मुक्ति / राजेन्द्र वर्मा
शीतला बचपन से ही मुसीबतें झेल रहे थे। जन्मते ही माँ चल बसी. जन्म से छह महीने पहले पिता सन्यासी हो चुके थे। घर के नाम पर गाँव में दो कच्ची कोठरियाँ। जमीन-जायदाद के नाम पर पाँच बीघे का एक खेत। पड़ोस की निःसंतान विधवा ब्राह्मणी ने उन्हें पाला-पोसा। ...दो बरस के हुए थे कि शीतला माता ने वह आशीर्वाद दिया कि बदले में बायीं आँख छीन ली। ब्राह्मणी को फिर भी तसल्ली थी, 'माता ने बचवा के परान बचाय दिये!'
साल भर के हुए, तो लोग उनको 'सीतला' कहने लगे। उनके नाम को लेकर किसी को क्या आपत्ति होती? ठीक-ठाक ही था पूरा नाम-'पंडित शीतला प्रसाद मिश्र' , लेकिन अनाथ होने के कारण 'सीतला' होकर रह गये। वैसे ही, जैसे चमरही के चिरौंजी, अमरीका या पुत्तन! इनके पूरे नाम कम लोग ही जानते थे, तत्सम तो शायद ही कोई जानता हो! मरते दम तक चिरौंजी खुद ही नहीं जान पाये कि उनका नाम चिरंजीवीप्रसाद था। यही हाल अम्बिकालाल का था जिनका नाम वोटर लिस्ट में 'अमरीका' चढ़ा हुआ था। 'पुत्तन' यों भी निरर्थक नाम था, भले-ही लिखने में उसे 'पुत्ती लाल' कर दिया जाए. ऐसे लोगों को उनके नाम रखने वाले पंडित का आभारी होना चाहिए, क्योंकि प्रायः निर्धन, अशिक्षित, असहाय और सहानुभूति के पात्र ये अपने नामों के माध्यम से असहायता टपका कर सहानुभूति बटोर सकते थे, भले-ही इस प्रक्रिया में वे उपहास के पात्र बन जाएँ।
चेचक के दाग़ से सजे चेहरे और शीतला के काले रंग को तो लोग 'करिया बाँभन, गोर चमार' कहकर बर्दाश्त कर लेते, लेकिन उनकी एक आँख न होना बर्दाश्त के बाहर था। गाँव वालों के लिए वे अपशकुन बन गये। ... सवेरे-सवेरे घर से बाहर निकलना दूभर हो गया। जिसके सामने पड़ जाते, वही मुँह घुमा लेता। मन-ही-मन गालियाँ देता। कभी-कभी गालियाँ बुदबुदाहट में भी होतीं। कुछ लोगों ने तो यहाँ तक कह दिया कि वे आख़िर सवेरे-सवेरे निकलते ही क्यों हैं? शौच के लिए निकलना है, तो मुँह-अँधेरे निकलें या फिर, दिन चढ़े!
चेहरे-मोहरे के तमाशे में शीतला का क्या कसूर, मगर दुनिया के पास इतनी अक्ल कहाँ? फिर भी उन्होंने दुनिया की परवाह करते हुए अपनी दिनचर्या में परिवर्तन कर लिया। ... असहायता मनुष्य को क्षमाशील बना ही देती है।
गाँव के जो लोग शीतला के प्रति सदय भाव, रखते थे, उनमें से एक स्त्री थी-रूपा देवी. वह भी एक आँख-वाली थी। रूपवती होने का प्रश्न ही न था, बात-व्यवहार में भी ख़ासी मर्दाना थी। इसलिए बदनाम थी। उसके बारे में यह मशहूर था कि उसने अपने पति को मरवा दिया था, क्योंकि वह रंडियों में दिलचस्पी रखता था और पत्नी, यानी उसे भी किसी के हाथों बेच देना चाहता था।
जाति से कहारिन और निःसंतान रूपा के तीन भाइयों में से दो को उसके पति तथा अन्य के मर्डर केस में आजीवन कारावास मिला था, जो अगले वर्ष पूरा हो जाना था। तीसरा भाई चौबीस-पचीस साल का बी.ए. तक शिक्षित सुदर्शन युवक था और रूपा के पास ही रहता था। नौकरी के लिए हाथ-पाँव मार जब वह थक गया, तो तत्कालीन प्रदेश सरकार वाली 'बहुजन समाजवादी पार्टी' का कार्यकर्ता बन गया।
रूपा की एक आँख जाने के पीछे दिलचस्प कहानी थी। ... एक रात डकैतों ने घर पर हमला किया जिसमें उसका पति भी शामिल था। छत पर डाकू इकट्ठे थे और-और आँगन से उतरकर घर में दाखिल होना चाहते थे। लेकिन उसने दिलेरी दिखाते हुए किसी भी डकैत को नीचे नहीं उतरने दिया। जैसे ही कोई डकैत आँगन की मुंडेर से पाँव लटकाता, वह बल्लम से उसका पैर बेंध देती। काफी देर तक यह खेल होता रहा। ... आखिर जब डकैतों की माँओं का दूध बेकार जाने लगा, तो उनमें से एक ने रूपा पर टॉर्च की तेज़ रौशनी फेंकी। जब वह चुँधिया गयी, तो दूसरे डकैत ने कट्टे से फ़ायर कर दिया। कुछ छर्रे उसकी आँख में धँस गये।
उसने अपनी दायी आँख ज़रूर गँवायी, लेकिन डकैतों को घर में नहीं घुसने दिया। कट्टे की आवाज से गाँव वाले जग गये और शोर-शराबा होने के कारण डकैतों को भागना पड़ा। पुलिस की पूछ-ताँछ, गाँव वालों के बयान और मौक़ा-मुआइने से रूपा की बहादुरी की प्रशंसा हुई. थानेदार ने उसे अपनी जेब से एक हज़ार का इनाम दिया। इस घटना से रूपा जवार में 'दबंग औरत' का दर्ज़ा पा गयी और 'बेचारी' बने रहने के अभिशाप से मुक्त हो गयी।
गाँव चाहे जितना अशिक्षा का शिकार हो, लेकिन दो-चार बौद्धिक वहाँ मिल ही जाते हैं। रूपा देवी के गाँव में भी ये बौद्धिक विद्यमान थे। वे रूपा को 'रुपिया' और शीतला को 'राजा साहब' कहते थे। शीतला और रूपा जब पास खड़े होते, ख़ास तौर पर रूपा जब शीतला के बायें होती, तो ये बौद्धक और गाँव के दो-चार मसखरों को इकट्ठा कर कहते, "कौन ससुर कहता है कि ई दूनौ काने हैं? द्याखौ, दूनौ-के-दूनौ, दुई-दुई आँखिन ते देखि रहे हैं। हाँ, आँखीं आपस मा दूरि ज़रूर हैं। ..."
फिर ठहाके लगते। इन ठहाकों को कोई रोकने वाला न था, क्योंकि इन्हें लगाने वालों को ग्रामप्रधान-सियाराम मिश्र सहित अनेक बड़े-बूढ़ों का भी आशीर्वाद प्राप्त था।
ठहाकों की गूँज शीतला और रूपा के कानों में शीशा घोल देती। दोनों दाँत पीसकर रह जाते। ... एक-दूसरे का दर्द समझते थे, पर चुप थे। रास्ते में कहीं मिल जाते, तो लगता कि दोनों एक-दूसरे से बहुत कुछ कहना चाहते हैं, पर बात अभी तक हाल-चाल लेने वाली सामान्य बातचीत से आगे न बढ़ सकी थी।
दोनों की आँखों में एकमेक होने का जो स्वप्न पल रहा था, पर वह अभी वाणी से बाहर आने की बाट जोह रहा था। ...उनकी आँखों के तरल भाव हाथों के माध्यम से क्रियान्वित होते-होते रह जाते। शीतला मन पर नियंत्रण न रख पाते। उनकी आँख से प्रेम छलकने लगता। ... रूपा की भी यही हालत थी। वह शीतला के मन की थाह लेती और आनन्दित होती। वह उनसे जितना प्रेम करती थी, उससे अधिक उनका सम्मान।
उनके प्रेम में वासना का तत्त्व थोड़ा-बहुत भले-ही था, तथापि प्रेम उसी पर केन्द्रित न था। परस्पर सहानुभूति थी और एक-दूसरे के मन को सहलाने का भाव था। स्त्री-पुरुष के मध्य उपजने वाला सहज यौनाकर्षण अभी तक मर्यादा में था। पति-पत्नी के अतिरिक्त स्त्री-पुरुष के आपसी सम्बन्धों की व्याख्या आसान नहीं, लेकिन गाँव के सयानों ने इस जटिलता को झटपट सुलझा लिया था-'खग जाने खग ही की भाषा।' इन सयानों की दृष्टि में दोनों के सम्बन्धों में खग और खग के बीच का सम्बन्ध ही दिखा, समाज की कुत्सित दृष्टि से मर्माहत पारस्परिक अन्तस्स्पर्श नहीं दिखा। घोर सामाजिक उपेक्षा के प्रत्युत्तर का पलता स्वप्न नहीं दिखा।
शीतला के पास पाँच बीघा भूमि थी, लेकिन करने वाले वे अकेले। आधी उपज तो जुताई-बुवाई, खाद-पानी और कटाई-मड़ाई में चली जाती। खाने-पीने को ही बचता। विवाह हुआ ही न था। नज़दीकी रिश्तेदारों में भी कोई नहीं। अपने ही हाथ खाना बनाना। कभी जब खेती की बुवाई-कटाई का सीज़न होता, तो रूपा दोपहर का खाना बना देती। पहले एक गोई बैल थे, बाद में एक ही बचा। एक भैंस भी थी, पर किसी ने उसे ज़हर दे दिया। आजकल नाँद सूनी है। शीतला कहते हैं-"चलो, अच्छा हुआ, कुछ जंजाल कम हुआ!" ... अब ट्रैक्टर से खेत जुतवाते हैं। बाकी काम मज़दूरी पर। साल-भर के खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने और कहीं आने-जाने भर का हो जाता है।
तन को पोसने का काम तो ज़मीन कर देती है, लेकिन मन का वे क्या करें? अपमान, तिरस्कार और अकेलापन—तीनों मिलकर शीतला को कभी-कभी आत्महत्या की ओर ठेलते हैं, पर मन के दर्पण में रूपा का चेहरा देखते ही उनकी जिजीविषा प्रबल हो उठती है। ... जीवन है, तो जीने का साधन ढूँढ़ना ही पड़ता है। वे प्रायः निश्चय करते हैं कि कल अवश्य ही रूपा से मन की बात कहेंगे, पर वह 'कल' अभी तक नहीं आया।
जवार में तीन-तीन राजनीतिक पार्टियाँ सक्रिय हैं। गाँव के एक-एक वोटर पर तीनों दाँत गड़ाये हुए हैं। 'बसपा' की तो आजकल सरकार ही है। विपक्षी-'समाजवादी पार्टी' जुगाड़ में है कि उसे अगले टर्म में, कैसे भी हो, सत्ता हथियानी ही है! विकास के बड़े-बड़े वादे कर रखे हैं उसने। 'भाजपा' का कमल अवश्य मुरझाया हुआ है, पर उसे आशा है कि गाँवके ब्राह्मणों और सवर्णो के हस्तक्षेप से वह शीघ्र-ही खिलेगा! गाँव के लोगों को यह पता है कि ये पार्टियाँ बातें चाहे जो करें, पर बनी एक-ही मिट्टी की हैं। इन तीनों की एक-ही नीति और चिन्ता है-कैसे जातिवादी समीकरणों को शक्तिशाली बनाकर सत्ता हथियायी जाए? जिस भी टोले में जाइए, नाभदान से अधिक राजनीति बजबजाती है।
शीतला को राजनीति में दिलचस्पी नहीं, मगर जब तालाब ही गन्दा हो, तो उसमें रहने वाले जीव कहाँ जाएँ? जब कोई विकल्प नहीं बचता, तो आदमी नरक में भी स्वर्ग खोजता है।
सजातीय जब बैरी हो जाए, तो विजातियों की बन आती है। शीतला के साथ कुछ ऐसा ही हुआ। 'भाजपा' समर्थक पंडित सियाराम मिश्र ग्राम प्रधान थे। उनका कुनबा काफी बड़ा था और दबंग भी। खुली जीप में सवार उनके तीन भाई बंदूक, तमंचा, करौली आदि लेकर खुले आम घूमते थे। इकनाली लाइसेंसी बंदूक भी थी, लेकिन वह केवल दीवाली या शादी-बारात में ही अपना जलवा दिखा पाती। चौथा भाई गाँव के प्राइमरी स्कूल का हेडमास्टर था। बड़ा बेटा, आदित्यशंकर मिश्र भाजपा का स्थानीय नेता था। इस बार वह जिलाध्यक्ष का उम्मीदवार था। दो बेटे अभी पढ़ाई कर रहे थे—एक एल-एल.बी. कर रहा था और दूसरा बी.टेक् की तैयारी। दोनों पढ़ने में अच्छे थे, इसलिए गाँव की राजनीति से दूर थे।
पाँच खेतों में फैली सौ बीघा उपजाऊ जमीन, एक भट्ठा और दशहरी आम के दो बागों के मालिक-सियाराम के द्वार पर दो मुर्रा भैंसे, एक जर्सी गाय और 'स्वराज' ट्रैक्टर शोभायमान थे। 'हार्वेस्टर' बुक कराया जा चुका था-कटाई के सीजन तक आ जायेगा। पाँचों खेतों में बोरिंग थी। तीन खेत नहर के पास ही थे, जिनमें सिंचाई की सुविधा तब भी मौजूद होती, जब नहर में पानी न के बराबर होता। माइनर की पटरी पर ट्रैक्टर लगाकर वे बलपूर्वक पानी निकाल लेते। पतरौल आँखें मूँदे रहता। गाँव वालों का भी मुँह बन्द रहता—'समरथ को नहिं दोस गुसाईं!' दबी जुबान से शीतला विरोध करते थे, पर उसे कोई 'नोटिस' न लेता था, घर के जो ठहरे! रूपा ज़रूर खुलकर विरोध करती थी, लेकिन माइनर की 'टेल' वाले गाँवों के असहयोग के चलते वह असहाय थी।
आस-पास के दस-बारह गाँवों में सियाराम का कोई जोड़ न था। दूसरी गाँवसभाओं के प्रधान भी उनसे थोड़ा-बहुत दबते थे। दूसरे शब्दों में वे अभी भी वहाँ के जमींदार थे, भले ही जमींदारी उन्मूलन देश की आज़ादी के दो ढाई साल बाद ही समाप्त हो गया था। इसका एक कारण यह भी था कि जमींदारी उन्मूलन से पूर्व उनके पिता इक्कीस गाँवों के ज़मीदार थे—दस गाँव आस-पास के और ग्यारह इधर-उधर के. ... पूरा-का-पूरा खानदान अभी भी खुद को ज़मींदार ही समझता था। ... दूसरों से बेगार लेना, मज़दूरी न देना, माँगने पर पिटाई कर देना, इज्ज़त लूटना, ग़रीब किसानों को ब्याज पर पैसा देना और बिना फ़सल कटे वसूली करना, न अदा करने पर पिटाई करना तथा दोगुनी राशि का प्रोनोट भरवा लेना, बैंकों और सहकारी समितियों की ओर अपने कर्ज़दारों को न जाने देना, ग्राम प्रधान के माध्यम से पूरी होने वाली सरकारी योजनाओं का धन डकार जाना, शिकायत होने पर तहसीलदार, एस.डी.एम., डी.एम., थानेदार आदि को विश्वास में लेकर शिकायत बन्द करवाकर शिकायतकर्ता की हड्डी-पसली एक कर देना-जैसे साधारण कार्य उनके व्यावसायिक कौशल का अंग थे। उनकी ये गतिविधियाँ हिन्दी कमर्शियल फ़िल्मों से प्रेरित थीं, या कि फ़िल्में स्वयं उनसे? तय करना कठिन था।
सियाराम के दूर के रिश्तेदार हाईकोर्ट में महाधिवक्ता थे। कहने को वे पुराने कांग्रेसी थे, परन्तु थे पक्के अवसरवादी! पुरखे कांग्रेसी थे, अगली पीढ़ी जनसंघी बन गयी। जब 'जनता पार्टी' बनी, तो वे जनता पार्टी के पदाधिकारी हो गये। इन्दिरा गांधी की हत्या होते ही, वे पुनः कांग्रेसी हो गये और राजीव गाँधी की हत्या के बाद भाजपाई हो गये। ... आजकल 'बसपा' में हैं।
'बसपा' ने जब से सर्वजन का मुखौटा लगाया है कांग्रेस, सपा और भाजपा-तीनों चारों खाने चित्त पड़ी हैं। कहने को तो बसपा दलितों की पार्टी है, लेकिन सवर्णों की ही पैठ उसमें अधिक है-ठीक वैसे ही, जैसे गाँवकी चमरही में भी ठाकुरों-बाँभनों की अधिक चलती है।
जब 'बसपा' बनी थी, तो उसका चुनाव निशान जंगली हाथी था, जो सूँढ उठाकर चिंघाडता था-"तिलक, तराजू और तलवार। इनको जूते मारो चार॥" लेकिन अब उसकी समझ में आ गया है कि अकेले दलितों द्वारा राज नहीं किया जा सकता, सवर्णों पर तो बिल्कुल नहीं! इसलिए हाथी अब 'नागरिक' हो गया है। माथे पर तिलक लगाये विनम्रता से सूढ़ लटकाकर संभाषण करने लगा है-"हाथी नहीं, गणेश है। ब्रह्मा-विष्णु-महेश है॥"
आज 'दलित' की परिभाषा बदल गयी है। दलित वह है, जो सत्ता से वंचित है। जैसे, एक कुत्ता, जो न भौंके, न काटे, चुपचाप कोने में पड़ा रहे। पार्टी का कैडर-परसन जब उसे एक लात मारता है, तब भी उसके मुँह से 'भौं' नहीं निकलती। ऐसा दलित ही सत्ता का सच्चा प्रार्थी है। जब वह ज़रूरी क़ीमत चुका देगा तो, 'प्रार्थी' से 'अधिकारी' बन जायेगा। वोट डालने के लिए अन्य दलित हैं ही, जिन्हें ब्रह्मा ने अपने पैरों से पैदा किया है। सत्ता के इस गणित को 'बसपा' जी-जान से पढ़ाने में लगी है।
इसी गणित के तहत सियाराम अपने बेटे को भाजपा का नहीं, बसपा का जिलाध्यक्ष बनाना चाहते हैं। वे कोमल कमल का फूल छोड़ मजबूत हाथी पकड़ना चाहते हैं। इसके लिए उन्हें रूपा और शीतला, दोनों को साधना होगा। रूपा का भाई भी बसपा की जिलाध्यक्षी का उम्मीदवार है।
सियाराम के बेटे-आदित्य और रूपा के भाई-रामअधार के बीच शीतयुद्ध छिड़ गया है। रामअधार के पास पिछड़े वर्ग और दलितों का समर्थन है, तो आदित्य के पास सवर्ण की शक्ति और सम्पन्नता का सम्बल।
ऊँची जातियों को बसपा में अधिक महत्त्व दिये जाने वाली बात अभी खुलकर नहीं की जा रही है, पर कार्यकर्ताओं से भला क्या छुपा है? अब तक जो इतिहास रहा है, वह दलितों को लाभ पहुँचाने तक का रहा है, लेकिन अब कैडर की 'अप्रोच' बदल गयी है। उसका कहना है कि देश को दलित प्रधानमंत्री चाहिये। इसके लिए 'बहुजन' के स्थान पर 'सर्वजन' को बिठाना पड़ेगा। राम अधार इसे 'फ्राड' कहता है, पर उसकी सुनता कौन है? लेकिन पिछले पाँच सालों में उसने पार्टी में जो प्राण फूँके हैं, उसे कोई कैसे नज़रअन्दाज कर सकता है? इस बार वह जिलाध्यक्षी का उम्मीदवार है। प्रदेश अध्यक्ष ने उसे 'रिकमेंड' भी किया है। देखिए, मैडमजी क्या डिसाइड करती हैं?
रूपा के पास भी का ख़ासी जायदाद है-पक्का मकान है, अस्सी बीघे की बढि़या खेती है, तीस बीघा खेत और खरीदने जा रही है। दोनों भाई जेल से छूट कर आने वाले हैं। घर में लाइसेंसी दुनाली है, द्वार पर ट्रैक्टर है, दो-दो दुधार भैंसें हैं। एक के खुटाने से पहले ही दूसरी उसकी जगह ले लेती है। मिलने-जुलने वालों की तादाद भी सियाराम के यहाँ आने-जाने वालों से कम नहीं।
राम अधार कहता है कि "दीदी, आप 'प्रधानी' क्यों नहीं लड़ती? गाँव तथा दोनों पुरवों के गैर-ब्राह्मण वोट तो आपको ही मिलेंगे। अगर दलित वोट कुछ कटेंगे, तो शीतला चाचा के कारण ब्राह्मण-वोट भी तो मिलेंगे।"
रूपा बात को हँसकर टाल देती है, पर उसके मन में जैसे कुछ उमड़ आया-'कहाँ निकलेगी घर-घर वोट माँगने। हाँ, दोनों आँखें होती तो शायद सोचती!'
रामअधार समझदार है, वह अनकहा भी सुन लेता है। वह बात बदल देता है।
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धान की फसल कट चुकी थी। गेहूँ की बुवाई के लिये शीतला को अपना खेत जुतवाना था। वह ट्रैक्टर के लिए रूपा के यहाँ जाना ही चाहते थे कि सियाराम उसके द्वार पर दल-बल के साथ आ धमके. चार चारपाइयाँ पड़ीं-दो घर से निकलीं, दो पड़ोस से आयीं। सभी लोग विराजे. शरबत-चबैना का इन्तजाम हुआ। हुक्का-तमाखू करते-करते एक-सवा घंटा समय बीत गया।
शीतला को मालूम था कि सियाराम क्यों आये हैं? वे चाहते हैं कि शीतला रूपा को मना लें-जिलाध्यक्षी में वह अपने भाई की उम्मीदवारी वापस ले ले। पर, शीतला इसके लिए तैयार नहीं। उनकी दृष्टि में राजनीति साँप-सीढ़ी का खेल है जिसमें उनकी कोई रुचि नहीं। जहाँ तक रूपा का सवाल है, वह उनके कहे में थोड़े ही है। हाँ, उनका लिहाज ज़रूर करती है, पर लिहाज तभी तक है, जब तक वे उससे कुछ माँग-जाँच नहीं करते। जिस दिन याचक बन जायेंगे, अपनी गरिमा खो देंगे। याचकता गहने से त्रिलोकपति विष्णु भी 'बावन' कहलाये। ... गरिमाविहीन मनुष्य क्या है? दो पाया जानवर!
चलते-चलते सियाराम ने पुनः अनुरोध किया। शीतला के आगे हाथ जोड़े। इस नाटक को सबने देखा, सराहा और शीतला से अपेक्षा की कि वे इस मिशन को आगे बढ़ायें ताकि ब्राह्मणों की खोयी ताक़त लौट सके. भगवान् परशुरामजी की जै!
सब लोग अभी गली में मुड़ भी न पाये थे कि एक आदमी दौड़ता हुआ आया और शीतला को सूचना दी कि उनका खेत पंडित जी, यानी सियाराम ने जुतवा दिया है और उन्हें जुताई देने की ज़रूरत भी नहीं है!
शीतला मन मार कर रह गये। गाली देने को मुँह खुला-का-खुला रह गया।
गाँव में बात बहुत जल्दी फैलती है, क्योंकि यहाँ दिमाग़ के खेत ख़ाली पड़े रहते हैं। सच्चाई हो या अफ़वाह, कोई भी घोड़ा उनमें सरपट दौड़ाया जा सकता है। शीतला के खेत जुतने की बात रूपा के कानों तक पहुँची। उसने शीतला को बुलवाने किसी को भेजा, पर वे पहले ही उसके यहाँ के लिए निकल चुके थे।
रूपा ने शीतला को देखते ही कहा, "सुना, सब बाभन एक हो रहे हैं? कल के दुश्मन सगे बन रहे हैं। क्या आप में भी दुश्मनों के प्रति प्रेम उमड़ रहा है?"
शीतला को रूपा से ऐसी बातों की उम्मीद न थी। सियाराम के प्रति दुराव भाव का तो वे स्वागत करते थे, पर ब्राह्मणत्व को ललकारा जाना उन्हें अच्छा न लगा। फिर भी, कुछ सोच चुप रहे। मन-ही-मन उबल रहे थे-' हाँ ठीक है, रूपा ने उन्हें प्रेम की दृष्टि से देखा है, तो उन्होंने भी उसे उसी दृष्टि से देखा है। तमाम मौक़े आये—अकेले में मिले, लेकिन उन्होंने कोई लाभ नहीं उठाया। अभिसार का आमंत्रण रूपा की ओर से ही रहा, पर उन्होंने पहल भी न की। एकाध बार तो रूपा ने उनका हाथ भी पकड़ लिया था, पर वे स्वयं ही अलग हो गये थे। ... रूपा स्वयं उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखती थी। उसका ऐसा व्यवहार उनके लिये अप्रत्याशित था। बिना किसी बात-चीत के, थोड़ी-ही देर में शीतला वहाँ से चले पड़े। रूपा ने भी रोकने का आग्रह नहीं किया।
शीतला के जाने के बाद रूपा ने मनोमंथन किया। उसे लगा कि उसने अनधिकार चेष्टा की है। शीतला के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाई है। यदि कोई किसी की अनुमति से ही उसका हित-अहित कर दे, तो भला सम्बन्धित व्यक्ति का क्या दोष है? दोष तो कर्ता का हुआ न!
कोई घंटे-भर बाद रूपा स्वयं शीतला के घर में थी। शीतला से उसने पहले ही क्षमा माँग ली थी। शीतला के मन का मैल छँट चुका था, परन्तु अभी भी संवादहीनता की स्थिति बनी हुई थी। दोनों एक-दूसरे को क्षण भर को देखते और अपने सिर झुका लेते।
देर से चुप बैठा रामअधार उकता गया, बोला, "चाचा! आप ब्राह्मण हैं और हम कश्यप। अब इसको लेकर झगड़ने से क्या होगा? अब हम एक हैं—न आप अगड़े और न हम पिछड़े! हम दोनों बहुजन हैं, सर्वजन हैं, हम दोनों बाबा साहेब के बताये रास्ते पर चलेंगे और समाज में जो भी दबे-कुचले लोग हैं, उन्हें ऊपर उठायेंगे और सही रास्ते पर चलायेंगे। ... जब तक हम जातिविहीन व्यवस्था नहीं बनायेंगे, यह समाज कोढ़ी-का-कोढ़ी ही रहेगा। क्या आप सामाजिक कोढ़ को नहीं मिटाना चाहते? ... सियाराम जैसे लोग ही इस समाज के कोढ़ हैं? क्या आप चाहते हैं कि हम अपनी आज़ादी खोकर फिर से 'शम्बूक' बन जायें। राजा राम से अपनी गर्दन कटवा लें और स्वर्ग में आरक्षण पा लें! चाचा, हमें आरक्षण नहीं, हक़ चाहिए!"
शीतला, राम अधार का मुँह ताकते रह गये। उसकी बात तो ठीक थी, लेकिन भगवान् राम को छोड़ बाबा साहेब को पकड़ने वाली बात उनके गले नहीं उतर रही थी। इससे पहले वे कुछ बोलते, रामअधार ने अपनी बात को आगे बढ़ाया-"आरक्षण तो अब सियाराम जैसे लोग चाह रहे हैं, क्योंकि उनका बेटा मेरे मुक़ाबले पिछड़ रहा है। उनको सत्ता में पहला हिस्सा चाहिए, जैसे अब तक भोज में पाते आये हैं, क्योंकि वे तो ब्रह्मा के मुख से पैदा हुए हैं। इसके लिए वे अगर साम, दाम, दण्ड, भेद अपनायेंगे, तो हम भी चुप नहीं बैठने वाले!"
ब्रह्मा के मुख वाली व्यंग्योक्ति से शीतला का धैर्य टूट गया। रूपा की ओर मुखातिब हो बोले, "देखो रूपा! राम अधार बहुत पढ़-लिख गया है। वह समाज और राजनीति का ज्ञाता हो गया है। यह अच्छी बात है, लेकिन उसे आदमी भी पढ़ना आना चाहिए. यह ठीक है कि हम ब्राह्मण हैं, पर इसमें हमारा कसूर क्या है? मैं मानता हूँ कि यदि कोई पिछड़ा या दलित हैं तो उसमें उसका कोई कसूर नहीं। यह अगड़ा-पिछड़ा-दलित, सब राजनीति का ही हिस्सा है। ... जिसके घर में खाने को नहीं, उसे रोटी देने वाला कोई नहीं, न अगड़ा, न पिछड़ा, न ही दलित! फिर, गाँव में कितने दलित अब सचमुच दलित हैं? उनमें भी तो ब्राह्मण होने की होड़ मची है। लखन मास्टर, सीताराम पतरौल, सतरोहन जाटव और शिवशंकर कांस्टेबिल को देखो! क्या वे सचमुच दलित हैं? सब-के-सब मोटरसाइकिल से चल रहे हैं। घरवालों के नाम सरकारी जमीन का पट्टा कराये हुए हैं। दूसरी तरफ, बनवारी लाला के लड़कों को देखो। दोनों एम.ए. किये बैठे हैं, लेकिन नौकरी का कोई ठिकाना है? चपरासीगिरी भी नहीं मिल रही। जहाँ जाते हैं, वहाँ आरक्षण का बैताल लटका हुआ है। मैं उनकी तरफ़दारी नहीं कर रहा, मगर पुरखों को अगर कोई फायदा मिला है, तो उसे बच्चों से तो मत छीनिए. बाप के पास कभी अगर मुफ्त की रोटी थी, तो क्या आज बच्चे के मुँह से निवाला छीन लेंगे? यह तो सरासर अन्याय है। अगर कुछ करना है तो यह करिए कि किसी को मुफ्त की न मिले।" कहते-कहते शीतला का चेहरा लाल हो गया।
राम अधार प्रतिकथन में कुछ कहना चाहता था, पर रूपा ने मामले की नज़ाकत को समझ उसे चुप रहने का संकेत किया और अपने साथ लेकर घर लौट आयी।
सियाराम को जब इन बातों का पता चला तो वे प्रसन्नता से खिल उठे। निशाना ठीक लगा था। ... अगले ही दिन वे शीतला के घर पधारे। हाल-चाल के बाद सीधे मतलब की बात पर आ गये, "शीतला! देखो, हम लोग हैं एकै खानदान के और तुम जानते ही हो कि बाँभन और कुकुर एकै जात के होते हैं। पहले एक-दूसरे पर भौंकेंगे, पर बाद को एक हो जावेंगे। आप उस कहारिन को तो जाइए भूल! समाज में कितनी बदनामी हो रही है हमारी, कुछ पता है? वैसे भी अभी आप उसे जाँघों-तले नहीं ले पाये। औरत को पहले जाँघों तले दबाइये, फिर देखिए, उसकी जमीन-जायदाद कैसे आपके कदमों में गिरती है। लेकिन आप तो ठहरे हरिश्चन्दर की औलाद! धर्मराज के औतार! 'रूपा जी, रूपा जी' कहते-फिरते हैं उस छिनाल को।"
सियाराम, शीतला से बड़े हैं। भाई का रिश्ता है। भले ही चचेरे हैं, लेकिन भाई, भाई होता है। समाज में उनका कितना मान-सम्मान है! ठीक है, थोड़ा भय दिखाते हैं, लेकिन तुलसी बाबा भी तो कह गये हैं-'भय बिनु होय न प्रीति!' शीतला के मन में उथल-पुथल होने लगी।
शीतला के मन की अस्थिरता भाँप सियाराम ने दाँव फेंका-"देखो भाई! हेड मास्टर कह रहा था कि उन्हें 'मिड-डे मील' के लिए एक आदमी की ज़रूरत है। पाँच सौ महीना देंगे। जो बनेगा, उसी में खाना भी हो जायेगा। आजकल साठ-सत्तर बच्चे हैं। आप कहो, तो हम उन्हें आप के लिए कह दें। हमको भी निश्चिंती रहेगी कि बच्चों के खाने-पीने का मामला है, कोई घर का ही आदमी है। ... कोई जल्दी नहीं, शाम तक सोचकर बता देना!"
अपना पासा फेंक सियाराम चलते बने।
शीतला बेचैन हो उठे। कल शाम, रूपा से जो बातचीत हुई थी, अभी वही किसी किनारे नहीं लगी, यह एक नयी मुसीबत! लेकिन इस मुसीबत में लक्ष्मीजी विराजमान है। लक्ष्मी का ध्यान आते ही शीतला की आँख बन्द हो गयी और वे जैसे ध्यानावस्था में चले गये। ... एक स्वप्न देख लिया—वे मिड-डे-मील के इंचार्ज हैं। ... रसोइया तहरी बना रहा है। बच्चे बार-बार पूछ रहे हैं-"खाना कब मिलेगा चाचा?" वे मुस्कुराकर शीघ्र ही मिलने का आश्वासन देते हैं। सूखा मुँह लिए बच्वे मुस्कुरा देते हैं। ... तहरी तैयार हो गयी। वे उसे परोस रहे हैं। थाली में तहरी पाकर हर बच्चा उन्हें धन्यवाद दे रहा है। कुछ बच्चों के माँ-बाप, जो अब दुनिया में नहीं हैं, उन्हें स्वर्ग से आशीष दे रहे हैं। ...अपनी एक आँख का कोटर छिपाने के लिए उन्होंने गमछा इस प्रकार से लपेटा है जैसे गलती से आँख छिप गयी हो। ... आदित्य का बेटा उन्हें काला चश्मा पहना देता है।
स्वप्न में चश्मा पहनते ही उनकी आँख खुल गयी। दरवाजे पर दृष्टि गयी—राम अधार खड़ा है। शीतला को बुलाने रूपा ने भेजा है। मन की उथल-पुथल गहराने लगी। आज ही निर्णय लेना है: रूपा का साथ दें या सियाराम का? आदित्य को बसपा का जिलाध्यक्ष बनवाने में मदद करें या, राम अधार को बन जाने दें? ... रूपा को लेकर उन्होंने जो सपना बुना है, उसे वे मूर्त रूप दे पाते हैं या नहीं? प्रेम की लाज रखते हैं या, मिड डे मील का इंचार्ज बनकर पाँच सौ महीना कमाते हैं?
'पाँच सौ महीना'—मन-ही-मन कहे गये ये तीन शब्द शीतला के कानों में अटक-से गये। मन में गणित-सी चल पड़ी-साल में छह हजार! पाँच साल में तीस हजार! तीस हज़ार रुपयों की कल्पना से उन्हें रोमांच हो आया।
रूपा का साथ उन्हें अच्छा तो लगता है, पर यह साथ-सम्बन्ध तभी मान्य होगा जब वे विवाह-बन्धन में बँध जाएँ! लेकिन विवाह को लेकर एक सवाल उन्हें परेशान कर रहा है: विवाह अगर सजातीय नहीं तो समाज उसे कब स्वीकारता है?
दुविधा की देहरी पर मन ठिठक गया, 'मान लो, विवाह कर लिया, तो क्या रूपा उनके घर आकर रहेगी? शायद नहीं! उन्हें ही रूपा के घर में रहना पड़ेगा। वह मेरी पत्नी नहीं, मैं उसका पति कहलाऊँगा। नहीं, नहीं, यह कैसे सम्भव होगा? किसी तरह यदि उसे अपने घर में रहने को राजी भी कर लिया, तो जब वह यहाँ रहेगी, तो उसके दबंग भाई भी यहीं डेरा जमाये रहेंगे। घर तो फिर भी' घर'न बन सकेगा, राजनीति का अखाड़ा बन जायेगा। ... रूपा ब्राह्मणी कहलायेगी? कहीं ऐसा न हो कि वे स्वयं कहार कहलाने लगें? स्वयं को' कहार' कहे जाने की आशंका मात्र से उनकी विवाह की इच्छा मर गयी। थोड़ी देर में आने को कह, शीतला ने राम अधार को वापस कर दिया।
भविष्य के अँधेरे से बचने के लिए वे अतीत के जुगनू तलाशने लगे। रूपा का अहसान वे भूले नहीं हैं जिसने उनके मन की व्यथा समझी और कुछ सीमा तक उसे बाँटा भी। मन को उससे जो अवलम्ब मिला है, वह अन्यत्र कहाँ? ...वे उस घर को भी नहीं भूले, जिसने उन्हें पाला-पोसा! पर, अब उस घर में कोई नहीं रहा। जिसने उन्हें पाला था-बाँझ थी, मर भी गयी। पति शहर कमाने गया था, लौटा ही नहीं। पता नहीं, जीवित भी है कि नहीं? कच्चा घर था, चार-पाँच बरसातों में ही भूड़ होकर ढह गया। पड़ोसियों ने उसे घूर बना लिया। ... सियाराम की आँख उसी घूरे पर है। किसी नौकर को उस पर बसाना चाहते हैं। ...घूरे वाली जमीन से उन्हें जैसे मोह हो आया। वे उसे सियाराम की नज़र से बचा लेना चाहते हैं। ... अचानक रूपा की याद आ गयी।
एक पलड़े में रूपा और दूसरे में धनलक्ष्मी। शीतला कोई पलड़ा नहीं छोड़ना चाहते। ... वे तराजू ही ले लेना चाहते हैं।
तीसरा पहर था। शीतला अन्यमनस्क थे। घर से निकल पड़े। किधर जाना है, पता नहीं। बस, चल पड़े। ... उन्हें स्वयं आश्चर्य हुआ कि वे कब और कैसे सियाराम के घर के सामने पहुँच गये!
सियाराम कहीं निकलने वाले थे। घर के बाहर ही मिल गये। सियाराम ने लपककर शीतला को बैठके में ले गये। बातें शुरू हुईं। थोड़ी देर में शरबत-चबेना आ गया। शीतला ने शरबत पिया। इधर-उधर की बातों के बाद उन्होंने 'हाँ' कह दिया। फिर वहाँ से चल पड़े। वे जैसे ही वहाँ से चले, उन्हें लगा कि उन्होंने जल्दबाजी की है, पर एक बार फिर से मामले पर ग़ौर करने के बाद पाया कि उन्होंने ठीक निर्णय लिया है।
आधे घंटे बाद वे रूपा के घर पहुँचे। रूपा ने औपचारिक स्वागत किया। उसे पता चल गया है कि शीतला सियाराम के हाथों परास्त हो चुके हैं। जाति, प्रेम से बड़ी हो ही गयी? राजनीति को कूटनीति का मुलम्मा बनते देर लगती है भला!
रूपा के मन में हाहाकार मचा है। शीतला को वह बहुत कुछ सुनाना चाहती है—कुछ सबके सामने, कुछ अकेले में, पर मुँह बन्द किये है। ...शिकायत वहाँ होती है, जहाँ प्रेम हो। प्रेम का पौधा जब नोक-झोक की हवा से लहराता है, तो वह अधिक पल्लवित होता है। लेकिन यहाँ तो प्रेम के पौधे को जाति की आँधी ने भूलंठित कर दिया। फिर, उसे राजनीति का पाला भी मार गया। अब उसका कोई भविष्य नहीं! मुरझाये हुए पौधे से माली को सहानुभूति भले हो, पर वह उससे चिपका नहीं रह सकता। जब उसे लगने लगता है कि पौधा पुनः नहीं हरियायेगा, वह उसे उखाड़ देता है।
रूपा चुप है। शीतला सामने बैठे हैं, पर वह जैसे अकेलेपन से घिरी हो। वह अपने-आप में खोयी है-'कोई शिकवा-गिला ही नहीं / वस्ल का सिलसिला ही नहीं।'
शीतला चुप्पी से डरने लगे। बोले, "रूपा! तुम्हीं बताओ मैं क्या करूँ? मैं तुम्हें भी नहीं छोड़ सकता और सियाराम को भी नहीं!"
रूपा ने शीतला को कुछ ऐसे देखा, जैसे उन्हें पहचानने का प्रयास कर रही हो। फिर ज़मीन को ओर देखने लगी, बोली कुछ नहीं। रामअधार ने कुछ कहना चाहा, पर उसने उसे संकेत से मना कर दिया। ... शीतला के मन में भी उथल-पुथल थी, पर रामअधार की उपस्थिति के चलते वे कुछ नहीं कह पाये। ... वातावरण जब बहुत उबाऊ हो गया, तो शीतला अपने घर के लिए निकल पड़े।
अगले दिन वे मिड-डे-मील के इंचार्ज बन गये। शाम को रूपा से मिलने गये। रूपा ने उन्हें देखकर अनदेखी करनी चाही, पर कर न सकी। हम वह कार्य प्रयत्नपूर्वक भी नहीं कर पाते, जो अन्तर्मन से नहीं चाहते। बातचीत प्रारम्भ हुई. शीतला ने अपनी ग़लती मानी, लेकिन रूपा का साथ निभाने की बात दुहरायी। रामअधार ने इसे समय के साथ चलने वाली रणनीति समझ स्वीकार कर लिया।
सियाराम ने इसे अन्यथा लिया, "अभी भी सरउ की खुजली नहीं मिटी है! पक्का इलाज करना पड़ेगा।"
चार-पाँच दिन बीते। जिलाध्यक्ष का नामांकन हुआ। रामअधार जिलाध्यक्ष बन गये। ... आदित्य जिला मुख्यालय से ही राजधानी चले गये। घर में ख़बर भिजवा दी, "वे विभीषण को पालें, मेघनाद की चिन्ता न करें।"
सियाराम कटकर रह गये।
आठ-दस दिन बीते। रामअधार की मोटर-साइकिल पर बैठे शीतला बाज़ार से वापस लौट रहे थे कि सामने से एक अनियंत्रित ट्रक ने उन्हें कुचल दिया।
शीतला की अंतिम साँसों में अटके "सियाराम तुमने ऐसा..." शब्दों को किसी ने नहीं सुना। रामअधार ने भी नहीं। वह भी खाई में बेहोश पड़ा था।
दुर्घटना की सूचना मिलने पर गाँव-वालों की मदद से दोनों को ज़िला अस्पताल ले जाया गया। राम आधार का इलाज शुरू हुआ। डॉक्टर के अनुसार, अभी भी ख़तरा टला नहीं था। शीतला की लाश पोस्टमार्टेम का इंतज़ार कर रही थी। तरह-तरह की बातें हो रही थीं।
रूपा खुलकर रो भी नहीं पा रही थी। ...