मुक्ति युद्ध / शमशाद इलाही अंसारी
एक बार चार मुसाफिर चलते-चलते दूसरे देश की सीमा में पहुँच गए। सीमा प्रहरियों से उन्हें गिरफ्तार कर राजा के दरबार में पेश कर दिया। राजा ने उनमे से एक व्यक्ति से प्रश्न किये- कौन हो, क्या करते हो, यहाँ क्यों आये हो आदि?
पहले व्यक्ति ने उत्तर दिया, ’हे देव; मैं ब्राहमण हूँ, ब्रह्मज्ञानी हूँ, पूजा पाठ करके पेट पालता हूँ’। दूसरे व्यक्ति ने बताया, ’महाराज मैं क्षत्रिय हूँ, लड़ना जानता हूँ और मालिकों के लिए जीवन अर्पण करने से भी नहीं चूकता’। तीसरे मुसाफिर ने उत्तर दिया, ’हे परम पिता, मैं तो व्यवसायी हूँ, माल लेता-बेचता हूँ, इसी के चलते आपके राज्य में प्रवेश कर गया कि शायद कोई सौदा मिल जाए’ चौथे व्यक्ति ने झिझकते हुए राजा के निकट होकर थोड़े धीमे स्वर में उत्तर दिया, ’महाराज सच पूछिए; तो मैं इन तीनो से दुखी हूँ और इनसे मुक्ति की तलाश में ही किसी दूसरे देश में शरण लेने की सोचता हुआ यहाँ तक चला आया ताकि मैं एक सम्मानित, मानवीय जीवन जी सकूँ, मुझे ये तीनो मिलकर शूद्र कहते है’।
राजा ने पहले तीनो को पकड़ कर कारावास में डलवा दिया और चौथे व्यक्ति को कुछ दिन राजकीय अतिथि गृह में रख कर धन, बल, साधनों के साथ वापस उसके मूल देश में भेज दिया।