मुक्ति / कमलेश पाण्डेय
कवितावली ने एक लम्बी अंगड़ाई ले कर अपने पन्नों को पंखों की मानिंद फडफड़ाया तो धूल का गुबार सा उड़ा. उपन्यासचंद छींकने लगे और ग्रंथावली चाची को तो खांसी का दौरा ही पड़ गया. कहानी संग्रह राय ने फ्लैप से मुंह ढापते हुए कहा – “ऊब झाड़ने का ये ढंग ठीक नहीं. अगर हम सब लोग एक साथ पन्ने फडफड़ाने लगे तो धूल की आंधी आ जायेगी. यहाँ शान्ति से पड़े तो हैं कम से कम, वो भी मुहाल हो जायेगा.
“लानत है ऐसी शान्ति पर. बरसों बीत गए, पन्ने पलट लेना तो दूर, किसी ने हमारी गर्द तक नहीं झाड़ी. किसी ड्राइंग –बेडरूम या पार्क में किसी कोमल हाथ से पलटा जाना तो सपना ही है. अब तो यही एक आखिरी इच्छा रह गई है कि दीमकें या कबाड़ी वाले आएं और हमें मुक्ति दिला दें”, ठंढी आहों के बीच दबी समीक्षाबाई की आवाज़ आई.
नाम से पुस्तकालय और आकार और चरित्र से किताबों का ये गोदाम, कैदखाना या कब्रगाह एक सरकारी दफ्तर के तहखाने का हिस्सा है. जंग खाए लोहे के रैकों में तरतीब से लगी हज़ारों पुस्तकें, कैटलोग-बॉक्स, एक गोलाकार मेज़ के गिर्द चार उधडी हुई सी कुर्सियां और एक कोने में कम्प्यूटर-युक्त गोदामाध्यक्ष की मेज़-कुर्सी. रैकों के बीच घुसने के रास्ते यानी गलियारे में चंद और हज़ार पुस्तकों का ढेर. एक के ऊपर एक रखी किताबें बिल्ला लगवा कर रैक में टिकने का इंतज़ार करती हुई. एक खिड़की के टूटे हिस्से के एक छेद से आते धूप के रेले में नाचते धूल-कण. छत पर सीलन के दाग और रेंगती छिपकिलियाँ. वीरानी सी वीरानी. एक भुतहा बाग-सा मंज़र, जहां दफ्तर का चपरासी भी बीडी धौंकने या पौवा सटकने नहीं आता.
इस सतत कारागार में आजीवन कारावास भोगती ये किताबें अक्सर आपस में बतियाती हैं. आज उपन्यासचंद आख्यान के मूड में आ चुके है, आईये कान लगा कर सुनते हैं.
“तीन साल लगे थे उसे मुझे लिखने में. उन दिनों कई बार वह अपने-आप से बतियाने लगता था. बीबी को यकीन होने लगा था कि वो पगला गया है. अंतिम सफों को लिखने में तो छः महीने लगे. उसने छुट्टी लेकर वेतन कटवाया, ट्यूशन कर भरपाई की और चाय पी-पी कर एसीडिटी पाल ली. इतनी मशक्कत के बाद जब किताब छपने का वक़्त आया तो प्रकाशक नदारद. पांडुलिपी अवतार में मैं पांच प्रकाशकों की टेबल पर महीनों पडा रहा. नए लेखक की कृति था, किसी ने एक बार पलट कर देखा भी तो आत्मकथ्य के पन्ने पर नज़र मारकर फिर वहीं पटक गया. आखिर शर्माजी मिले एक दिन, बेचारे को दस हज़ार में ही छाप देने का ऑफर दिया. अपने लेखक के पास इतना होता तो क्यों झख मारता. एक दिन वो अपनी किताब छपा देखने का सपना लिए इस ‘अपना पब्लिकेशन’ के पास पंहुचा और मुझे मुफ्त में बेच आया. मैं छपा और उतना ही छपा जो इन सरकारी गोदामों में समा पाए. सरकारी खरीद का मुनाफ़ा लेकर वो तो सरक गया, इधर मैं रैक में पडा ऊंघ रहा हूँ , उधर लेखक भी भूल चुका है कि उसने उपन्यास लिखा क्यों था- इस स्थाई कब्र में चूहों और दीमकों के नाश्ते के लिए या अपनी कृति से समाज में कोई जलजला लाने के लिए.”
ग्रंथावली चाची अपने दस वाल्यूम वाली भारी-भरकम काया को हिलाने की कोशिश करती अपने क्लासिक अंदाज़ में बोलीं, “अरे! उपन्यासचंद, तुझे तो आज तक किसी ने पढ़ा ही नहीं. मेरी सोच! मेरे भीतर के अक्षर तो आज से दो दशक पहले तक पत्रिकाओं और संग्रहों में जिंदा थे. जाने कितने दिलों में फुरहरी, आँखों में आंसू और बाजुओं में फड़कन ला देते थे. जाने किस मनहूस घड़ी में उन लफ़्ज़ों को मेरी मोटी काया में क़ैद कर यहाँ जिंदा ही दफना दिया उस मुए प्रकाशक ने. दादा लेखक की नामाकूल औलादों ने औने-पौने ही दे दी कॉपीराइट और इसने छाप कर बेच लिया सरकार को. अब देख लो, इतनी कालजयी रचनायें समेटे यूं पड़े हैं कि मुहर लगाने वाले दिन के बाद किसी ने छुआ तक नहीं मुझे.”
“कालजयी! हूँ!” उपन्यासचंद बड़बड़ाए, “कौन पढ़ता है इनकी जंग खाई लम्बी-लम्बी लफ्फाजियो को. नया युग, नई संवेदनाएं तो मेरी थीम में हैं. बदकिस्मत हैं कि इस दौर में छपे वरना मेरे भी बुजुर्गों को कमसिन लड़कियां सीने में दबा कर या तकिये में छुपा कर रखती थीं.” फिर प्रकट में बोले, “सब समय का चक्कर है चाची,. आपके ज़माने में पढ़े-लिखे लोग कम थे, मगर पढ़ने वाले जियादा थे. आज बस दौर उलट गया है ”
कवितावली के मन में भी अपने सृजन के पल करवटें लेने लगे. कम अक्षरों की अपनी हलकी फुल्की काया को रैक पर टिकाते हुए बोलीं, “जाने मुझे क्यों कैद किया गया पन्नों में...मैं तो एक ऎसी कवियित्री की आत्मा का उच्छ्वास हूँ जो मंच पर खड़ी होती थी तो श्रोता एक-एक लफ्ज़ उसके होटों पर ही लपक लेते थे. श्रोताओं और समीक्षकों के दिलों पर राज़ करती थी वो. हर गोष्ठी-सम्मलेन की मुख्य आकर्षण रहीं. श्रव्य काव्य का बरसों प्रचार-प्रसार करने के बाद कुछ दीगर कारणों से मंच पर जाना कम हो गया तो बड़ी मेहनत कर उन्होंने अपनी कविताओं को लिपिबद्ध कर डाला. पुरानी शोहरत काम आई – बड़े प्रकाशकों ने हाथों हाथ लिया. छपीं मगर जाने क्यों पाठक उदासीन रहे. मंच के नीचे वाह-वाह करते न थकने वाले प्रशंसकों ने भी किताब खरीदने के प्रति कोई उत्सुकता नहीं दिखाई तो पूरा का पूरा संस्करण ग्रंथालयों को भेंट कर दिया गया. सामर्थ्य भर सरकारी खरीद में भी खपाई गई सो आज मैं भी यहाँ जमुहईयाँ ले रही हूँ. सोचो.. कैसे इन्हीं लफ़्ज़ों का जादू कभी काव्य-गोष्ठियों में जलजला ला देता था .. आज वो सारे लफ्ज़ तमाम छंद-वंद, उपमा-बिम्ब वगैरह लपेटे पन्नों के बीच ऊंघ रहे हैं.”
कुछ मिनट सन्नाटा छाया रहा. फिर एक कोने में खड़-खड सी हुई. एकदम चटख रंगों के चमकीले आवरण के भीतर से समीक्षाबाई की भुनभुनाहट भरी आवाज़ आई, “अब तुमलोग अपना स्यापा बंद करो. तुम्हें कम-से कम लिखा तो गया और एक बार प्रूफ वाले ने तो ज़रूर ही पढ़ा होगा. किसी-किसी के तो पेपरबैक भी निकले होंगे और सस्ता देखकर किसी ने किसी को तोहफे में देने के लिए खरीद भी लिया होगा. पर मैं... मैं तो विद्वानों की खेती की पैदावार हूँ. ये खुदा के बन्दे एक साँचा-सा रखते हैं.. तुम्हीं में से कुछ लफ्ज़ निकाल कर उन सांचों में डाल कर चैप्टर-दर-चैप्टर रच डालते हैं. किसी को चने के झाड पर चढ़ाना हो तो एक साँचा, किसी को खाई में धकेलना हो तो दूसरा. पर मैटर एक ही, कुछ इधर से काटा, कुछ उधर चिपकाया. सो प्रूफ-रीडर पढता तक नहीं. छाप कर धर देते हैं गोदामों में. किसी-किसी से पी.एच डी. मिल जाती है, तो खर्चा विद्वान का ही. कोलेज-ओलेज की लाइब्रेरी में तो किसी ने पलट भी लिया, पर यहाँ तो जानो कि जिधर समीक्षा का बोर्ड लगा देखा तो उस रैक की ओर हवा तक भी नहीं फटकती. मुझे तो डर लगता है कि कभी दीमकों की फौज तुम सब को मोक्ष दिलवाने के इरादे से इधर आई तो वो भी मुझे सूंघेगी तक नहीं.”
माहौल में एक रुआंसापन-सा छा गया. उसी मूड को आगे बढाते हुए नवांकुर कथादेव जी बोले, “मेरे लेखक में सबको अपार संभावनाएं दिखीं थीं. शुरुआत में तो सहमते-सहमते लिख रहा था कि एक दिन गुरुदेव को, जो जाने किस मूड में थे, उसकी कोई कहानी एकदम पसंद आ गयी. गोष्ठी-गोष्ठी बात फैल गयी. गुरुदेव एक बड़ा मठ चलाते हैं. अपनी पत्रिका, प्रकाशन और पुरस्कार भी है. छाप दिया एक धुंआधार टिप्पणी के साथ. चेले-चपाटी ले उड़े कहानी को. रातों-रात साहित्य में एक नए धूमकेतु के अवतरण की घोषणा हो गयी. अपना नवांकुर फिर भी सहमा हुआ ही रहा. अगली कहानी सर खुजाते-खुजाते लिखी. पर हवा तो बंध चुकी थी... उस कहानी का भी वही हश्र हुआ.. यानी वाह-वाह, क्या लिखता है ये लड़का वगैरह . साहित्य ने लड़का पसंद कर लिया था. उसकी कलम हौसले से लदबदाई हुई एकदम चल पड़ी और कहानियां उगलने लगी. गुरुजी के प्रताप से नवांकुर कहानी संग्रह छप कर आ गया है और वाजिब प्रक्रिया के तहत यहाँ जमा कर दिया गया है. ये लो .. यहां मैं भी हूँ. पर कहानी कार की तंद्रा अभी टूटी नहीं है. अपनी कलम को बार-बार चूमता वह लिखे जा रहा है. उफ़! अब तो यहाँ जगह ही नहीं बची.”
व्यंग्यराज अपनी स्थाई वक्र मुस्कान के साथ अपने अजीब-अजीब से शीर्षकों वाले हमसाये व्यंग्य-संग्रहों के साथ गलबहियां डाले झूल से रहे थे. बोले, “पिछले कई सालों से सबसे ज़्यादा फुट-फॉल मेरी गली में ही हुई है. यानी दो बार. व्यंग्य खूब लिखा जा रहा है और शायद पढ़ा भी जा रहा है. यों व्यंग्य साहित्य की दलित विधा है, पर किसी भी अखबार-पत्रिका का काम इसके कॉलम के बगैर नहीं चलता. जिसकी चल गई, चलती ही चली जाती है. खूब लिखा और सब जमा कर एक संग्रह में डाल दिया. अपने लेखक का तो ये सातवाँ है. आप, अरसा हुआ, दादा की हैसियत पा गए. व्यंग्य का कारखाना ही खोल लिया है. विश्वविद्यालय में दरबार लगाए बैठे हैं. दस-बीस लोग सदा आस-पास रहते हैं और व्यंग्यकार कहलाते हैं. बीसेक और हैं जो दादा के आशीष से इसी हैसियत से नवाजे जाते हैं. ये लोग कुछ ऐसा लिखते हैं जिसे दादा व्यंग्य करार देते हैं. फिर उसकी समीक्षा कर दी जाती है और व्यंग्यकार स्थापित हो जाता है. सब साथ रहते हैं और बड़ा, मझोला, उदीयमान या संभावनाशील व्यंग्यकार के ग्रेड के अंतर्गत ही रहते हैं. इस घेरे के बाहर भी बहुत से लोग व्यंग्य लिखते हैं. दादा उन्हें व्यंग्यकार नहीं मानते तो भी बाज नहीं आते. व्यंग्य विधा ही ऎसी है. बहरहाल जो रैक यहाँ हैं सभी प्रकार के व्यंग्यकारों की करतूतों से भरे हुए हैं. दादा ने जब से व्यंग्य समीक्षा चलवा दी है, किताबों की आमद में और इजाफा हो गया है. एक अफवाह-सी है कि व्यंग्य पाठक को अच्छा लगता है सो, दादा और उनके शिष्यों के अलावा भी जो जहां कुछ ऐसा लिख रहा है जो उसके ख्याल से व्यंग्य है, संग्रह छपवाने में जुटा है. सो देख लो इधर की रैकें ठुसती जा रही हैं.”
समीक्षा बाई बजाहिर उदासीनता, पर वास्तव में कान लगाए ये बयान सुन रही थीं. खुद को रोक नहीं पाईं, “पहले अपनी हैसियत तो तय करवाओ साहित्य में फिर चढ़ना आलोचना की खराद पर. पाठक तो फुटपाथी साहित्य भी पढता है तो क्या उसकी भी समीक्षा हो. व्यंग्य के मठाधीश ..हूँ..कहीं कोई मठ भी तो हो इन पंडों के लिए जहां समीक्षा के प्रवचन, सेमीनार आदि होते हों जैसे कविता, कहानी वगैरह के हैं.” बहस को पटरी बदलते देख भारी-भरकम रैकों में किताबें पन्ने फड़फड़ाने लगीं. व्यंग्यराज अपनी तिरछी मुस्कान की ओट से बोले, “ मोहतरमा, आपने अपनी उत्पत्ति और महत्ता पर खुद ही अभी-अभी प्रकाश डाला था. छपने, बिकने और पढ़ने के लिए हम आपके मोहताज नहीं. हाँ, सेमिनारों में चर्चा के लिए जरूर हैं, पर फिलहाल तो सच ये है कि सबकी हालत एक जैसी ही है. किसी चमत्कार से दुनिया के सारे टीवी एक साथ ही फुंक जाएँ और मोबाइल-इंटरनेट की फ्रिक्वेसियाँ आपस में टकराकर ख़त्म हो जाएँ तो शायद कोई हमारी सुध लेने आ जाय. वैसे तब भी आपको कोई पढ़ने के इरादे से ले जाएगा, इसकी आशंका नहीं है.”
किताबें हंसने लगीं. कवितावली को ये टिपण्णी नागवार गुजरी. समीक्षा बाई की विरुदावली के जरिये ही उनकी छंदमुक्त और सार-मुक्त चित्रात्मक-सी कृतियों में अर्थ-विस्फोट देखा गया था और कविता बता कर साहित्य की गोद में डाल दिया गया था. बोलीं, “समीक्षा ही हमें किसी रचना की बारीकियां बताती है. कई बार समीक्षक, अगर खुश हो, तो रचना में ऐसी चीजें ढूंढ कर दिखा देता है जो रचनाकार के ख्याल तक में न आया हो. कविता विशुद्ध साहित्य है, उसमें छुपी संवेदनाओं के महीन पहलुओं को समीक्षा के जरिये ही समझा जा सकता है. व्यंग्य में क्या है, जिसकी समीक्षक छान-फटक करे- रोजमर्रा के मुद्दों पर सीधी-आड़ी टिपण्णी..”
व्यंग्यराज ने मुस्करा कर जता दिया कि इस बयान को वो टिपण्णी लायक भी नहीं समझते. उधर हलके-फुल्के रैकों में संस्मरण-दास, रिपोर्ताज, नाटक राम वगैरह भी कुलबुला रहे थे. अपना पक्ष भी रखना जुरुरी है, ऐसे अंदाज़ में संस्मरण दास की आवाज़ आई, “अरे भैया, मुझे देखो. एक बड़े लेखक की ज़िंदगी की तस्वीर हूँ, जिसमें उसके सारे प्रेम-प्रसंग, साहित्यक अदावतें, कई कुकर्मों सहित ढेरों उत्तेजक वाकये भरे हुए हैं. ये विवादास्पद तौर पर खूब चर्चा में रहे. पर किताब छपते ही जाने क्या हुआ. शायद हम हिन्दी किताबों के लिए ड्राइंग रूम के शोकेस बंद हो चुके. पढ़ना तो दूर, वहां फैशन में रखना भी फैशन में न रहा.”
नाटक राम जमुहाई लेते हुए बोले, “ हाय क्या दिन था वो. पुस्तक मेले में मेरा विमोचन हुआ. पूरे दस लोग थे, फिर समोसे और लड्डू देखकर दसेक और आ जुटे. फोटू-शोटू के बीच मेरी रिबन खुली और पंद्रह मिनट तक मुझ पर चर्चा हुई. एक बड़े विमोचक ने कहा कि मैं साहित्य की दुनिया में एक बड़ी कमी पूरी करने को अस्तित्व में आया हूँ. मुझे क्या पता था कि वो दुनिया यहाँ है और कमी यहाँ की रैकों की खाली जगह में थी. जाने मुझे कभी मंच पर खेला जाएगा या नहीं, पर तीन साल की इस क़ैद में ये तो यकीन हो चुका है कि पढ़ा तो नहीं जाएगा.”
“अच्छा तो आप विमोचित भी हुए. अपन ने तो ये दाग नहीं लगवाया है. पुस्तक मेले में उस दस की टीम और समोसा-लड्डू प्रेमियों ने ही आधे से ज़्यादा विमोचन संपन्न किये थे. मैं अखबारों में तो पढ़ ही लिया गया हूँ सो अछूते रह जाने का गम भी नहीं. अगर नहीं भी पढ़ा गया तो लिफाफों और रद्दी के रूप में हवाखोरी कर ली है. ये तो सरकारी खरीद के चक्कर में प्रकाशक ने यहाँ फंसा दिया वरना...” व्यंग्यराज फिर कूके.
“कौन लिखता है किसी और की खातिर ऐ दोस्त, सबको अपनी ही किसी किताब पे रोना आया” दीवान साहब ने तरन्नुम में सुना कर एक आह भरी, “कमबख्त महफिलों की वाहवाहियों के बीच ख़याल तक न आया कि किसी रोज़ एक ऐसा दौर आएगा जब हम महज़ हर्फ़ या बहुत हुआ तो लफ्ज़ भर रह जायेंगे और हमारे बीच दबी रूह फना हो जायेगी. तब किताबों के कफ़न में ये लाइब्रेरी की कब्र में रैक के दो ईंच ही नसीब होंगे.”
एकदम गोदामाध्यक्ष की कुर्सी के पास खड़े रैक के चमचमाते शीशों के पीछे धुली-पुंछी अंग्रेज़ी किताबों को हसरत-भरी नज़र से घूरते हुये उपन्यास चंद बोले, “सही फरमाते हैं आप! किताबों का दौर बीत चुका, हमारा तो शर्तिया ही. वैसे ये जो संभ्रांत किस्म की किताबें सोचती हैं कि ये पढी जा रही हैं तो समझ लो कि सदियों से फैशन के तहत कपडे-लिपस्टीक-सैडल की तरह ही किताबों के पढने के ढंग भी बदलते हैं. लड़कियां पर्स के नए मॉडल की तरह इन्हें साथ लटकाए फिरती हैं.”
“चलो, इस जन्म में न सही अगले में हमारा दौर लौट आये कहीं. हमारे कई दोस्त अपना सॉफ्ट-रूपांतरण करवा कर इनटर्नेट, आई-पैड या ऎसी दीगर चीजों में घुस कर अपना अस्तित्व सार्थक करने की कोशिश में हैं. सुना है इस अवतार में आज भी हमें पढ़ा जा रहा है. शब्द किसी भी काल में मरते नहीं. संवेदनशील दिमाग लगातार अपने युग का खाका खींचने की कोशिश में उन्हें गढ़ते और इस्तेमाल करते हैं. वो देखो उन अखबार-पत्रिकाओं के ढेर, किस तरह छपते और रिसाइकिल होते अभिव्यक्ति के काल चक्र में उलझे हैं. वक़्त आ गया है कि हमारा भी रूपांतरण हो. हम किताबों में अगर कुछ सार्थक होगा तो समाज स्वतः ही उसे सहेज लेगा”, ये शब्द जाने कौन बोला. आकाशवाणी-सा सुनाई पडा.
इस व्यक्तव्य का स्वागत पूरे गोदाम में पन्नों की फड़फड़ाहट के साथ हुआ. अचानक दरवाज़े पर हलचल हुई. कई लोग रजिस्टर आदि लेकर अन्दर आये और अलमारियों से किताबों को ज़मीन पर पटकने लगे. कुछ लोगों के हाथों में बोरे थे और वे शक्ल से कबाड़ी लग रहे थे.
एक अफसरनुमा आदमी ने मुआयने की नज़र से पूरे गोदाम को नापा. फिर अपने मुलाजिम को दो दिन में पूरे ‘स्पेस’ को इस सारे कबाड़ से ‘क्लीयर’ करने की हिदायत दे कर सीढियां चढ़ गया. तब ढेर बनती जा रही किताबों ने सुना कि इस बेसमेंट में कारों की पार्किंग बनाने का विचार हुआ है.
व्यंग्यराज ने एक विकट ठहाका लगाया. शेष किताबों ने भी मुक्ति की सांस ली.