मुक्ति / एक्वेरियम / ममता व्यास
तुम कहते हो प्रेम मुक्ति का नाम है। मुझे ये बात कभी समझ नहीं आई. शायद ये बात उन ज्ञानियों ने फैलाई है बुरी तरह, जो अपने प्रेमियों से पीछा छुड़ाना चाहते थे। उन्हें प्रेम के बंधन गुलामी की जंजीरें नजर आते थे। उन्हें लगता था प्रेम बांध लेगा उन्हें, जकड़ लेगा उन्हें, फिर वे कहीं के नहीं रहेंगे। मुझे तो प्रेम मुक्ति कभी लगा ही नहीं, गुलामी ही लगा। तुम शायद व्यक्ति की मुक्ति की बात करते हो तभी कहते हो-"मुक्त कर दो मुझे मैं बंधना नहीं चाहता।"
चलो तुम्हें अभी इसी पल मुक्त किया मैंने जाओ. वैसे भी मैंने तुम्हें कब बांधा था? तुम्हारे गले में बाहें डालीं? नहीं न। तुम्हारा रास्ता रोका? नहीं न। तुम्हें कभी सन्देश भिजवाये? नहीं न। तुम्हें पनघट पर बुलवाया? नहीं न। अपनी कलाई की नस काट लेने की धमकी दी? नहीं न।
तुमसे मिलने आई कभी? नहीं न। फिर मैंने कैसे तुम्हें बांधा? बोलो तो?
तुम ही हो, जो बार-बार मुझ तक चले आते हो और फिर मुझे सिखाते हो। मुक्त हो जाओ प्रेम से ...नहीं होना मुझे मुक्त और न तुम्हें मुक्त करना है मैंने संजो लिया है तुम्हें सांसों के भीतर और अब मुझे तुम्हें पाने या खोने का डर भी नहीं है। मैं तुम तक आती नहीं कभी। तुम ही आते हो और फिर चले भी जाते हो। भटकते हो, तरसते हो, जलते हो और फिर मुझे दु: ख देकर संतुष्ट होते हो।
बताऊँ क्यों? क्योंकि तुम बंधन तुड़ाना चाहते हो, भुलाना चाहते हो मुझे। तुम डरते हो डूब जाने से, प्रेम की गुलामी से, इसलिए तुम जितना भागते हो उतना लौट के आते हो मुझतक। समझे तुम? "
"तुम पागल हो गयी हो।"
" हाँ, मुझे भी ऐसा ही लगता है अक्सर। मैं होश में नहीं हूँ। जाने क्यों लगता है, जैसे ये सारी दुनिया अजनबी है और मैं किसी को नहीं जानती और चाहती हूँ कोई मुझे भी अब नहीं जाने-पहचाने।
मेरा जैसे खुद पर कोई नियंत्रण नहीं रहा। कोई अदृश्य शक्ति मुझे संचालित करती है। मैं उसके वशीभूत हूँ। मेरा हंसना, रोना, खुद से खुद ही बात करना। तुम कह सकते हो मैं पागलपन में हूँ। लेकिन मुझे इस हाल में जो आनन्द आता है, जो रहस्य खुलते हैं मेरे होने के भीतर ही भीतर और तुम्हें महसूस कर पाती हूँ हजारों किलोमीटर दूर से ही। ये सब देख मुझे लगता है मैं प्रेम में हूँ।
आज से नहीं जन्मों से ही। मुझे इस प्रेम की गुलामी पसंद है। मुझे नहीं होना इससे मुक्त। भला प्रेम से भी कोई कभी मुक्त हुआ है? देखा है कभी सपेरे की बीन पर तड़पती, छटपटाती, बेसुध-सी नागिन...
कौनसा सम्मोहन खींच लाता है उसे। जबकि जानती है उसका मरण तय है। दीपक की लहराती लौ के सामने पतंगा कैसी गुलामी करता है न। बहुत ध्यान से देखना प्रकृति को, हर एक शै बंधी है एक दूजे के प्रेम के बंधन में।
आसमान, धरती, समन्दर और हवाएँ सब गुलाम हैं, वशीभूत हैं। कोई मुक्त नहीं कैसी मुक्ति? और किससे मुक्ति? इस राह के राही को कभी मुक्ति नहीं मिलती, मौत पर भी खत्म नहीं होती ये यात्रा समझे तुम?
तुम नहीं समझोगे मेरी बात। तुम्हारा अहंकार घुलनशील नहीं है इसलिए तुम इस आनन्द से वंचित हो। बार-बार रस्सी तोड़ कर भाग जाना चाहते हो। प्रेम की पुकार पर फिर खिंचे चले आते हो लेकिन फिर हमेशा अपने साथ अहम् की छतरी, शंका का ऐनक, तर्क के गम बूट्स और भ्रम के दस्ताने पहन लेते हो और फिर कहते हो प्रेम मुझे भिगोता नहीं। ऐसे कैसे चलेगा? क्या करूं तुम्हारा, तुम ही बोलो?