मुक्ति / पद्मजा शर्मा
दोपहर से ही आसमान को बादलों ने ढक रखा था। शाम ढलते-ढलते तो लगने लगा जैसे रात गहरा गई है। बादल बरसने लगे तो रुकने का नाम ही न लें। मूसलाधार बरसात। बिजली गुल। घुप्प अंधकार। हमने बाहर के दरवाजे पर ताला डाल दिया। भीतर जाली वाले दरवाजे से बीच-बीच में बाहर देख रहे थे कि बारिश की स्थिति कैसी, क्या है।
अचानक दूर से किसी के चीखने की आवाज कानों में पड़ी। गौर से सुना तो कोई कह रहा था 'बचा लो, बचा लो।'
मैंने पति से कहा 'दरवाजा खोलो। बाहर कुछ गड़बड़ है। कोई चीख रहा है।'
'तुम्हारा दिमाग तो ठीक है। इस बरसाती रात में किसी अनजान की चीख पर विश्वास करके दरवाजा खोलूँ? पता नहीं कौन है? न जाने तुम्हें कहाँ-कहाँ से कैसी-कैसी आवाजें सुनाई देती रहती हैं।' पति ने झल्लाते हुए जवाब दिया।
तभी वह आवाज और पास आ गई. बाहर वाले दरवाजे के बेहद करीब। वह लड़का लोहे के दरवाजे को भड़भड़ाते हुए चीख रहा था 'प्लीज, कोई मेरे ये डॉक्यूमेंट रख लो। भीग जाएंगे। कल इन्टरव्यू है।'
उस आवाज में अनुनय-विनय थी। वह देर तक इसी तरह याचना करता रहा कि 'मैं कल ले लूंगा। मैं दीवार के ऊपर से ही पकड़ा दूँगा। मैं सच कह रहा हूँ। मेरा विश्वास करो। नौकरी न मिली तो मैं आत्महत्या कर लूँगा। यह अन्तिम चान्स है।'
मैंने उस लड़के की सहायता के लिए बाहर जाना चाहा पर इन्होंने कहा-'इतनी रात गए, यह लड़का यहाँ क्या कर रहा है? मुझे तो कोई जालसाज लगता है। ऐसे समय में जब बाएँ हाथ को दाएँ हाथ का भरोसा नहीं, तुम बाहर जाने का कह रही हो?'
और हम उसे अनसुना, अनदेखा कर ठीक से चिटकनियाँ लगा कर सो गए.
दूसरे दिन कहीं कोई इन्टरव्यू था या नहीं, पता नहीं पर उसके अगले दिन समाचार पत्र में एक युवक की आत्महत्या की खबर ज़रूर थी।
मैं आज भी उस अनचिन्ही आत्महत्या को अपने से जोड़ कर देखती हूँ। जब मैं अपने साथ होती हूँ तब वह चीख भी मेरे साथ होती है। वह चीख मेरे भीतर से उठती हुई मेरी अपनी ही चीख-सी लगती है।
उस रात के बाद मैं बरसात की रातों में सो नहीं सकती। जगती रहती हूँ कि दुबारा वैसी गलती न हो जाए. बरसात की रातों को कोई बदनसीब ऐसे भी जीने को मजबूर होता है। एक चीख से मुक्ति के लिए मैं जाने कब तक अपनी खामोशी में चीखती रहूँगी।