मुक्ति के लिए स्वयं को खोना होगा / ओशो
प्रवचनमाला
कल रात्रि नगर से दूर एक अमराई में बैठा था। थोड़ी सी बदलियां थीं और उनके बीच चांद निकलता-छिपता जा रहा था। प्रकाश और छाया की इस लीला में कुछ लोग देर तक मौन मेरे पास थे।
कभी- कभी बोलना कितना कठिन हो जाता है। वातावरण में जब एक संगीत घेरे होता है, तब डर लगता है कि कहीं बोलने से वह टूट न जाए। ऐसा ही कल रात हुआ। बहुत रात गये घर लौटे। राह में कोई कह रहा था कि जीवन में मौन का अनुभव पहली बार हुआ है। यह सुना था कि मौन अद्भुत आनंद है, पर जाना इसे आज है। पर आज तो यह अनायास हुआ है, फिर दुबारा यह कैसे होगा? मैंने कहा, 'जो अनायास हुआ है, वह अनायास ही होता है। प्रयास से वह नहीं आता है।' प्रयास स्वयं अशांति है। प्रयास का अर्थ है कि जो है, उससे कुछ भिन्न चाहा जा रहा है। यह स्थिति तनाव की है। तनाव में तनाव ही पैदा होता है। अशांति में किया गया कुछ भी, अशांति ही लाता है। अशांति शांति में नहीं बदलती है। शांति चेतना की एक भिन्न स्थिति है। जब अशांति नहीं होती है, तब उसका होना होता है।
कुछ न करें, कोई प्रयास न करें, सब करना छोड़ दें और केवल देखते रह जायें। और फिर पाया जाता है कि एक नयी चेतना, एक नया प्रकाश आहिस्ता-आहिस्ता उतरता चला आ रहा है। इस नये लोक में जो पाया जाता है, वही वस्तुत: है। जो है, उसका उद्घाटन आनंद है, उसका उद्घाटन मुक्ति है। यह विराट हमारे क्षुद्र प्रयासों से नहीं, हमारे 'मैं' से नहीं, वरन् जब प्रयास नहीं होते, जब 'मैं' नहीं होता, तब आता है।
संसार में जो भी पाया जाता है, वह क्रिया से, कर्म से पाया जाता है। प्रयास वहां साधन है। 'मैं' वहां केंद्र है। प्रत्येक प्राप्ति इसलिए 'मैं' को मजबूत कर जाती है। वस्तुत: पाने में 'मैं' को मजबूत करने और फैलाने का ही सुख है। पर यह 'मैं' कभी पूरा नहीं भरता है। यह स्वभाव से दुष्पूर है। इसलिए सुख प्रतीत ही होता है, कभी उसे पाया नहीं जाता है। इससे जिन्होंने जाना, उन्होंने कहा कि संसार में दुख है। संसार में हम जो करते हैं, वही हम मुक्ति के लिये भी करते हैं। उसे भी पाने में लग जाते हैं और यहीं भूल हो जाती है। उसे पाना नहीं, वरन् अपने को खोना है। अपने को खोते ही, उसे पा लिया जाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)