रोग में तब्दील होता गया। ठीक वैसा ही सड़क से दक्षिण कुछ सौ मीटर की दूरी पर सुखी-संपन्न गांव भिड़हा अवस्थित है तो, वहीं सड़क के किनारे देवघरा चंद्र टोला। दो-तीन सौ मीटर दूर वाले गांव में जमींदार लोग तो सड़क किनारे वाले किसान बाबू कहे जाते... एकाध व्यक्ति बटाई पर खेती करते तो अधिकांश नगदी ले, पूरे परिवार उसी में लगे रहते। बुआई से पूर्व जमींदार माने जाते और सुखार-बाढ़ के समय किसान बन जाते। दो-चार वर्षों में एकाध बार 'काम हमारा नाम तुम्हारा' वाली बात कचोटती लेकिन फिर ईश्वरीय कृपा मान भूमिहीनों की परिभाषा में उलझ जाते। इस बार लहलहाती फसल देख खेलावन की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। सुबह चार बजे लाठी डेंगाते हुए फसल देखने खेत जाता और उधर से तब लौटता जब सूरज नाक से ऊपर सिर पर होने को होता... रास्ते भर मुस्कुराते तो कभी बुदबुदाते रहना उसकी आदत बन गई थी। आदत ने बच्चों में भी उत्सुकता समाप्त कर दिया। पहले बड़ों के साथ बच्चे भी निहारा करते, लेकिन अब नहीं। मानो, खेलावन की आदत ही ऐसी हो गई हो। घर के अंदर प्रवेश करने से पहले तनिक चिहुंक कर बोला, "भोला... अरे! भोला... जऱा अपन माय के भेज।" हांफता हुआ उसने भोला से कहा... पैरों में लड़खड़ाहट लेकिन उत्साह से लबरेज़ अपनी बात दुहराता जा रहा था।

भोला पिता की बात अनसुनी कर बुदबदाता हुआ भुसकार की ओर कदम बढ़ाता रहा, "माय-माय... कि है माय! सूरज सिर पर सवार होने को है, अभी तक बेचारी भूखी पड़ी है, यही हाल में तो साले भर में आठ गो से दू गो पर आ गई... फिर बीमार पड़ेगी, एगो गायब! बेचारी को भर पेट खाना तक नहीं मिलता और बात-बात में गाय माता-गाय माता... अरे! माता तभी न, जब भर पेट खाना भी दें... खाना के बिना तीन स्वर्ग सिधार गई और अपने खाने के चक्कर में दो कसैया के हाथों मारी गई।" थोड़ा माथे पर जोर दिया और फिर बुदबुदाने लगा, "ऊ जो चितकबरी थी, सच में माता थी, उसे तो मंहगु साह उठा ले गया। काम की बात तो करते नहीं, कभी माय को बुलाओ तो कभी बाप को बुलाओ।" भोला दो-तीन कट्ठे के बथान पर बची मात्र एक ढ़ेन गाय और पिलपिला-सा बछरा के लिए सानी-पानी लगा रहा और भिनभिनाता जा रहा है।

वह अपने में मग्न है और उसके पिता मन ही मन कुछ भुनाने में तो कुछ बनाने में व्यस्त। पत्नी की आस में मंद-मंद मुस्काए जा रहा तो पल भर में बगुलिया लाठी को पटक-पटक खुशी का इजहार किए जा रहा था, वहीं भोला का भिनभिनाना जारी है। अपनी बातों की ओर पिता का ध्यान न देख और कूढ़ता जा रहा था। जब-जब देखा उसकी नजरें कभी घर की ओर तो क्षण भर में आंगन को आती बांस से बनी टाटी की ओर अटकी पड़ी थी। अपनी उपहास समझ फिर बड़बड़ाया, "बुढ्ढा सठिया गया है... बाप का धन, पेट-भात में खतम कर दिया। मेरा क्या... न बचा रहेगा, न लुटाऊंगा।"

इतने में पड़ोस के यहाँ से नाई नौता लेकर आंगन में प्रवेश किया। आते ही कहा, "खेलावन-चा, सम्हर मर्दाना नौता है... बड़ा निमन लड़का है, हमी लगाए हैं।"

उसकी आहट से लगा कि भोला कि माँ ही होगी लेकिन नाई की आवाज सुन ध्यान भंग हुआ और उठ खड़ा हुआ... शादी की बात सुन नाई से कहा, "अरे! इस बार अपन गांव में लगन ही लगन है।"

नाई और पिता की बात सुनते ही भोला ठक रह गया। अब उसकी बोलती बंद हो गई. कुछ देर पहले जो बुढ़ापे पर तिलमिला रहा था, अब घोर गंभीरता में डूब गया। चुपचाप सानी-पानी में लगा रहा।

खेलावन अंदर ही अंदर खुश हो नाई से कहा, "तब तो ठीक ही होगा... तोर कुटमैती पहले भी देख चुका हूँ... भगवान माना तो इधर भी भोज-भात दहंगरा होगा।"

जल्दबाजी में नाई इशारा करते हुए कहा, "वाह! नुनुआ का भी सेट हो गया?"

इतना कहा और उत्साहित हो, आंगन से बाहर निकलने लगा। उसकी बात सुन खेलावन दोनों होठों को एक दूसरे से दबाते हुए अपनी अंगुली होंठ पर रख, चुप रहने का इशारा करते हुए बोला, "चुप रहो! जबतक ठीकठाक नहीं हो जाता, हल्ला करने से कोए फायदा नहीं... बरतुहारी बड़ी टुन्नक चीज है। हाँ, अभी चर्चा-वर्चा मत करना... सेट हो जाएगा तो भला तुमसे छुपा रहेगा।"

उसकी बात सुन नाई सिर हिलाते हुए कहा, "हाँ! चच्चा। भला ई बोलने वाली बात है। नुनुआ की उमर भी कम थोड़े है।" इतना कहते हुए आंगन से निकल गया।

उसके बाहर निकलते ही सोनपरी आंगन में प्रवेश करती नजर आई. उसे देखते ही खेलावन झटपट चौकी पर बैठ गया। करीब पहुंचने ही वाली थी कि नजरें उठी, नाक तक सिंदूर देख भौंचक हो पूछा, "भोला माय, ई क्या है? अभी तो कुछ हुआ नहीं और तुम...?"

वह भी मुस्काती हुई बोली, "अरे! डोमना जो है, उसकी बिटिया बड़का घर में जा रही है। भगवान भी दहीन हो गये। बिटिया भी बड़ी कमासुत है।" खुशी-खुशी बोली जा रही थी। कभी-कभी आवाजें धीमी भी हो जाती। यह देख खेलावन इशारों से करीब बुलाया और कहने लगा, "अबकी बार हम भी उद्धार हो जाएंगे... फसल भी जबरदस्त है... दस-बीस हजार गिर भी गया तो कोए बात नहीं... शादी-बियाह में एतना होता ही है।"

पति की बात सुन कुछ देर के लिए मुरझा गई. मन ही मन पिछले सालों में विचरण करने लगी।

उसकी चिंतनशील दशा देख खेलावन को रहा नहीं गया। उसने पत्नी सोनपरी को ढांढस बंधाते हुए बोला, "चिंता की कोए बात नहीं। हमेशा वही थोड़े होगा। कुटुम भी समझदार है। औरों से छुपाकर रखा हूँ। बस, दो-चार दिन के अंदर छेका कर देना है।" सोनपरी कुछ सवाल करती, उससे पहले खेलावन बोलने लगा, "झुमकी को रस्ते चलते देख लिया था, उसे पसंद आ गई, बात भी बन गई."

छेका की बात सुनते ही सोनपरी असमंजस में पड़ गई. आश्चर्य हो बोली, "अभी छेका...? ई कैसे होगा खाद-पानी के बिना तो खेत हांफ रहा है। दस दिन से मोंछ पर मकई है। पानी के बिना टटुआ रहा है और छेका...?" क्षणभर चुप रही, फिर बोली, "माथा पर बोझ लेना उचित नै है!"

खेलावन ने आश्वस्त करते हुए सोनपरी से कहा, "अरे! एगो पड़हुआ है 'सब दिन न होत एक समान' , पानी-वानी तो ही जाएगा, दस-बारह हजार की तो बाते है। क्या होगा, दो महीना सूद ही लगेगा न ... मंहगू साह तैयार है... यही न, थोड़ा मंहगा है, समय पर काम तो आ जाता है।" सोनपरी को बोलने का मौका नहीं दिया, एक ही बार में सब कुछ कह गया।

मंहगू के नाम सुनते ही चितकबरी गाय और उसके द्वारा जबरदस्ती बथान से ले जाना क्षण भर के लिए चिंता में डाल दिया। उसकी रूदन भरी आवाज आज भी कानों में गूंजती है। कैसे वह जाने से इतराती थी।

आज भी वह कहानी सालती है। फिर भी बेटी की शादी वाली बात है, खुद को दबाकर उत्साह का ढोंग ही सही, ज़रूरी समझी। न चाहते हुए भी बोली, "जैसी मरजी, लेकिन मेरा मन नहीं मानता।"

उसकी बातों में असहमति सुन खेलावन बिफर पड़ा। रूख मोड़ते हुए बोलने लगा, "तुम्हें क्या लगता है, गांव-गिराम में सुनना तो मुझे पड़ता है न? समय पर घर बसाना ज़रूरी है। ई सब बात तो माय को सोचना चाहिए. लेकिन घर-बाहर का हरेक काम हमी को देखना पड़ता है। मीन-मेख से बना काम बिगड़ जाता है।"

पति की बात सुन सोनपरी सहम गई. पलभर के लिए सहमति जाहिर करती हुई बोली, "मैं भी तो वही बोली। आप नहीं करेंगे तो पीठ पर है कौन है?"

उसकी सहमति-असहमति को दबाते हुए कहा, "सब हो जाएगा। सुनती तो होगी, 'साधा तो आधा, आधा तो साधा।' शुरू तो करके देखें, भगवान सब निभा देंगे।" इतना कहते हुए खेलावन घर से बाहर निकलने लगा। खुशी ऐसी मानो, कदमों संग झुनझुना बज रहा हो।

×××

तीन-चार दिनों में छेका का कार्य संपन्न कर खेलावन निश्चिंत हो गया। अंतिम बैशाख में दिन-तारीख सुकून पहुंचा रहा था। तब तक फसल भी खेत से घर आ जाना था। मंहगू के प्रति अपार स्नेह भी जग गया। उसने रूपये के साथ बीस भर के गहने भी दे दिया था, यह कहते हुए, "बेटी लक्ष्मी होती है। देने से घटता नहीं। मुझे क्या, साल-दो साल में भी दोगे तो कोई बात नहीं। हम तो घर के हैं।" उसकी बात सुन साहस बढ़ा था। उस गहने वाली पोटली को सोनपरी के हाथों थमाते समय हाथ भी कांप रहा था। अब बैशाख की कड़ी धूप सिर पर चढ़ती जा रही। अन्य दिनों तो सबेरे-सबेरे खेत जाना होता, सप्ताह भर बाद दोपहर ही निकल गया। रास्ते भर जेबर, छेका, अंतिम बैशाख और फसल की बिक्री को लेकर मन में पूरी पकता रहा। लगी फसल को निहारते जाता और खुश हो अंदर ही अंदर ही फुसफुसाता, "अबकी बार बेरा पार।"

कब अपने खेत तक पहुंचा, पता नहीं। मालिक के बिना फसल भी इंतजार की घड़ी में आस लगाई थी। मुरझाई फसल देख कुछ देर के लिए ठिठक गया खेलावन। आंखें इधर-उधर घुमाकर मुआयना किया। क्षण भर में ही झौं लग गया। मोंछ मुरझा-सा गया था। नीचे से ऊपर डंठलों में पीलिया रोग जैसा प्रतीत हुआ... जमीन भी फटी आंखों से निहार रही थी। उसे देख खेलावन की आंखें गमगीन हो गई. सिर पर हाथ रख वहीं खेत के मुंडेर पर बैठ गया... बैठा रहा... कब तक बैठा रहा...?

"बतौर रचनाकार कहूँगा... बैठा रह गया! लेकिन नहीं! एक किसान, सृजनकर्ता बैठा नहीं रह सकता... भले ही उसे प्रकृति आँख मिचौली खेलने के लिए बाध्य करे, कुत्सित सोच साया बन साथ चले... फिर भी वह पालनहार है, सृजनशील है... मेहनत करेगा... सृजनरत रहेगा... इसलिए भी कि इसके बाद कोई और विकल्प नहीं!"

मायुसी को वहीं छोड़ झटके के साथ खेलावन खड़ा हुआ और तेज कदमों के साथ जमींदार के घर की ओर रूख किया। कुछ ही दूरी पर उसका घर चार-पांच कट्ठे में है। चारों तरफ ईंट से घिरी दीवार, उसी में एक दरवाजे जो बरामदे तक ले जाती है और दूसरा घर के अंदर। उस दरवाजे से सगे-सम्बंधी व काफी करीबी लोग आया करते थे। बूढ़े सरकार पर नजर पड़ते ही कहा, "मालिक! कैसी दुश्मनी? आज पंद्रह दिनों से पानी-पानी कहते थक गया। पहले से मालूम होता तो इस झंझट में नहीं पड़ता।"

बूढ़े मालिक ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा, "अभी तक पानी नहीं मिला? अरे! मकई तो सूख गया होगा? अभी बुलाता हूँ... काहे नहीं दिया।"

"मालिक! अब बुलाने से का होगा। इस बार भी झुमकी बेलगन ही रह जाएगी।" झुमकी का नाम जुबान पर आते ही आवाजें भर्रा गई. हिम्मत करके फिर कहा, "जा रहा हूँ... अब खेतीबाड़ी मेरे हिस्से की बात नहीं... औरों के लिए जीवन खराब कर दिया... अपना जो कट्ठा-डंटा है, उसी में साग-सब्जी उपजा लूंगा। क्या मिला आज तक? जब से खेती कर रहा हूँ... कर्ज में ही डूबता जा रहा हूँ... कभी बरक्कत नहीं हुआ... दूसरों का पेट भरता रहा ।"

खेलावन की आवाजों में कंपन साफ झलक रही थी। उस कंपन से बूढ़े शरीर में भी सिहरन पैदा हो गई. उसने खेलावन को आश्वस्त करते हुए कहा, "चिंता मत करो! आज से नहीं बल्कि बाप-दादे जमाने से ही रिश्ता है। सच में किसान तो तुम हो। तुम्हारी मेहनत पर ही जमींदारी शोभती है, दुनिया इठलाती है... फसल सूख गई तो कोई बात नहीं... झुमकी की शादी होगी... निश्चिंत रहो... आज मैं बात करता हूँ... फसल नुकसान होने पर सरकारी अनुदान है... सब होगा... अभी घर चले जाओ."

उसकी बात सुन कुछ देर के लिए तसल्ली मिली। हालांकि बूढ़े मालिक का कुछ चलता नहीं। फिर भी उस घर के स्तंभ थे। उनकी बातों से राहत मिली। गुमसुम हो घर की ओर चल पड़े। इस बार रास्ते में कोई बुदबुदाहट नहीं, न ही लाठी पटकने की आवाज... मौन को धारण किए हुए चलते रहे।

×××

ठीक दूसरे दिन दो-तीन लोग सूट-बूट में पधारे। अनजाने व सूट बालों को देख गांव वालों में सिहरन पैदा हो जाती थी। किसी घर की ओर नजरें चली जाएँ तो मानो, काले कौओं ने अपशकुन लेकर आए हों। उसे देखते ही गांव वाले दुबक गये। आज खेलावन की बारी थी। उसी खपरैल घर पर नजरें टिकी हुई. कुछ लोग सहम से गये। बाहर आती सोनपरी की निगाहें ज्योंही पड़ी, वह पीछे मुड़ घर पहुंच कर पति से बोली, "देखो न! बाहर बाबू लोग आए हैं।"

उसकी बात सुन चेहरे पर जो शिकन था, वह छूमंतर हो गया। झटपट बाहर आते ही दोनों हाथ जोड़े साहब से कहा, "हुजूर! अंदर चलिए."

खेलावन की बातों से सहानुभूति की उम्मीदें साफ मालूम पड़ रही थी। उसकी बातों को काटते हुए कहा, "कैसी परेशानी? बाकी लोगों की फसलें तो ठीकठाक है। तुम्हारे साथ क्या हो गया? कोई जान बूझकर तो नहीं बर्बाद कर दिया?" एक साथ कई प्रश्न दाग दिया उन्होंने। उनकी बातों में जमीन वालों की ओर इशारा थी।

"नहीं हुजूर! झुमकी की शादी पक्की हो चुकी है। उसी में फंस गया था। देर होने की बजह से फसल सूखने लगी। आजकल में पानी दे दूंगा, ऊपर वालों की कृपा हुई तो।" खेलावन की बात बीच में ही काटते हुए साहब ने सांत्वना भरी बात कही, "छोड़ दो! ठूंठ में पानी देने से क्या फायदा। खाने-पीने लायक हो जाएगा, गाय-भैंस है कि नहीं?"

उन साहबों की बात में अपनत्व जैसा प्रतीत हुआ और खेलावन में आशा जगी। उसने साहब से कहा, "जी! हुजूर! एगो गाय है न और उसी का बछड़ा भी।"

"अरे! तब तो सोने पर सुहागा। घास के लिए भी चिंता दूर। सुखार घोषित करवाकर चार गुणें मुआवजा भी दे दूंगा।"

साहब की बातें सुन राहत की सांस लिया। शिथिल शरीर में फूर्ति का संचार हुआ। साहब को देवता समझ याचक बन कहा, "हुजूर! बड़ी कृपा होगी। इस बार झुमकी की शादी पक्की है। दिन-तारीख भी बंधल है। बस, फसल हो जाए, उद्धार हो जाऊंगा। मुआवजा का क्या भरोसा... वह तो बड़े किसानों के लिए है... कर्ज भी देने वाला रहा नहीं... जो है, वही फसल से सेखी है।"

खेलावन की बात सुनते ही कुछ देर के लिए असमंजस में पड़ गये साहब लोग। अपनी चतुराई को छिन्न-भिन्न होते देख, डांट-डपट देना चाहा लेकिन समझदारी के साथ कहा, "अरे! चिंता काहे करते हो, बोले न चार गुणें... जिससे लिया, उससे भी उद्धार और बेटी से भी गंगालाभ।"

खेलावन की सहमति भांप, समय को जाने नहीं दिया। एक कागज को आगे बढ़ाते हुए कहा, "देरी मत करो। गांव वालों की भीड़ लग जाएगी। फटाफट निशान लगाओ."

निशान लगाते हुए आत्मा खंड-खंड हो रही है, ऐसा महसूस हो रहा है कि अधमरे को ही अग्नि दे रहा हूँ।

दस्तखत के बाद आए हुए लोग निकल चले। कुछ मुस्कुरा रहे थे तो कुछ खेलावन के सीधेपन पर ठिठोली करने लगे।

अंतिम बैशाख से पहले ही फसलें स्वर्ग सिधार गई. यह जानकर सोनपरी अलग थलग दिखने लगी। पति को झकझोरती हुई बोली, "बारात कहिया आएगी? झुमकी लाल साड़ी कौन दिन पहनेगी..."

फिर चिल्लाती हुई, "झुमकी... रे झुमकी... जल्दी पहन।"

उसे विलंब देख फिर चिल्लाई, "भाग्य खराब है। यही सुसतीपन तो हरान कर रहा है। फूर्ति नाम के चीजे नहीं है।"

फिर घर प्रवेश कर गई और झुमकी को जबरदस्ती अपनी ही साड़ी पहनाती हुई बोली, "जल्दी कर। वरना बारात घूम जाएगी।"

माँ की दशा देख सन्न रह गई. बेटी होने पर खुद को कोसने भी लगती। माँ को दौड़ती हुई आती-जाती देख ताकती रही। कुछ ही देर में नाक तक सिंदूर लपेटी बाहर निकली और पति से उलझती हुई बोली, "आज अंतिम दिन है। आज नै तो कहियो नै। झुमकी को लिए काशी चली जाऊंगी... लड़का वालों को सलामी नहीं ठोकना मुझे।"

झुमकी पीछे खड़ी चुपचाप सुन रही थी। सोनपरी को समझाते हुए खेलावन ने कहा, "सब हो जाएगा। एतना जल्दबाजी क्या है। समय से पहले कुछ नहीं होता।"

बाहर से किसी की आवाज आ रही थी। खेलावन बाहर निकला, सामने खड़ा गांव के ही एक आदमी था, उसने कहा, "बैंक में साहब ने बुलाया है।" बैंक का नाम सुनते ही बांहें खिल उठा। नंगे पांव बैंक की ओर चल दिया। पहुंचते ही देखा, साहब लोग आपस में कानाफूसी कर रहे थे। दोनों हाथ जोड़े कहा, "हुजूर! आप बुलाया है?"

चारों-पांचों में से एक ने कहा, "बुलाना तो पड़ेगा ही। ऐसे एक बात जानना चाहूँगा।"

"बोलिए."

"तुम्हारे आसपास किसी की फसलें नष्ट नहीं हुई, तुम्हारी पत्नी को भी मालूम नहीं... गांव वाले तो कबूला ही नहीं... आखिर माजरा क्या है?"

खेलावन ने आत्मविश्वास के साथ कहा, "हुजूर! जान-बूझकर उसे नहीं बताया। पिछले चार-पांच वर्षों से खेती करने से मना करती आ रही है। उसकी बात मान जाता तो आज यह नौबत नहीं आती... तब से घाटे ही घाटे दे रहा हूँ। हुजूर! सच ही कहा गया, 'अपना हारा और बौह का मारा, किसी को नहीं बताता।' मैं भी इसी लफड़ा में फंस गया हूँ। किसे बताऊँ, क्या बताऊँ।"

बैठे अधिकारी मुस्कान बिखेरते हुए कहा, "अच्छा! वह भगवान बन बैठी है। फिर भी तुम्हारा काम हो गया। मुआवजे पास करवाने में काफी मशक्कत करनी पड़ी... जो भी हो, तुमरा उद्धार हो गया।"

उसकी बातें सुन चेहरे पर रौनक लौट आई. दिन-तारीख आंखों के सामने नाचने लगे। बाजों की धुन, समधी मिलन, झुमकी की ज़िन्दगी को लेकर अनेकानेक प्लानिंग बनने लगी। रग-रग में खुशी की लहरें दौड़ने लगी। मिनटों तक कहीं खो गया था। कहाँ खड़ा है, कुछ पता नहीं। आती आवाज ने ध्यान भंग किया। आवाज आ रही, "फसलें तो सूख गई. मुआवजे के रूप में चालीस हजार रुपये पास हुआ। जिसमें लगभग चार हजार रुपये कागज-पत्तर में व आने जाने में लगा, चालीस का दस प्रतिशत साहब के नाम... हिसाब-किताब करके तीस तुम्हारे हिस्से... बोलो, यह कम तो नहीं... घर बैठे कौन देने वाला है?"

खेलावन उत्सुकता के साथ कान लगाए हुए सुन रहा, तीस में भी काम हो जाएगा। तीस तो बहुत है।

"तीन वर्ष पहले खेती के नाम पर पचीस हजार रूपये लिया था। उसमें भी तीन हजार रूपये कमीशन वाला चुकता नहीं किया था। चलो, उसे गोली मारो। फिर सूद समेत लगभग चौंतीस हजार बन रहा है। मिलाजुला कर कुछ ही बकाया बचता है... ग्राहक की परेशानी हम बैंक कर्मियों की परेशानी है, साथ देना मेरा कर्तव्य बनता है... अगली बार मेकअप कर दूंगा।"

उसकी बात सुनते ही आवाक रह गया। कोशिश के बावजूद भी आवाजें बैठ गई. फिर भी कहा, "साहब, हम कहिया रुपया लिया? पहली बार ई आफिस आया और करजा भी ले लिया? हम ई सब कुच्छो नहीं जानते, देना है तो दीजिए, नै तो हम चलते हैं।"

धीमें कदमो से बाहर निकलने लगा। एक ग्राहक ने हाथ पकड़ कर कहा, "बाबा! बाहर का रास्ता उधर से नहीं इधर से जाती है और शीशे से बने दरवाजे के सामने छोड़ दिया।"

सभी बातें भूलकर उस दिन की बातें गांठ बन गई, बीते दिनों की बात याद करते चलता जा रहा और मुस्काते हुए बोल रहा, "ठूंठ में पानी देने से क्या फायदा... चार गुणें... कर्ज से भी उद्धार... बेटी से भी गंगालाभ!"

उसकी बातें सुन राहगीरों में खुशी तो किसी में ईर्ष्या पनपने लगी। उसे देख कहने लगा, "भगवान भी देता है तो छप्पर फाड़कर; बुड्ढा को मोटा माल हाथ लग गया।"

उसकी बात सुन साथ चल रहे एक बूढ़े की आवाज निकल पड़ी, "बेटा, शरीर गिर जाने पर ऐसे लोग भंसते हैं... कौन जाने अंदर की बात?"

उनदोनों की बात सुन खेलावन गंभीर हो गया। मन ही मन बुदबुदाने लगा, "चितकबरी को तो रस्सी समेत बथान पर से ले गया, झुमकी को थोड़े जाने दूंगा। बहुत करेगा तो घर लिखवा लेगा..." अनायास आवाज़ तेज हो गई, "झुमकी को बिना डोली जाने नहीं दूंगा।"