मुक्ति / प्रताप सहगल

Gadya Kosh से
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मन्नू को जो भी पहली बार देखता, उसके मन में दया या करुणा का भाव पैदा होता। मन्नू के आसपास के लोग तो उससे अच्छी तरह से परिचित थे। वे उस पर स्नेह भी रखते लेकिन साथ ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मन्नू की माँ तक यह बात भी पहुँचा देते कि मन्नू को थोड़ा सँभालकर रखा करे, सड़क पर अकेले न जाने दिया करे यानी उसे घर की चारदीवारी में ही बन्द रखे। एक पड़ोसी ने तो यहाँ तक कह दिया कि उसके छोटे-छोटे बच्चे मन्नू को देखकर डर जाते हैं, इसलिए उसके घर उसे न आने दिया करे।

मनोज ने भी जब पहली बार मन्नू को देखा तो उसे कुछ अजीब-सा लगा था। उसने अपने आसपास या परिवार में इस तरह का बच्चा पहले कभी नहीं देखा था। कहने को तो मन्नू की उम्र तीस पार कर चुकी थी, लेकिन उसकी मानसिक उम्र डेढ़-दो साल से ज़्यादा नहीं थी।

मंजरी मनोज से बेहद प्यार करती थी और मनोज भी धीरे-धीरे उसे चाहने लगा था। मनोज को एक खूबसूरत लड़की की चाहत थी, लेकिन मंजरी को उस अर्थ में खूबसूरत नहीं कहा जा सकता था या कहिए कि मनोज के खूबसूरती के पैमाने में मंजरी फिट नहीं हो रही थी। मंजरी की सीरत ने उसकी सूरत को पीछे धकेल दिया। मनोज ने मंजरी के अन्दर की खूबसूरती को पहचाना और खुद को उसी के अनुरूप ढालने लगा। शुरू-शुरू में दोनों में अपनी ही बातें हुईं। बाद में परिवारों की चर्चा हुई तो मंजरी ने उसे बताया कि उसके घर में माँ, पिता और एक भाई है। माँ कुबड़ी है, पिता अन्धा और भाई मंगोलियन। इससे पहले मनोज ने मंगोलियन बच्चों के बारे में न कहीं सुना था, न पढ़ा और न ही उसने कोई मंगोलियन बच्चा देखा था। यह सब सुनकर मनोज कुछ सकते में आ गया। उस समय वह और भी सोच में पड़ गया जब मंजरी ने कहा कि-”मुझसे विवाह करने का अर्थ इन तीनों की देख-रेख भी है।” लव भी लव माई डॉग। तब तक मनोज मंजरी से विवाह करने का मन तो बना चुका था, लेकिन प्यार के साथ इतने दायित्व की कल्पना उसने नहीं की थी। अपने घर में भी मनोज पर दायित्व कौन से कम थे, लेकिन उसने मंजरी को उसके पूरे दायित्वों के साथ स्वीकार किया। इस स्वीकार करने के पीछे मनोज का मंजरी के प्रति प्रेम भी हो सकता है, कुछ आदर्श या चुनौतीपूर्ण कर दिखाने की कामना भी। हालाँकि मंजरी से प्रेम-सम्बन्ध बन जाने के बाद जब मनोज को पता चला कि उसके पिता के पास अच्छी-खासी जायदाद भी है तो सम्भव है कि इस बात ने मनोज को कुछ भी कर गुज़रने के लिए प्रेरित किया हो या कम से कम एक अतिरिक्त फैक्टर के रूप में या फिर कैटालिटिक एजेंट के रूप में इस तथ्य ने निर्णय लेने में सुविधा और त्वरा ला दी हो। मनोज एक अति साधारण परिवार से था, जिसके पास ज़मीन-जायदाद तो क्या, गुज़र-बसर करने के लिए भी काफी धन नहीं होता था। मनोज अब चाहे कुछ भी कहे, लेकिन उसके मित्र एवं रिश्तेदार तो इतना ही मानते थे कि जायदाद के लालच में ही मनोज ने मंजरी से विवाह किया है।

विवाह तक, विवाह के कुछ समय बाद तक भी मनोज मंजरी के दायित्वों को सँभालता रहा। बखूबी। लेकिन धीरे-धीरे मंजरी के माता-पिता की अपेक्षाएँ बढ़ने लगीं। वो उन्हें जितनी पूरी करता, उतनी ही वे और बढ़ जातीं। अपेक्षाओं एवं अपेक्षाओं को पूरा करने की क्षमता में एक द्वन्द्व होने लगा। द्वन्द्व सम्बन्धों तक फैला और सम्बन्धों में दरारें पड़ने लगीं।

अक्सर ऐसा देखने में आता है कि सम्बन्धों में तनाव हो तो छोटी-छोटी सी बातों को भी इतना तूल दिया जाता है कि दरकते हुए सम्बन्ध टूटने की कगार पर पहुँच जाते हैं। दिखने-सुनने में मामूली-सी लगने वाली बातें ही अब मनोज और मंजरी को बहुत बड़ी लगने लगीं। शादी से पहले दोनों ने एक-दूसरे से वायदा किया था कि वे दोनों एक-दूसरे के दायित्वों को मिलकर पूरा करेंगे। मंजरी ने ऐसी कोशिश न की हो, ऐसा मनोज का मन नहीं मानता था, लेकिन उसे कहीं यह ज़रूर लगता था कि कहीं न कहीं मंजरी से चूक ज़रूर हुई है। मंजरी इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं थी, लेकिन मनोज इसे सच मानने की सीमा तक पहुँच गया और वह कई बार मंजरी को इस बात का ताना भी देने लगा। ऐसे में मंजरी रो देती और मनोज न चाहते हुए भी वह सब करता जो मंजरी चाहती थी। मनोज ऐसा क्यों करता? उसने कई बार अपने मन की परतों के नीचे उतरना चाहा, उतरा भी, लेकिन कोई साफ जवाब उसे हाथ न लगा। क्या वह मंजरी को अभी भी इतना प्यार करता था कि उसके आँसू झेल न पाता? क्या वह विवाह से पूर्व दिये गये वचन के प्रति प्रतिबद्ध था? वह प्रतिबद्धता मंजरी के प्रति कम और अपने प्रति ज़्यादा थी या फिर कहीं एक महीन-सा डर था उसके मन में कि सम्बन्धों के टूटने और बिखरने की स्थिति में वह मंजरी को मिलने वाली जायदाद से महरूम हो सकता था! मनोज कई सिरों से खुद को टटोलता, पहचानने की कोशिश करता, पर कभी भी कोई निश्चित जवाब उसे नहीं मिला।

मंजरी के माता-पिता के हालात पहले ही बिगड़े हुए थे, सेहत गिरने के कारण स्थिति और भी खराब हो गयी। सो एक दिन मंजरी और मनोज ने मंजरी के पिता के घर पर ही रहने का फैसला कर लिया। मनोज को थोड़ा अटपटा तो लगा कि वह एक ‘घर जवाई’ के रूप में जाना जायेगा और उसके परिवार तथा आसपास के लोगों में हँसी भी होगी, पर मनोज के पास पर्याप्त कारण थे वहाँ जाने के। वह उनके लिए जा रहा है, अपने लिए नहीं। और कौन-सा वह ससुराल की कमाई पर ज़िन्दगी बसर करेगा। सुन तो उसने भी रखा था कि ‘बहन के घर भाई कुत्ता और ससुर के घर जवाईं कुत्ता’ पर उसने इस कहावत की चिन्ता नहीं की। उसके मन में मंजरी के अन्धे पिता, कुबड़ी माँ और मंगोलियन भाई के प्रति एक करुणा का भाव जमा हुआ था।

बीमार एवं पीड़ित से दूर रहकर जो करुणा भाव उनके प्रति मन में रहता है, वही भाव उनके साथ रहने पर धीरे-धीरे कैसे क्षरित होने लगता है और करुणा घृणा में बदलने लगती है, इसका एहसास मनोज को उनके साथ रहने के बाद ही हुआ। दूर रहकर जो बात नहीं दिखती या फिर दिखती भी है तो बड़ी मामूली लगती है, वही बात साथ रहने पर कष्ट देने लगती है। मिसाल के तौर पर मंजरी का पिता जहाँ चाहता, घर में थूक देता, उसे कोई टोक नहीं सकता। सर्दियों में धूप का टुकड़ा मिलेगा तो उसे, गर्मियों में छाँव मिलेगी तो पहले उसे। बहुत अच्छा मनोज उसके लिए बहुत बुरा बनने लगा। हालाँकि ज़रूरत के वक्त सामने मनोज ही खड़ा दिखता। मंजरी का पिता बीमार रहता ही था। उसे अस्पताल ले जायेगा तो मनोज, मन्नू के साथ उसके खराब कान दिखाने डॉक्टर के पास जायेगा तो मनोज, मंजरी के नाना के या दादा के खानदान में किसी की मृत्यु हो जायेगी तो भुगतेगा मनोज। मनोज यह सब करेगा, लेकिन फिर भी उसे अपने ससुर के मन में प्यार की जगह नहीं मिलेगी। प्रशंसा होगी तो सतही और फिर उसकी तुलना किसी ऐसे व्यक्ति से की जायेगी, जिसे मनोज जानता भी न होगा और कहा जायेगा कि फलाँ व्यक्ति की तो बात ही निराली है। उसमें कितना सेवा भाव है। मनोज में भी है, लेकिन...बस, लेकिन के साथ बहुत कुछ जुड़ता चला जाता है। मनोज के इतना सब करने के बावजूद अगर कभी मनोज बीमार पड़ जाता है तो उसका हालचाल पूछने के लिए उसके ससुर का कई बार दो कदम चलना भी मुश्किल हो जाता है। इतना सब भी पी जाता मनोज। किसके लिए? इसका एहसास अगर किसी को था तो सिर्फ मंजरी को, और यही एहसास मनोज को वहाँ से बाहर नहीं निकलने देता था। मंजरी कई बार कहती-”छोड़ देते हैं यह घर। पहले भी तो किराए पर रहते थे, अब भी रह लेंगे।” मनोज जवाब देता-”यहाँ भी कौन-सा मुफ़्त में रह रहे हैं मंजरी! बिजली के बिल, पानी के बिल, हाउस टैक्स के बिल, सभी हम ही तो देते हैं और इस पुराने घर का रख-रखाव, वो भी तो हमारे ज़िम्मे है। बाकी रही बात जाने की तो, जब चाहो चलो, पर यह सोच लो, दूर रहकर भी यह सब हमें ही करना है और पास रहकर भी...।” इस बात का मंजरी के पास कोई जवाब नहीं होता। तनाव रहता, झगड़े भी होते, पर मनोज को कोई विकल्प न सूझता। दो बार तो ऐसे अवसर भी आये जब मनोज ने घर बदलने का अन्तिम निर्णय कर लिया। इतना ही नहीं, मकान देखकर किराया भी एडवांस दे दिया और जब इसकी सूचना उसने मंजरी के पिता को दी तो वह सकते में आ गया। उसने ‘कोई परवाह नहीं’ का अन्दाज़ भी दिखाया। कोई परवाह नहीं वाले अन्दाज़ में भी शायद एक अन्धे व्यक्ति की मानसिकता काम कर रही थी। मनोज समझता था कि उनका उसके और मंजरी के सिवाय और कोई नहीं, लेकिन वे ही हालात ऐसे पैदा कर देते कि बस...कभी-कभी तो मनोज को मन्नू ही इतना महत्वपूर्ण लगने लगता, कि बस...। मन्नू की हरकतें भी तनाव पैदा करतीं। वह तनाव मन्नू की वहज से कम, मन्नू की माँ की वजह से अधिक होता। मनोज जानता था कि मन्नू मानसिक रूप से बाधित है। अपनी समझ के मुताबिक कुछ उलटा-पुलटा करेगा, लेकिन उसके उलटे-पुलटे को शह देने वाले उसके माता-पिता थे। वही मन्नू जब मनोज या मंजरी के साथ अकेला होता तो उसके व्यवहार में ज़मीन-आसमान का अन्तर आ जाता। तब वह अपने माता-पिता की उपस्थिति में अलग व्यवहार क्यों करने लगता है!

ज्यों-ज्यों मकान बदलने का समय करीब आता गया, उनके सम्बन्धों में एक गहरी चुप्पी घिरने लगी। उस चुप्पी को कभी-कभी मंजरी के पिता का कोई व्यंग्य-बाण तोड़ देता। मनोज ने एकदम खामोश रहने का संकल्प ले लिया था। उसे मालूम था कि उसके वहाँ से चले जाने के बाद उसकी कीमत का एहसास उन्हें होगा। अन्ततः चले जाने का दिन भी आ गया और उसी दिन सुबह मंजरी के पिता एवं माँ मनोज के कमरे में आ गये।

“आपने जाने का पक्का फैसला कर लिया है?” मंजरी के पिता ने पूछा।

“जी...!”

“एक बार फिर विचार कर लेते।” इस बार मंजरी की माँ ने कहा। मनोज एकदम हैरान। क्या पिछले दिन मंजरी से उन लोगों की कोई बात हुई है या उन्हें ही हक़ीक़त बिल्कुल सामने पाकर डर लगने लगा है। कौन आदमी किस मुक़ाम पर आकर टूटता है, इसकी पूर्व-घोषणा न कोई बड़े से बड़ा मनोविश्लेषक कर सकता है, न कोई नजूमी।

“पर हमें तो आज जाना है। मैंने कल टैम्पो भी बुक कर लिया है।”

“देख लीजिए।” टूटने के बावजूद भी मंजरी के पिता के स्वर में एक अस्पष्ट-सी ऐंठन अभी भी झलक रही थी।

“अब देखने को बचा ही क्या है!” मंजरी ने कहा।

“हाँ, यह रोज़-रोज़ का तनाव मुझसे बर्दाश्त नहीं होता।” मनोज ने कहा।

“क्या...! किस बात की तक़लीफ है?”

अब मनोज क्या कहे। किस बात की तक़लीफ नहीं। वह जब भी पढ़ने बैठने लगता है तो अन्धे की लाठी की खट-खट डिस्टर्ब करने लगती है। उनके खाने का वक़्त है तो उसी वक़्त उन्हें थूकना है, उसे सोना है तो उन्होंने ज़ोर-ज़ोर से रेडियो सुनना है, रेडियो बन्द हो तो पति-पत्नी दूर-दूर से चिल्ला-चिल्लाकर बात करेंगे। मन्नू को गोलियाँ देना तो आम-सी बात थी। लेकिन यह भी कोई तक़लीफ है भला। मनोज और मंजरी के पिता की असली तक़लीफ यह थी कि वे एक-दूसरे को नापसन्द करते थे, फिर भी एक-दूसरे को झेलने के लिए अभिशप्त। होता है यही ज़िंदगी में। जब कोई किसी भी वजह से नापसन्द करने लगता है तो उसकी कोई भी बात अच्छी नहीं लगती, मामूली से मामूली क्रिया भी जीवन में बड़ा तूफान लाती हुई दिखने लगती है। मनोज तो यह समझता था, शायद मंजरी भी...लेकिन वे तीनों?

बातों में थोड़ा तुर्शी आने लगी थी। मंजरी की बातों में ख़ासतौर पर तैश था। मन्नू एक कोने में खड़ा यह सब सुन रहा था, देख रहा था। उसे कितना समझ आ रहा था...नहीं मालूम...। लेकिन उसने इतना ज़रूर समझ लिया कि मनोज और मंजरी उस घर से जा रहे हैं। बातों-बातों में मंजरी की माँ भावुक हो गयी, रोने लगी-”आपके सिवा इस दुनिया में कौन है हमारा!”

“हाँ”, एक बनावटी सी भावुकता से मंजरी के पिता ने भी कहा।

मंजरी भी भावुक हो गयी और मन्नू जहाँ खड़ा था, वहीं गिर गया।

सभी उसी ओर लपके। वह बेहोश हो गया था। उसका पाजामा आगे-पीछे से गन्दा हो गया था। उसे जल्दी से उठाया, बिस्तर पर लिटाया, हिलाया तो उसे कुछ होश आया और वह अपनी टूटी फूटी भाषा में हाथ जोड़कर कहने लगा-”नहीं, मंजी...ना...भापा जी...न...।” फिर वह छत की ओर देखने लगा।

सब लोग परेशान हो गये। ऐसा नहीं कि मन्नू के साथ ऐसा पहली बार हुआ था। वह जब भी इमोशनली डिस्टर्ब हो जाता, ऐसा ही कुछ होता। शायद सबसे ज़्यादा असुरक्षा का भाव उसमें

था। उसमें एक जानवर की-सी भावुकता थी जिसे वह बता नहीं सकता था। प्रकृति ही उसके माध्यम से अपना खेल खेलती थी। उसे यह विश्वास दिलाना ज़रूरी था कि मनोज और मंजरी उसे छोड़कर कहीं नहीं जा रहे। यह भी सम्भव है कि इस खेल में सभी यही चाह रहे थे कि यथास्थिति तो बनी रहे, लेकिन किसी की भी मानहानि न हो। शायद मन्नू के माध्यम से यह रास्ता निकल आया था।

मनोज पेशे से इंजीनियर था, पढ़ने-लिखने का शौक उसे आम लोगों से ज़्यादा था, इसलिए सम्भवतः वह आम लोगों से ज़्यादा संवेदनशील भी था। उसने वहाँ से जाना तो मुल्तवी कर दिया, लेकिन मन में यह तय किया कि उसे अब अगर वहाँ रहना है तो सिर्फ मन्नू के लिए। मन्नू तो मासूम है। उसके माता-पिता की बदतमीज़ियों और बदसलूकियों की सज़ा भला मन्नू को क्यों दी जाये। अब भले ही अग्रिम दिया गया किराया ज़ब्त हो जाये और टैम्पो वाले को भी भाड़ा देना पड़े, पर वह मन्नू को इस हालत में छोड़कर नहीं जायेगा। उसने यह भी तय किया कि अब वह मन्नू की अतिरिक्त देखभाल करेगा और जो भी खालीपन वह महसूस करता है, उसे भरेगा।

ज़िंदगी भला कभी सीधी चलती है! कभी टेढ़ी-मेढ़ी, कभी चक्करदार, कभी ऊपर-नीचे। मनोज ने मन में भले ही संकल्प ले लिया था कि वह मन्नू की अतिरिक्त देखभाल करेगा, लेकिन ऐसा करना भी पूरी तरह से उसके हाथ में नहीं था। मंजरी की माँ को यह विश्वास ही नहीं होता था कि मन्नू की देखभाल उससे बेहतर कोई भी कर सकता है। हालाँकि मनोज की राय थी कि मन्नू को जीवन के लिए जिस तरह से तैयार किया जाना ज़रूरी था, वैसा नहीं किया गया, लेकिन उसकी इस बात से न मंजरी की माँ सहमत थी, न पिता। मनोज की कोशिशों का असर कई बार विपरीत होता, वह मन्नू को जो सिखाना चाहता, मंजरी की माँ को वह सब अनावश्यक लगता।

अजीब से हालत में रह रहे थे वे सभी। सभी कोशिश करते कि तनाव न हो, लेकिन तनाव फिर भी रहता। पहले से बढ़ता जाता। मनोज को लगने लगा था कि मंजरी के माता-पिता उसकी नर्व्स पर बैठे हैं। उसे अब हाई ब्लड प्रेशर भी रहने लगा था। उसने कई बार दरवाज़े की तलाश की, लेकिन उसे हर दरवाज़ा बन्द मिलता। कभी-कभी किसी खिड़की या झरोखे से ताज़ा हवा का झोंका आ जाता तो उसे बड़ा अच्छा लगता। मनोज का स्थितियों पर कोई वश नहीं था। बेबसी के आलम में वह धीरे-धीरे अन्दर से खुद ही टूटने लगा था। टूटन का एहसास उसे घेरने लगा। वह बार-बार मुक्ति की राह खोजता, लेकिन...नहीं, मुक्ति की राह के सामने मंजरी थी, माँ थी, पिता था, मन्नू था। क्या करे मनोज! क्या एक-एक करके तीनों को खत्म कर दे या फिर तीनों से ही एकदम मुक्ति पा ले। नहीं, ऐसा सोचना अमानवीय है। तो ठीक है, वह बना रहे मानवीय और तिल-तिल करके टूटता रहे। कई बार तो उसे लगता कि तीन गिद्ध हैं जो बोटी-बोटी करके उसका मांस नोच रहे हैं और वह न चाहते हुए भी नुचवा रहा है मांस। क्यों? मंजरी के लिए! मन्नू के प्रति बची हुई करुणा के लिए या जायदाद के लिए!

ऐसे में मनोज दार्शनिक होने की कोशिश करता। लेकिन दर्शन भी तो दूसरों के लिए होता है। व्यक्ति जब स्वयं भट्ठी में जल रहा हो, तो कोई दर्शन काम नहीं आता।

मनोज ने नाव को लगभग खुले समुद्र में छोड़ दिया था। एक थपेड़ा इधर से तो नाव उधर, एक थपेड़ा उधर से तो नाव इधर। कभी लहरों के संग बहुत ऊपर तो कभी लहरों पर सवार बहुत नीचे।

ऐसे ही थपेड़े मन्नू को भी पड़ने लगे थे। वह पहले से भी ज़्यादा भावुक हो गया था। तनाव का माहौल देखते ही वह गिर जाता। डॉक्टर को दिखाया तो डॉक्टर ने यह कह दिया कि ऐसे बच्चों के साथ यह बहुत स्वाभाविक है। पर मनोज देख रहा था कि मन्नू अब उदास रहने लगा था। उसे खाने का बेहद शौक था, लेकिन अब वह कई बार खाने से भी मना कर देता। मंजरी की माँ परेशान होती। पिता को कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता। मनोज को यह देखकर कोई हैरानी नहीं होती। उसे याद है कि अपने पिता के निधन की ख़बर सुनने के बाद उन्होंने अपने निश्चित समय पर मंजरी से कह दिया-‘मेरा खाना लगा दो’। यह बात उसे मंजरी ने ही बताई थी। मनोज ने कहा था-‘ऐसा या तो सन्त कर सकता है या परले दर्जे का स्वार्थी’। मनोज कभी डाँटकर मन्नू को समझाने की कोशिश करता तो उसकी माँ कह देती-”ऐसा मत कहो, करोड़ों की जायदाद का अकेला वारिस है।” यह बात मनोज और मंजरी को तेज़ नश्तर-सी लगती। मनोज तो अन्दर ही अन्दर तक लहूलुहान हो जाता। मंजरी ज़रूर कह देती-”तो बुला लो न जिसे भी बुलाना हो, वही करेगा इसकी देखभाल, वही सँभालेगा जायदाद भी, हमें कुछ नहीं चाहिए।”

मनोज के नश्तर से छिले जिस्म पर जैसे मरहम-सी लगती। और वह फिर नाव को समुद्र में ही छोड़ देता।

अचानक एक रात मन्नू को तेज़ बुखार आ गया। अगले दिन दवा दी गयी। ठीक हो गया। लेकिन उसे बुखार और पेट दर्द की शिकायत रहने लगी। सभी टेस्ट हुए। पता चला कि उसके पेट में कुछ अतिरिक्त ग्रोथ हो चुकी है। इलाज...दवाएँ...इलाज! ऑपरेशन! परिणाम! कोई नहीं जानता, डॉक्टर भी नहीं।

इलाज शुरू तो एक नर्सिंग होम में हुआ, लेकिन धीरे-धीरे घर तक ही सिमट गया। मन्नू को डॉक्टर अक्सर घर में ही देख जाया करता था। अचानक डॉक्टर को बाहर जाना पड़ा। कुछ दवाएँ, कुछ हिदायतें डॉक्टर ने दीं।

मन्नू की तबियत तेज़ी से बिगड़ने लगी। उसे जगह-जगह कौन ले जाये। माँ! पिता! नहीं। तो? मंजरी और मनोज! मनोज ने डॉक्टर से पूछा था कि आखिर मन्नू को रोग क्या है? डॉक्टर ने कहा-”इलाज कर रहे हैं।” मनोज का अनुमान था कि मन्नू के पेट में कैंसर्स ग्रोथ है। बाद में डॉक्टर ने भी उसे सब बता दिया। इस रोग के लिए ऐसे बच्चों का इलाज सम्भव है या नहीं? है तो कहाँ? खर्च कितना होगा? वक़्त कितना लगेगा? और फिर परिणाम...मंजरी के पिता ने कहा था-”मैं अपनी सारी प्रॉपर्टी बेच दूँगा, लेकिन मन्नू बचना चाहिए।” मनोज को पहली बार मंजरी के पिता के अन्दर ‘एक पिता’ बैठा नज़र आया था। तय हुआ कि जैसे भी मन्नू का इलाज करवाया जाये, खर्चा चाहे जितना भी हो। अगले रोज़ उसे ले जाना था। मनोज का मानना था कि यह रोग लाइलाज है। इलाज करना है तो अपनी कॉन्शस साफ रखने के लिए। रात को अचानक मन्नू की तबियत ज़्यादा बिगड़ गयी। उसके अन्दर का कैंसर फट गया था। नीचे से खून निकलने लगा था। मनोज ने देखा कि मन्नू का खून काफी निकल चुका था। उसे साँस लेने में भी तक़लीफ हो रही है। उसे सचमुच लगा कि मन्नू को इस समय सबसे ज़्यादा टॉर्चर हो रहा है। वह क्या करे...! कुछ पल वह सोचता रहा। मंजरी के पिता ने कहा-”जल्दी डॉक्टर को बुलाओ या इसे अस्पताल ले जाओ।” मनोज ने इधर-उधर फोन घुमाए। मनोज ने मंजरी से कहा-”देखो, डॉक्टर तो आ जायेगा, लेकिन वह सिवाय इसका टॉर्चर बढ़ाने के और कुछ नहीं कर सकता...बोलो, क्या करना है?” मंजरी ने मनोज के हाथ पर अपना हाथ रख दिया। तभी दूसरे कमरे से मंजरी की माँ चिल्लाई-”मंजरी! जल्दी आ...!” मंजरी और मनोज जल्दी से उस कमरे में गये। मन्नू की साँस पहले से भी तेज़ चल रही थी। तभी उसके मुँह से खून की धार निकली, और अगले ही पल उसकी गर्दन एक ओर लुढ़क गयी।

“मुक्ति हुई बेचारे की’, मनोज ने मंजरी से कहा। उसी क्षण मनोज की आन्तरिक तहों को चीरता हुआ एक सवाल भी उछला-‘मुक्ति मन्नू की हुई थी या उसकी?”