मुक्त-छन्द / जे.एच.आनन्द
यह एक यूनानी पुराण-कथा है। इसका रचनाकाल 800 वर्ष ई. पू. है। यूनानी पुराण-कथाएँ भी भारतीय पुराण-कथाओं की तरह जीवन के उच्चतम आध्यात्मिक मूल्यों के लिए संघर्ष करती रहीं। प्रस्तुत कहानी भी एक नारी के ऐसे ही मूल्यों के लिए संघर्ष की कहानी है।
टेंपे की घाटी में, जहाँ ओलिम्पस पर्वत श्रेणियों की तलहटी में पेनिओस नामक झरना बहता है, अनुपम सुन्दर कन्या दाफने अपना किशोर जीवन स्वच्छन्दता से व्यतीत कर रही थी। उसका यौवन उषा की तरह ताजा था। वह सूर्योदय की प्रथम किरणों का स्वागत करने के लिए उत्तुंग श्रृंगों पर चढ़ जाती, और जब तक भुवन भास्कर का रथ आकाश के दूसरे क्षितिज में डूबकर अस्त नहीं हो जाता, वह पश्चिम की पहाड़ियों को निहारती रहती थी। उसकी सखी-सहेलियाँ पुरुष-प्रेम के लिए उसे उकसाती थीं, उसे उत्प्रेरित करती थीं। पर दाफने उनकी उपेक्षा करती। वह इस ओर उदासीन थी, यद्यपि अनेक यूनानी तरुणों ने उसे अपनी अंकशायिनी बनाने का प्रस्ताव उसके सम्मुख रखा था।
एक दिन वह पौ फटने के पूर्व ओस्सा के ढाल पर खड़ी-खड़ी नीचे शस्य-श्यामल मैदान को निहार रही थी, कि अचानक उगते हुए सूर्य का प्रकाश उसके मुख पर पड़ा। स्वर्णिम आभा उसकी स्निग्ध त्वचा पर बिखर गयी। उसने अनुभव किया कि उसके सम्मुख एक तेजोमय व्यक्ति खड़ा है, जिसके शरीर से दसों दिशाओं में किरणें फूट रही हैं। दाफने ने उसे पहचान लिया। फीबस एपोलो (सूर्य) वह दाफने की ओर बढ़ा। उसने कहा, “ओ उषा की पुत्री! अन्ततः मैंने तुझे पा ही लिया! तूने दूसरे पुरुषों को अपनाने से इनकार कर दिया, पर तू मुझसे नहीं भाग सकती। मैं कब से तेरी कामना कर रहा था! आज मैं तुझे अपनी बनाऊँगा!” दाफने भयभीत नहीं हुई। उसका हृदय दुर्बल नहीं था। एपोलो की बात सुनकर उसका सुन्दर मुख लाल हो गया। क्रोध से उसके विशाल नेत्र भभक उठे। दाफने ने कहा, “न मैं पुरुष-प्रेम को जानती हूँ, और न विवाह-बन्धन को। मैं इन पहाड़ियों और झरनों में स्वच्छन्द जीवन-यापन करती हूँ, मुक्त विहार करती हूँ। मैं किसी को अपनी स्वतन्त्रता का अपहरण नहीं करने दूँगी।”
एपोलो का तेजस्वी मुख अपमान से काला पड़ गया। दाफने की स्पष्टोक्ति से उसकी काम-वासना तीव्र हो गयी। वह क्रोधोन्मत्त हो युवती कन्या दाफने को पकड़ने के लिए आगे बढ़ा पर दाफने वायु के पंखों पर बैठकर उड़ गयी, जैसे शरद में पत्ते उड़ते हैं। दाफने अपने यौवन की रक्षा के लिए पहाड़ी और झील, चट्टान और नदी को कूदती-फाँदती भाग रही थी। पर धीरे-धीरे उसकी शक्ति क्षीण होती जा रही थी। कामातुर एपोलो उसके निकट, और निकट आता जा रहा था। उसके भयंकर अट्टहास को वह अब सुन सकती थी। उसने अपने दोनों हाथ ओलिम्पस पहाड़ की ओर उठा कर रक्षा-देवी दिमीतर को सहायता के लिए पुकारा। पर दिमीतर ओलिम्पस पहाड़ से उसके पास नहीं आयी। उसका सिर चकराने लगा। पैर थकान से काँपने लगे। जब वह पेनिओस झरने के विशाल तट पर पहुँची, तब एपोलो की चौड़ी मुट्ठी में दाफने का उत्तरीय था। उसकी गर्म श्वास उसे अपने कनपटी पर अनुभव हुई। सहसा दाफने ने उच्च स्वर में पुकारकर कहा, “ओ पेनिओस पिता, अपनी पुत्री को स्वीकार कर।” और उसने झरने में छलाँग लगा दी। जल ऊपर उठा, और उसकी लहरों ने अपनी स्वच्छन्द सखी को अपने में समाहित कर लिया।