मुक्ति / देवेन्द्र इस्सर

Gadya Kosh से
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शाम की संवलाहट वातावरण में फैलने लगी थी और धूल का गुबार आहिस्ता-आहिस्ता जमीन पर बैठने लगा था, कोलतार की सडक़ें बिजली की रोशनी में जगमगाने लगीं। रोशनी के पीछे अंधेरा धीर-धीरे बढ़ रहा था। लीलावन्ती खिड़की में खड़ी अपने पति की इन्तंजार कर रही थी। वह खिड़की में खड़े-खड़े सड़क पर चलते हुए राहगीरों को देखती रही जो किसी मोटर या तांगे की आवांज सुनकर दो धाराओं में बँट जाते थे और फिर मिलकर बाढ़ की तरह आगे बढ़ जाते थे। बांजार में अजीब गहमा-गहमा थी। मोटरें, ताँगे और साइकिलें शोर मचाती फर्राटे से गुजर रही थीं। लीलावन्ती की निगाहें बहुत देर इस हुजूम में अपने पति की खोज में भटकती रहीं मगर हमेशा निराश ही लौटीं। लीलावन्ती ने उकताकर सामने वाली दूकान में सजे हुए कपड़े के थानों की तरफ देखना शुरू कर दिया। रंग-रंग के नाना प्रकार के डिजाइनों के कपड़े उसकी निगाहों को चौंधिया रहे थे। नीले, पीले और लाल रंग कपड़ों से उड़कर हवा में तैरने लगे। लीलावन्ती को ऐसे महसूस हुआ जैसे उसकी निगाहों के सामने शोले नाच रहे थे। उसको अच्छे-अच्छे प्रिन्ट के कपड़े पहनने का बहुत शौक था। नीले साटन की सलवार और प्रिन्ट कमींज पर सफेद नून का दुपट्टा उसे कितना भला लगता था, लेकिन अब उसके पास नीले साटन की सलवार न थी, प्रिन्ट की कमीज न थी, नून का सफेद दुपट्टा न था। उसके पास मोटे खद्दर के तीन खुरदरे कपड़े थे, जिन्हें वह पहने हुए थी। कपडे क़ी दूकान के सामने दो नौजवान मर्द औरत हँसते हुए मोटर से उतरे। दोनों पहले शो-केस में लटकी हुई बनारसी साड़ियों की बहार देखते रहे और फिर दुकान के अन्दर दांखिल हुए। नौजवान औरत के कान के रुपहले टाप्स चमक रहे थे। लीलावन्ती ने अपने कानों को छुआ और उसकी उँगलियाँ कानों की लवों को मसलती रह गयी। इन कानों में कभी सोने के इयरिंग लटका करते थे और अब उसके पास काँच के नकली टाप्स भी नहीं थे। नौजवान जोडा अपनी पसन्द के कपड़े लेकर हाथ-में-हाथ डाले खुश-खुश दूकान से बाहर निकल रहा था। दूकानदार की नजरें दहलीज तक उन्हें देखती रहीं और फिर दूकानदार रजिस्टर में जरूरी चीजें दरज करने में लग गया। बगल वाली दूकान से बच्चे के फूले-फूले गालों को छूती और बच्चा उसे पकड़ने के लिए हाथ फैला देता। मियाँ-बीबी दोनों इस खेल से आनन्द उठ रहे थे। लीलावन्ती अपने लड़के के लिए गुब्बारा खरीदना चाहती थी, लेकिन उसे ऐसा मालूम होता था जैसे जिस गुब्बारे को वह छूती है, वह फट जाता है या उसकी हवा निकल जाती है और वह उसे हवा में उछालने के बजाए उसमें मुंह से हवा भरने की नाकाम कोशिश करती है। एक पल के लिए उसने बच्चे की तरफ देखा, जिसके गालों पर आँसुओं की मैल अभी तक नंजर आ रही थी। लीलावन्ती ने करीब जाकर उसके गालों को अपने खुश्क होंठों से चूम लिया। बच्चा बदस्तूर सो रहा था।

लीलावन्ती बहुत देर तक बांजार की तरफ देखती रही, लेकिन उसका पति न आया। सामने कपड़े वाले की दूकान बन्द हो रही थी, दूसरी दूकानों पर भी ताले पड़ रहे थे। फुटपाथ पर बैठे हुए शरणार्थी दूकानदार भी चादरें तह करके थके हुए कदमों से घर जा रहे थे। आदमियों की भीड़ धीरे-धीरे कम होती जा रही थी।

इतनी देर से खडे-ख़ड़े लीलावन्ती की टाँगें थक गयी थीं। बेकार खयालों के हुजूम में घिरा हुआ उसका दिमाग थक गया था। उसकी आँखें पिया की राह देखते-देखते थक गयी थीं, लेकिन वह उसी तरह निस्तब्ध खड़ी रही। दूर, बहुत दूर, जहाँ रोशनी अँधेरे में डूब रही थी, उसकी निगाहें अपनी पिया की राह देख रही थीं। लीलावन्ती ने दूर से एक लड़की को आते देखा। लड़की की चाल-ढाल बिलकुल उसकी जवान बेटी शीला का तरह थी, बिलकुल उसकी तरह दुबली-पतली और मंझोले कद की लड़की थी। लीलावन्ती के दिल में ज्वारभाटा-सा उठ खड़ा हुआ। वह खिड़की के सिर बाहर निकाल कर देखने लगी। लड़की तेज-तेज कदमों से उसके मकान की तरफ आ रही थी। बिजली के खम्भे के नीचे उसने लड़की के रंग रूप को गौर से देखा। उसके चेहरे की रेखाएं बिलकुल शीला की तरह थीं, लेकिन उसके गालों पर पाउडर और सुर्खी की हल्की-हल्की तह थी और उसके होंठ गहरे लाल थे। लड़की ने सलवार और कमींज पहन रखी थी। उसके कन्धे पर नून का रंगीन लहरियादार दुपट्टा इस अन्दांज से पड़ा था कि उसने सीने का उभार और ज्यादा उभर रहा था। लड़की की चाल में भी उसे निर्लज्जता नंजर आने लगी। लीलावन्ती की लड़की कितनी शर्मीली थी, उसका आंचल कभी भी सरका-सरका न रहता था। उसने शीला की निगाहों में ऐसी शोखी और बेबाकी कभी न देखी थी। लेकिन शायद अब...इसके ख्याल से ही लीलावन्ती काँप उठी। उसकी टांगें लरजने लगीं और वह खिड़की का सहारा लेकर सिसकियाँ भरने लगी। उसने एक बार सिर उठाकर उसी लड़की की तरफ देखा, वह सामने शीशम के पेड़ के नीचे खड़े हुए आदमी से हँस-हँसकर बातें कर रही थी।

लीलावन्ती के लिए यह घड़ी कितने दु:ख की थी, जब उसके दिल के दो टुकड़े हो गये थे, एक टुकड़ा पति के प्यार से भरपूर होकर उसे अपनी बेटी की कुर्बानी देने पर मजबूर कर रहा था और दूसरा टुकडा मां बनकर उसे शीला को छिपाए रखने पर मजबूर कर रहा था; चूंकि मां बनने के बाद उसका खून दूध की धारा बनकर उसकी लड़की के लिए अमृत बना था। लीलावन्ती का एक छोटा-सा घर था। वह उन दिनों रावलपिंडी में रहा करती थी। वहीं उसके छोटे बच्चे ने जन्म लिया था। गो लीलावन्ती जेहलम की रहने वाली थी, लेकिन उसकी ससुराल रावलपिंडी में ही थी। फिर आंजादी की रात आयी और उसके साथ-साथ उसके घर में छुराबरदार गुंडे भी आये। उसने अपनी लड़की को गुंडों से बचाने के लिए चारपाई के नीचे छिपा दिया, लेकिन गुंडे जानते थे कि उसकी एक जवान लड़की है, जिसकी जल्द ही शादी होने वाली थी। उन्होंने लीलावन्ती से लड़की का पता पूछा। लेकिन लीलावन्ती मां थी। वह अपने सामने अपनी लड़की की बेइज्जती न देख सकती थी। उसने शीला का पता बताने से इन्कार कर दिया। कुछ लोगों का खयाल था कि लीलावन्ती को ही शिकार बनाया जाए, लेकिन घर में जवान लड़की के होते हुए कौन इस अधेड़ औरत से मुंह काला करे? गुंडों ने एक नई तरकीब सोची। उन्होंने उसके पति को पकड़ लिया और उसके सामने ही उसके पेट में छुरा भोंकने की धमकी दी। लीलावन्ती कुछ सोच न सकी। उसे एक ओर पति की खून में लिपटी हुई लाश नंजर आने लगी और दूसरी ओर चीखों, आहों और सिसकियों में डूबा हुआ शीला का जिस्म। मां और बीवी का टकराव इस जोर से हुआ कि लीलावन्ती का सिर घूम गया और वह बेहोश हो गयी। जब वह होश में आयी, तो उसने दूसरे कमरे से शीला की चीखों की आवांज सुनी। सामने उसका पति रस्सी से बंधा हुआ पड़ा था। वह दौड़ी-दौड़ी दूसरे कमरे में गयी। उसने दरवांजे को घूंसों से तोड़ना चाहा, उसके दरवाजे से अपना सिर टकराया। अन्दर से शीला की दिलदोज चीखों और गुंडों के वहशी कहकहों की आवांजें आ रही थीं। ममता चीख रही थी और दरवंजाजा कहकहे लगा रहा था। वह बेबस थी। वह चाहती तो थी कि धरती फट जाए और वह उसमें समा जाए। फिर दरवाजा खुला और गुंडे शीला को उठाकर ले गये। उसके इयररिंग भी उतार लिये और जो चीज वह ले जा सकते थे, ले गये। फिर वह अपने बच्चे को अपने सीने से चिमटाए अपने पति के साथ देहली पहुँच गयी। उसके पास सिर्फ एक छोटा-सा बक्स था जिसमें पचास रुपए से ज्यादा का माल नहीं था। आंजादी से पहले वह रावलपिंडी में थी और आजादी के बाद देहली। देहली पहुँचकर उसने सुख की सांस ली। शायद वह नए सिरे से फिर जिन्दगी शुरू कर सके। लेकिन शीला की जुदाई का दाग उसके सीने में नासूर बनकर रिसता रहा। देहली में आज दो रोज से वह भूखी थी। जिस मकान में वह रहती थी, उसमें हमेशा घुप अँधेरा रहता था। उसके पति के आले और दवाओं के बक्स साहब वहीं रह गये थे। और अब वह किसी कम्पनी का इंश्योरेन्स एजेंट हो गया था। आमदनी इतनी थोड़ी थी कि कई बार खाना भी न मिल सकता था। लीलावन्ती न मालूम कब तक अपनी बेबसी और लाचारी पर रोती रही और अपनी पति का इन्तजार करती हुई खिड़की पर सिर रखे हुए खड़े-खड़े सो गयी।

सुबह की पहली किरण जब उसके चेहरे पर पडी तो उसकी आँख खुली। सामने बांजार में लोगों की चहल-पहल फिर शुरू हो गयी थी, दूकानें फिर खुलने लगीं। बांजार की सारी ंफिंजा किसी युवती की तरह अंगड़ाई लेकर जाग चुकी थी। लीलावन्ती बहुत उदास थी। उसने बाल्टी उठायी और नीचे पानी लेने चली गयी। जब वह पानी लेकर आयी तो उसने टूटे हुए शीशे में अपनी सूरत देखी। एकाएक उसने हाथों से चेहरा ढंक लिया और एक कदम पीछे हट गयी। उसने फिर आईने में देखा, वह इस उम्र में ही साठ साल की बुढ़िया लगने लगी। उसे वह शाहंजादी याद आयी जो साल सो चुकने के बाद जब जागी तो उसी तरह जवान और सुन्दर थी, लेकिन लीलावन्ती एक रात अर्ध निद्रा की हालत में रहने की वजह से ऐसी मालूम होती थी, जैसे वर्षों की बूढी हो। उसके चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गयी थीं। उसकी आँखों के गिर्द हलके पड ग़ये थे, उसके गाल पिचके गये थे, वह जब सोकर उठी तब तक सुन्दर औरत के बजाय एक बदशक्ल बुढ़िया थी। लीलावन्ती अपनी सूरत देखकर रोने लगी।

लीलावन्ती पति के न आने से रात-भर बहुत परेशान थी। उसने सोचा कि वह क्यों न स्वयं जाकर आँफिस में तलाश करे। सम्भव है, कोई काम पड़ गया हो और वहीं रुक गये हों, लेकिन लड़के को घर में अकेला छोड़कर कैसे चली जाए! जब वह जागेगा तो घर में अपने आपको अकेला पाकर खूब रोएगा। वैसे ही कल रात उसे दूध नहीं मिला था। उसकी समझ में कुछ नहीं आता था कि वह क्या करे और क्या न करे। अड़ोस-पड़ोस मे कोई हमदर्द न था जिससे सलाह-मशवरा करे। आंखिर उसने यही फैसला किया कि वह पति की तलाश में ऑफिस जाए और जल्द घर लौट आये। वह अपने साथ पीतल का एक बर्तन भी लेती गयी ताकि उसे बेचकर खाने-पीने की जरूरी चीजें ला सके और लगातार भूख से मुक्ति पा सके। वह कई बांजारों से गुजरती और मालूम नहीं किस-किस से पता पूछती पति के दफ्तर पहुँची। वहाँ जाकर उसे मालूम हुआ कि वह शाम को ही दंफ्तर से चले गये थे। लीलावन्ती यह सुनकर परेशान हुई। दफ्तर में कोई क्लर्क या अंफसर ऐसा न था जो उससे हमदर्दी का एक शब्द भी कहता। वह बस स्टैंड के पास आयी जहाँ से उसका पति बस पर सवार होता था, लेकिन यहाँ किससे पूछताछ करे? वह कई मिनट तक बसों को आते-जाते देखती रही। लेकिन कुछ सोच न सकी कि वह अपने पति को कहाँ तलाश करे। खम्भे के साथ ही पनवाड़ी की दूकान थी। शायद उसे कुछ मालूम हो, लेकिन पनवाड़ी तो उसके पति को जानता ही नहीं, न मालूम कितने लोग रोंजाना इस खम्भे के पास बस का इन्तंजार करते होंगे। इतने लोगों की शक्लें याद रखना किसी इनसान के लिए मुमकिन नहीं, और फिर यह तो पनवाड़ी है, अपना काम करे या लोगों की सूरतों का मुआइना करे। उसका पति पान भी तो न खाता था। उसने सोचा, इसमें हर्ज ही क्या, यदि इस पनवाड़ी से पूछा जाए। वह झिझकते-झिझकते पनवाडी क़ी दुकान तक आकर रुक गयी। उसने पनवाड़ी को अपने पति का हुलिया बतलाया और पूछा कि इस किस्म के किसी आदमी को कल शाम को बस पर सवार होते तो नहीं देखा? लीलावन्ती ने आँफिस से लौटते समय एक अंखबार बेचने वाले से भी पूछा था कि कल शहर में किसी आदमी के मोटर या तांगे के नीचे आ जाने या किसी बस से टकराने या इसी किस्म की कोई दूसरी दुर्घटना तो नहीं हुई? लेकिन अजीब बात थी कि उस रोज कोई ऐसी घटना न हुई थी। वर्ना इतने बड़े शहर में रोज बीसियों दुर्घटनाएं हो जाएा करती थीं।

पनवाड़ी कुछ देर खामोश रहा कि वह सच्ची बात कहे या न कहे, लेकिन वह झूठ बोलकर भी लीलावन्ती या उसके पति को कोई फायदा नहीं पहुंचा सकता था। लीलावन्ती के बार-बार कहने पर उसने उसके पति की बाबत बतलाया कि कल ज्यों ही सूरज अस्त हुआ और सड़कों और दूकानों के बल्ब जले उसका पति खम्भे के पास आकर खड़ा हो गया और घर लौटने के लिए बस का इन्तंजार करने लगा। कई बसें गुजर गयीं, लेकिन वह सवार न हो सका। उसमें दिन-भर की थकान के बाद इतनी ताकत न थी कि बस के धक्कम-धक्का में हिस्सा ले सके। एक घण्टा गुजर गया, दूसरांज घंटा गुंजर गया और वह बस के इन्तंजार में खड़ा रहा। सड़कों पर हुजूम कम होने लगा। इक्का-दुक्का कोई आदमी जल्दी-जल्दी लौटता हुआ घर की तरफ नंजर आने लगा तो उसकी आस बँधी। बस आयी और वह लपककर उसमें सवार होने लगा कि...पनवाड़ी थोड़ी देर के लिए रुका और छालियाँ काटने लगा। उसने लीलावन्ती की ओर झुकी दृष्टि से देखा। वह मूर्ति बनी सब-कुछ सुन रही थी-किसी मजबूत हाथ में उसका बाजू आ गया और वह पायदान से नीचे घसीट लिया गया। उसने मुड़कर देखा, दो बावर्दी सिपाही हाथ में डंडे लिये उसे इस तरह घूर रहे हैं जैसे वह कोई रूपोश मुजरिम था। मेरी दुकान पर एक सब-इंस्पेक्टर बगल में बेंत दबाये अपनी गोल मूंछों को ताव दे रहा था। बस निकल गयी और वह सहमा-सहमा-सी वहीं खड़ा रह गया। पुलिस के एक सिपाही ने कहा-कहाँ जा रहे हो? बड़ी मुश्किल से काबू में आये हो। दूसरे सिपाही ने कहा-तुम हिरासत में हो। उसका पति यह सोच भी न सका कि वह क्यों गिरंफ्तार कर लिया गया है। उसने अपने होंठ हिलाए और डरते-डरते सवाल किया-'हुजूर मुझे आप क्यों पकड़ रहे हैं? मैं कोई चोर या गिरहकट नहीं। मैं शरणार्थी हूं। पहले डॉक्टर था, अब इंश्योरेन्स एजेंट का काम करता हूं हुजूर।' लेकिन सिपाही बड़े हुजूर की तरफ देखने लगा। 'इसे हवालात में बन्द कर दो।' उसका पति हाथ जोड़कर कह रहा था-'हुजूर, मेरा कसूर क्या है? मैं आपके पाँव पड़ता हूं, मेरी बीवी और बच्चा मेरी राह तक रहे होंगे। वह दो रोंज से भूखे हैं। अगर मैं न गया तो वे सिसक-सिसक कर मर जाएंगे।' बड़े हुजूर ने सिपाही से पूछा, 'अरे, इसका क्या जुर्म है?' सिपाही ने तड़ से जवाब दिया-'हुजूर, यह शंख्स देखने में जेबकतरा लगता है।' बडे हुजूर को उसके पति की गिरंफ्तारी की माकूल वजह मिल गयी थी। उन्होंने गौर से उसकी तरफ देखा और कहा-'ठीक है।' फिर उन्होंने हुक्म दिया, 'ले चलो इसको थाने में।' पुलिस इंस्पेक्टर किसी दूसरे शिकार की तलाश में आगे बढ़ गया। उसके पति की जेब में चाँदी के सिक्के भी न थे कि उनकी हथेली गर्म कर सकता। उसने पनवाड़ी की दूकान में लगे हुए आईने में अपनी सूरत देखी। उसने खद्दर का तंग पायजामा और खुले गलेवाला कुर्ता पहन रखा था। और उसके हाथ में चमड़े का बैग था। उसके बाल बिखरे हुए थे। उसकी आँखों पर मोटे-मोटे शीशेवाली ऐनक थी। उसके चेहरे पर कई दिनों की भुखमरी के निशान गड़े हुए थे। भूख और गर्मी से उसका शरीर दुबला और काला पड़ गयाथा।

लीलावन्ती यह कहानी सुनकर हक्का-बक्का रह गयी। उसके दिमाग में यह खयाल कभी न आ सकता था कि उसका पति जेबकतरा होने के जुर्म में गिरंफ्तार कर लिया जाएगा। जब लीलावन्ती ने अपने पति की गिरंफ्तारी का हाल सुना तो उसे पाँव तले की जमीन खिसकती जान पड़ी और वहीं पनवाड़ी की दूकान पर बेंच पर बैठी बहुत देर तक वह अपना चेहरा हाथ से छिपाए कुछ सोचती रही। लेकिन उसे काले नाचते हुए धब्बे के सिवाय कुछ नंजर न आता था। उसके मस्तिष्क में भी काले-काले धब्बे नाच रहे थे। जब उसे यह एहसास हुआ कि वह सरेबांजार एक पनवाडी क़ी दूकान पर बैठी हुई है तो वह एकाएक उठ खड़ी हुई और पनवाड़ी का शुक्रिया अदा किये बिना ही एक ओर चली जा रही थी, काले-काले धब्बों के दरमियान संफेद रोशनी की तलाश में। गर्मियों के दिन थे और दोपहर का समय था। सूरज आग बरसा रहा था। लोग-बाग लू लग जाने के डर से घरों से बाहर निकलने से कतराते थे, लेकिन लीलावन्ती पसीने में सराबोर तेजी से चली आ रही थी। उसे अपने बच्चे का ध्यान भी न रहा जिसे वह घर में अकेला छोड़ आयी थी और जो उसकी जुदाई में रो-रोकर जान हलकान कर रहा होगा। जब उसे जरा होश आया तो उसने देखा कि वह कोतवाली के सामने खड़ी हुई है। वह झट से कोतवाली के अन्दर दाखिल हो गयी और सिपाहियों से अपने पति के बारे में पूछने लगी, लेकिन कोई तसल्लीबंख्श जवाब न दे सका। वह उनके सामने गिड़गिड़ायी, जार-जार रोयी, लेकिन सिपाहियों ने उसकी बातों पर जरा भी ध्यान न दिया। लीलावन्ती निराश होकर भारी दिल लिए हुए कोतवाली से बाहर निकल आयी। उसकी चाल अब धीमी पड़ चुकी थी। उसके पाँव में हल्की-सी लड़खड़ाहट आ गयी थी। वह हाथ में पीतल का खाली बर्तन लिये हुए घर की तरफ चल खड़ी हुई।

उसे दूर से शोर की आवांज सुनाई दी। जैसे सैकड़ों आदमी मिलकर चिल्ला रहे हों। शोर की आवांज निकट आती जा रही थी। उसे जुलूस की एक झलक दिखाई दी। आहिस्ता-आहिस्ता जुलूस ंकरीब आ गया। उसने देखा, इसमें मर्द भी थे, औरतें और बच्चे भी। वह अधिकांश औरतों और मर्दों के लिबास से पहचान गयी कि वे लोग पंजाबी हैं। उन्होंने बड़े-बड़े प्लेकार्ड उठाये हुए थे जो उर्दू और हिंदी में लिखे हुए थे। लीलावन्ती को इन लोगों के नारे भी अजीब से मालूम हुए। यहाँ नेताओं के जयकारे नहीं बोले जा रहे थे। वह जो कुछ सुन रही थी? यह लोग वही कुछ कह रहे थे जो वह चाहती थी। वह अच्छा मकान, सस्ता गल्ला और सस्ता कपड़ा चाहती थी। वे लोग कैदियों की रिहाई मांग भी कर रहे थे। शायद उसके पति की तरह कई और लोग भी जेल की काल कोठरियों में बन्द कर दिये गये होंगे। उसको ऐसा महसूस हुआ जैसे यह सैकड़ों आदमी वर्षों से उसके वाकिंफकार और ंगमंख्वार थे। जैसे उसके दिल की धड़कन इन आदमियों ने सुन ली हो। वह भी किसी नामालूम भावना से प्रेरित होकर इस जुलूस में शामिल हो गयी। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे जिन्हें बार-बार वह अपने मैले दुपट्टे से पोंछती थी। एक लड़की ने बढ़कर लीलावन्ती को थाम लिया। मां! तुम रो क्यों रही हो? लीलावन्ती ने ऐसा महसूस किया जैसे वह शीला की आवांज हो। उसने उस लड़की की तरफ देखा और रोने लगी। लड़की ने फिर पूछा, मां ! तुम रो क्यों रही हो? लीलावन्ती ने रुँधे हुए गले से जवाब दिया-तुम्हें देखकर मुझे अपनी लड़की की याद आ गयी। मालूम नहीं बेचारी किस हालत में कहाँ होगी? नौजवान लड़की ने लीलावन्ती को ढाढस बँधाया और कहा, मां तुम दुखी न हो। मुझे भी अपनी बेटी समझो। हम सरकार से यही कहना चाहते हैं कि हमारी बातों को माने और अपहृत स्त्रियों का पता लगाकर उनके वारिसों को वापस दिलाए। लीलावन्ती ने लड़की की तरफ प्रशंसा की दृष्टि से देखा, लेकिन बेटी! मेरा पति भी कल गिरंफ्तार कर लिया गया। लड़की एकदम हैरान हो गयी। क्यों? कि स जुर्म में? क्या वह कोई राजनैतिक कार्यकर्ता था? लीलावन्ती ने जवाब दिया-नहीं, उसे राजनीति से दूर का भी लगाव नहीं था। तो फिर? लड़की ने उत्सुकता से पूछा। लीलावन्ती ने कहा-पुलिसवाले कहते थे, वह देखने में जेबकतरा लगता था। उन्हें क्या पता कि लगातार भुखमरी और कड़ी मेहनत ने उसकी यह हालत बना रखी थी। वह यह कहकर फिर रोने लगी। लड़की की मुट्ठियाँ भिंच गयी और वह दाँतों से होंठ काटने लगी। वह लीलावन्ती को सहारा दे रही थी-'मां, यह तेरा दुख नहीं है, हम सबका दुख है। हम सबकी मुसीबत एक है। हम अपने देश के प्यारे नेता से मिलने जा रहे हैं। तुम भी अपने दुखों की कहानी सुनाना और इंसांफ की अपील करना।' युवा लड़की नारे लगाने लगी। उसका गला चिल्लाते-चिल्लाते बैठ गया था लेकिन वह मुट्ठी बन्द करके, हाथ उठा-उठाकर नारे लगा रही थी, जैसे सारी धरती का दर्द उसके सोने में हो।

जुलूस एक चौराहे पर आकर रुक गया। सब लोग सड़क की तरफ बड़ी बेचैनी से देख रहे थे, जैसे कोई बड़ी बात होनेवाली हो। जुलूस आध घटा तक इसी हालत में खड़ा रहा और लोग इधर-उधर से आकर उसमें शामिल होते गये। आधे घंटे बाद प्रिय नेता की कार आयी और जुलूस के सामने खडी हो गयी। कार का दरवांजा खुला और उसमें से प्रिय नेता निकले। लीलावन्ती ने देखा कि प्रिय नेता का मुख संजीदा और प्रभावशाली था। वे बड़े गुस्से में थे। उन्होंने जुलूस के नेताओं से कई सवाल किये और जुलूस के नेताओं ने उनके जवाब दिये; लेकिन लीलावन्ती इतनी दूर से कुछ सुन न सकती थी। वह प्रिय नेता के चेहरे की तरफ ध्यान से देख रही थी जो प्रतिक्षण गुस्से ले लाल होता जा रहा था। उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे प्रिय नेता जुलूस के नेताओं को डाँट रहे हों। नौजवान लड़की ने लीलावन्ती को हिलाया और उसे आगे बढ़ने का इशारा किया। लीलावन्ती ने लड़की की तरफ देखा, वह जोश से काँप रही थी। उसकी आँखें सुलग रही थीं, उसके बाल और पलकें धूल से अटी हुई थीं, उसके होंठ खुश्क थे लेकिन वह मजबूती से खड़ी थी। जैसे कोई बात उसकी छाती से बाहर निकलने के लिए तड़प रही हो। लीलावन्ती बिना झिझके आगे बढ़ती गयी। वह समझती थी कि वह अपने देश के एक बड़े आदमी से अपने दु:ख की कहानी बयान करने जा रही है। ज्योंही वह नजदीक पहुंची, वह कार के अन्दर बैठ गये और कार स्टार्ट हो गयी। मोटर फर्राटे भरती हुई और अपने पीछे धूल का गुबार छोड़ती हुई जा रही थी। धूल के कण उसके खुश्क होंठों और सूखे हुए गालों पर आकर जम गये। जैसे किसी ने उसके मुंह पर तमाचा मार दिया हो। पेट्रोल की तेज बू ने उसे नाक सिकोड़ने पर मजबूर कर दिया। हुजूम को पुलिस ने तितर-बितर करना शुरू कर दिया। हल्का-सा लाठी-चार्ज हुआ, मगर उसके कन्धे पर एक जोर की लाठी पडी। ख़ून न बहा, लेकिन दर्द सारे शरीर में फैल गया।

लीलावन्ती सड़क पर अकेले खड़ी सोच रही थी; हुजूम अब भी नारे लगा रहा था और युवा लड़की की बन्द मुट्ठी अब भी हवा में उठी हुई थी। सड़क पर मोटर के टायरों के निशान गड़ गये थे। उसे ऐसा मालूम हुआ जैसे कोई सांप उसकी छाती पर से गुंजर गया हो और वह अब लकीर पीट रही हो। मोटर आँखों से ओझल हो गयी और वह घर की तरफ लौट पड़ी। अब वह बिलकुल निराश हो चुकी थी। आशा की आखिरी किरण भी बुझ चुकी थी और उसकी दुनिया जो पहले अन्धकार में थी अब और अन्धकारमय हो चुकी थी। उसके हाथ में पीतल का बर्तन उस भिखारी के भिक्षापात्र की तरह खाली था, जिसने भिक्षा पाने की आशा में किसी दाता का दरवाजा खटखटाया हो और उसे वहां गालियों के सिवा कुछ न मिला हो।

चिलचिलाती धूप में दिन-भर घूमते रहने के कारण उसे सनस्ट्रोक हो गया और वह घर आकर धड़ाम से फर्श पर गिर गयी। एक-दो घंटे इसी तरह पड़ी रही। उसका लड़का तालियाँ पीटता हुआ कमरे में दांखिल हुआ। लीलावन्ती ने मुंह फेर लिया, लेकिन नन्हा बच्चा लगातार तालियाँ पीटे जा रहा था-सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा।

लीलावन्ती की आँखों के सामने दो सांप घूम रहे थे और उसके चेहरे पर धूल के कण जमे हुए थे। उसने बच्चे के मुंह पर तमाचा मार दिया। वह आराम चाहती थी और बच्चा उसे तंग कर रहा था। बच्चा इस अनहोनी बात पर हैरान हो गया। उसकी आँखों में आँसू छलक पड़े और वह रोने लगा। मां ने उसकी ओर देखा और बड़े प्रेम से उसको अपने सीने से लिपटा लिया। वह उसके गालों को सहलाते हुए उसके आँसू पोंछने लगी। लीलावन्ती की आँखों में आँसू आ गये, जिन्हें वह पी गयी। उसने सोचा, बेचारे का बाप जेल की काल कोठरी में बन्द कर दिया गया है। मैंने खामखा उसके मुंह पर तमाचा मार दिया। आखिर बच्चा ही तो है! लेकिन, वह ज्यादा सोच न सकी। उसका सिर झुक गया और उसने आखिरी हिचकी ली। हिचकी, जो इस बात की निशानी थी कि वह नई धरती की नई, मगर कलेजा चीरनेवाली हवाओं को बर्दाश्त न कर सकी थी।

जब लीलावन्ती मर रही थी तो उसकी निगाहों के सामने अलमारी में बन्द नीले-पीले और लाल थानों के रंग उड़कर शोलों में तब्दील होकर नाच रहे थे। खुशपोश जोड़े की आकर्षक हँसी वहशी कहकहे बनकर उसके दिल को चीर रही थी। और उसकी दबी-दबी सिसकियाँ चीखें बनकर बुलन्द हो रही थी और वह हाथ में पीतल की खाली बर्तन लिये हुए खुशी, सुख और आराम की भीख माँग रही थी।

लीलावन्ती मर रही थी और उसकी छाती पर दो साँप लिपटे हुए थे और उस पर फूलों को नहीं, रेत के कणों की बारिश हो रही थी। दर्द और सनस्ट्रोक की हालत ने उसे मौत की गहरी नींद सुला दिया।

लीलावन्ती अपने पति की राह देखती हुई उसकी प्यारी याद का दर्द अपने दिल में लिए हुए, अपनी जवान मासूम लड़की के अरमानों, हरसतों, तमन्नाओं और कुँवारी इस्मत के खून का दाग सीने में छिपाए हुए, अपने नन्हें बच्चे के आँसुओं में अपनी जिन्दगी में गम और दु:ख की झलक देखते हुए इस नई धरती की सीमाओं को पार करके दूर कहीं धुँधलकों में खो चुकी थी।

लीलावन्ती एक बार नहीं, दो बार मरी थी, और तीसरी मौत तो महंज एक दुर्घटना थी।