मुक्ति / अशोक भाटिया
वह जवान हो चुकी थी। उसकी आँखों और चेहरे से छलकता तेज चारों दिशाओं को प्रदीप्त कर रहा था। कल तक वह नजरें झुकाकर ही घर से बाहर निकला करती थी। अब वह मुक्त होकर विचरना चाहती थी। घर की स्थिति ऐसी थी कि उसकी शादी का अभी दूर तक कोई ब्योंत नहीं था।
इधर उसके भीतर इच्छाएँ सिर उठाने लगी थीं, जिन्हें उसने अब तक दबा रखा था। अब उसे तलाश थी कि कोई उसके जीवन में आए। उसकी देह किसीकी लहरों के संग बह जाना चाहती थी। वह अपने ही हाथों से निकलती जा रही थी। सामाजिक व्यवस्था ऐसी थी कि पुरुष अपना-अपना समुद्र लिए भागते जा रहे थे। स्त्रियाँ अपने में सिमटी चली जा रही थीं। अपनी-अपनी परिधि में कैद भोगती कसमसाहटें लिए... न कोई संपर्क, न सम्बंध ...
आखिर एक दिन एक पुरुष उसके निकट आया। उसे देख स्त्री खिल उठी। उसके घुटे-छुपे सपने एकबारगी जग गए। स्त्री के हाव-भावों से स्वीकृति मिलते ही पुरुष ने उसका हाथ थाम लिया। स्त्री के भीतर तरल आग का झरना बहने लगा। इच्छाएँ दोनों के सिर पर भूत की तरह सवार हो गईं। अचानक दोनों किसी अदृश्य शक्ति के वशीभूत हो दृढ़ आलिंगन में आबद्ध हो गए। पुरुष की चपलता ने अपने हाथों और होठों से स्त्री की सारी देह को रोमांच की तरंगों से झंकृत कर दिया। स्त्री की आँखें उन्माद से भर गईं औए कई कारणों से बंद हो गईं। प्रकृति ने उन दोनों में चरम सीमा तक आतुरता भर दी।
स्त्री का मानो सदियों की प्रतीक्षा का समय समाप्त हुआ। काम के आवेग ने उनका भीतरी वार्तालाप शुरू करा दिया था। खिला हुआ चाँद धरती पर आ गया था और हिला हुआ समुद्र मेघ बनकर उस पर छा गया था। दोनों कामेच्छा के वशीभूत हो स्वयं को भूल गए थे। इस प्राकृतिक प्रक्रिया में दोनों एकाकार हो गए। स्त्री की रुकी हुई नदी तमाम गतिरोध तोड़कर उद्दाम वेग के साथ बह निकली। ढोई हुई जाने कितनी रूढ़ियों के बाँध इतनी देर में ही धराशाई हो गए। बची रह गई अबाध आह्लाद की मूसलाधार वर्षा, जो थमने का नाम नहीं ले रही थी।
जब ज्वार उतरा तो स्त्री पुरसुकून और आलोक से परिपूर्ण हो गई थी। लेकिन...!
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