मुखाग्नि / ज्योत्सना राऊतराय / दिनेश कुमार माली
दोपहर का बादलों से घिरा आकाश एक गंभीर नीतिवान शिक्षक के चेहरे की तरह दिखाई दे रहा था। मानो एक बदमाश छात्र को सजा देने से पहले अपने विवेक के साथ युद्ध करने वाला एक सच्चा शिक्षक। बारिश नहीं हो रही है। मगर गर्जन हो रहा है। आज आलोक के आयोजन में मानो कंजूसी कर रहे थे विश्वनियंता। दूर से किसी अनजान पक्षी की करुण चीत्कार सुनाई दे रही है। शायद बादलों से ढके अंधेरे परिवेश में वह अपने घर का रास्ता नहीं खोज पा रही है।
पंडित पशुपति त्रिपाठी उनके बरामदे में चटाई डालकर चुपचाप बैठे आकाश और विश्वनियंता की विचित्रक्रीड़ा को देख रहे थे। तेज हवा के झोंके से सर के सफ़ेद बाल उड़कर उनके मुँह पर गिर रहे थे। बुरी तरह शरीर टूट रहा था, कभी भी, किसी भी दिन उन्होने अपनी उम्र का ख्याल नहीं किया था। लेकिन आज क्यों बैचेन लग रहे थे।
रास्ते में कुछ लोग और इक्का-दुक्का गाड़ी आ जा रही थी। मगर पशुपति का इस समय वस्तु जगत की किसी भी चीज पर ध्यान नहीं था। केवल प्रकृति के विचित्र खेल के अंदर मग्न हो गया था उनका मन।उद्देश्यहीन,लक्ष्यहीन भाव से मानो एक अलग दुनिया के भीतर विचरण कर रहे हो। कुछ भी सोचने का मन नहीं कर रहा था। यदि वे आसन पर पालकी मारकर बैठे होते,तो देखने वाले इस अवस्था को निश्चितरूप से कहते-“समाधि”।
बारिश होने लगी हैं। जोरदार बारिश ...दक्षिण आकाश में काले रंग के बादल इस तरह इकठ्ठे हो रहे हैं जैसे एक विशाल सेना के साथ आखेट पर निकले हो। समुद्र के निम्न वायुदाब के कारण स्थल-भाग की ओर से बारिश आ रही है।
भीतर से छिटकनी बंद करने की आवाज सुनाई दी। शायद पार्वती दरवाजा बंद करके आ रही है। पैरों की आवाज सुनाई दे रही है, मधुर,सुरीली। मन ही मन पंडित पशुपति त्रिपाठी भगवान की विचित्र-लीला देखकर हंसने लगे। उनके जैसे श्मशानवासी दरिद्र ब्राह्मण पशुपति के साथ बाँध दिया है शिव मंदिर के मुख्य पूजक की बेटी पार्वती आचार्य को। पशुपति श्मशानवासी नहीं तो और क्या? शहर के अंतिम छोर पर एक निर्जन श्मशान के पास उनकी दरिद्र कुटिया है। श्मशान-चंडी के पुजारी है वे। बीच-बीच में कुछ-कुछ शववाहक भी आते है,शव-संस्कार-विधि कराने के लिए। पशुपति को आवाज देते है। इसलिए वे पशुपति अर्थात शिव और उनकी पत्नी पार्वती। कितना यथार्थ संयोग !
पार्वती पीछे का दरवाजा बंद कर आ गई। पशुपति के पास चटाई पर आकर बैठ गई। पशुपति ने पार्वती की ओर देखा। कितने साल बीत गए इस बीच। 14 साल की अनूठी किशोरी से शादी की थी 24 साल के एक हट्टेकट्टे युवक ने। वर्तमान में पशुपति 64 और पार्वती 54 की।
आह! कितने साल......और पार्वती की तरफ़ देखने लगे। लंबा गोरा शरीर, सुंदर कोमल चेहेरा उम्र और समय की निष्ठुर मार से विवर्ण मलिन हो गया था। एक फेंके हुए पूजा फूल की तरह। सिर में सिन्दूर का टीका, मैले-कुचेले कपड़े वाली साड़ी का घूँघट ललाट तक आ गया था। लेकिन अभाव का कषाघात उसके चेहरे को छू नहीं पाया था। कितना ममतामई पार्वती का चेहरा ! कितना स्नेहशील.....
मन में तरह-तरह के आंदोलन होने पर भी वह पहले की तरह स्थिर। बारिश शुरू हो गई है। बारिश की बूंदे चटाई को छू रही है, पशुपति और पार्वती को भी।
धीरे स्वर में पार्वती बोली, “सुन रहे हो, अभी तक लड़का नहीं आया है। क्या हुआ पता नहीं। मन बहुत व्यस्त हो रहा है। सुबह से नहीं खाया है।”
बहुत पुराने दिन के घाव पर चोट लगने जैसे कष्ट हुआ पशुपति को। बहुत कष्ट के साथ एक लंबी सांस को रोका। पार्वती ने फिर से कहा, घर में कुछ भी नहीं था। चावल और कांजी की सब्जी बना दी थी।
एक दो आलू पड़े हुए थे, सूर्य के लिए भून दिए हैं। आपने भी सुबह से केवल मूढ़ी ही खाई है। सूर्य का इंतजार करने से क्या होगा? वह तो लेट ही आएगा। मैं उसकी प्रतीक्षा करती हूँ। चलिए,आप खाना खा लीजिए।
इतने गहरे दुख में भी प्रसन्न हो गए पशुपति। कितना अद्भुत है इस नारी का मन। सूर्य.... उसके बेटे ने सुबह से कुछ नहीं खाया है,कहकर पहले दुखी हो रही थी,फिर अपने पति से कह रही है, “आप खा लो,मैं हूँ न बेटे के लिए।”
तेज बारिश नहीं थी, केवल रिमझिम संगीत के साथ धरती पर कई जलधाराएँ फूट पड़ी थी। शहर के अंतिम छोर पर उनका घर एक निर्वासित मनुष्य की तरह सिर नीचे की ओर झुकाए बैठा हुआ था। पंडित पशुपति त्रिपाठी.....पंडित.... अपने आप पर परिहास करने लगे पशुपति। उनके पिताजी थे विख्यात चंडी उपासक। अनर्गल चंडी पाठ करके दुर्गा-पूजा में तीन रात माँ का आह्वान करते थे। दूर से लोग उन्हें प्रणाम करते थे।ऊंचा कद,गौरा शरीर। भीड़ से जब वह गुजरते थे,लोग रास्ता छोड़ देते थे। इतना सम्मान, इतना उँचा व्यक्त्तित्व था उनका।
पशुपति के पैदा होने के तुरंत बाद उन्होने अपनी माँ को खो दिया था, इसलिए लोग उन्हें “माँ खाने वाला” कहकर बुलाते। पशुपति का उन्होंने बड़े लाड़ प्यार से पालन किया और पढ़ाया। वे हमेशा कहा करते थे,” सुन,माँ खाने वाले, मुझे हमेशा से नफरत है मनुष्य की अनुकम्पा से ..... सहानुभूति से। तेरी माँ के मरने के बाद सब लोगों ने मुझ पर सहानुभूति दिखाना शुरू किया। जो मेरे लिए अस्वीकार्य थी। घृणा और दया की इस धरती पर मैं जिंदा नहीं रहना चाहता हूँ। मुझे सुन्दर प्रेम भरी दुनिया चाहिए। धन-दौलत तो क्षण भर के लिए होती है। यह बात हमेशा याद रखना।
पशुपति आजतक वह बात नहीं भूल पाए है। और अधिक उन्होने बड़ा आदमी बनने की कोशिश भी नहीं की। दरिद्र ही रह गए।
“क्या सोच रहे हो? चलिए, खाना खा लीजिए? सूर्य को आने दो। मैं उसके साथ खा लूँगी।” पार्वती ने पशुपति को हिलाते हुए कहा।
उन्होने पार्वती के चेहरे की तरफ़ देखा, जैसे उनका ध्यान भंग हो गया हो। फिर धीरे स्वर में कहने लगे, “मेरा मन आज ठीक नहीं है। सूर्य क्या वास्तव में इंसान बनेगा?”
पार्वती कहने लगी, “मन खराब करने से क्या होगा? जो उसकी किस्मत में लिखा होगा,जो माँ ने लिखा होगा,वह उसे मिल जाएगा।”
पशुपति ने देखा बरामदे में चींटियों की एक लंबी कतार लगी हुई है। बारिश का मौसम आते ही वे सभी एक निरापद स्थान पर अंडे लेकर जा रही है,ठीक तीर्थयात्रियों की तरह। सबके मुँह में एक- एक अंडा पकड़ा हुआ है। मनुष्य तो इतना सतर्क नहीं है।
पशुपति सोचने लगे, छोटे-छोटे प्राणियों में आज भी अनुभूतियाँ जिंदा है,मगर मनुष्य के अंदर ....।
ईश्वर ने मनुष्य को दिन-ब-दिन यंत्र रूपी दानव में परिणित कर दिया है,मगर जितना होने पर भी उसी एक का खेल,अदृश्य शक्ति का खेल। मनुष्य क्या अपनी इच्छा से कुछ कर सकता है? उसकी इच्छा के बिना पेड़ का एक भी पत्ता नहीं हिल सकता।
संस्कृत में एम॰ए॰ किया है पशुपति ने। उड़ीसा में तब संस्कृत में उच्च-शिक्षा की कोई सुविधा उपलब्ध नहीं थी। पिताजी ने तब उन्हें बनारस भेजा था पढ़ने के लिए। संस्कृत में उच्चतर डिग्री पूरी कर आए थे वे। पंडित बने। मगर पिताजी और ज्यादा दिन जिंदा नहीं रह सके। समय से पहले पिताजी चले गए। और इस विशाल धरती पर अकेले रह गए पशुपति।
-“सुन रही हो .....?”
पार्वती का मधुर स्वर। “देख रहे हो कितना समय हो गया है। चलिए। उम्र हो गई है आपकी। यह दुर्बल शरीर और क्या उपवास सहन कर पाएगा।”
पशुपति ने धीरे से पार्वती की तरफ बढ़कर उसका हाथ पकड़ लिया। और कहने लगे, “ सूर्य के लिए तुम इंतजार करोगी और मैं नहीं कर पाऊँगा? ”
पार्वती ने अकारण अपने पल्लू को शरीर पर लगा दिया और उसके बाद कहने लगी, “मन में सच में उथल-पुथल हो रही है। इंटरव्यू देने सुबह से गया हैं तो गया है। मूढ़ी खाने के लिए कहा,मगर उसने नहीं खाई।”
बरामदे के नीचे कामिनी के फ़ूल का पेड़ लगाया था पार्वती ने। शाम को फूलों की खुशबू आती है। बरसात में कामिनी-फूलों की पंखुड़ियाँ नीचे गिरकर पड़ी हुई है,मानो बरसात से नाराज होकर नीचे गिर गई हो।
पिताजी के गुजर जाने के बाद पशुपति अकेले हो गए। वे सोच रहे थे,घर-बार छोडकर चले जाएंगे। मगर ऐसा नहीं हो पाया। पिताजी की शुद्धिकरण क्रिया के बाद संस्कृत-शिक्षक के रूप में उन्हें नौकरी मिल गई। उनके लिए एक नया रास्ता खुल गया। ईश्वर जब मनुष्य को दुख देता है, तो ठीक उस दुख से निपटने के लिए रास्ते भी खोल देता है।
सूर्य कह रहा था, “अगर उसे यह नौकरी मिल जाती है तो और हम लोग इतने गरीब नहीं रहेंगे। ”
“मेरा समझदार बेटा। अभी तक नहीं लौटा। शाम के समय एक बस आती है, शायद उसमें लौटेगा।“ मन-ही-मन पार्वती सोचने लगी।
पिताजी के बाद नौकरी पाकर पशुपति अच्छी तरह जीवन यापन कर रहे थे। शासनी ब्राह्मण थे। छुट्टियों में गांव जाते थे और यजमानों के घर पूजा-पाठ भी करते थे। पिताजी की वजह से लोग उनका भी आदर-सम्मान करते थे। “पंडित महाशय” कहकर पुकारते थे। इसलिए बाकी सभी लोग भी उन्हें पंडित पशुपति त्रिपाठी के नाम से बुलाते थे।
एक यजमान के घर में उन्होने पार्वती को देखा। सफ़ेद कपड़े पहनकर चन्दन घिस रही थी पूजा के लिए। पशुपति ने उसका परिचय पूछा था। यजमान ने कहा, आचार्य महाशय की पुत्री है पार्वती। बाल-विधवा। हमारे घर में पूजा-पाठ होने पर हम पार्वती को बुलाते है। सब सजावट कर देती है। आचार्य महाराज तो गाँव के शिव मंदिर के ‘बड़-पंडा’।
नीचे मुंह किए चन्दन-पेड़ी पकड़कर चन्दन घिसती पार्वती को देखकर 22 वर्षीय पशुपति मंत्र मुग्ध हो गए थे। उस समय कितनी उम्र रही होगी पार्वती की। बारह या तेरह। एक खिले हुए टगर के फ़ूल की तरह दिख रही थी वह। सुंदर मगर करुण।
“ सूर्य ने जाते समय कुछ नहीं कहा था? ” पार्वती ने पशुपति को पूछा। बार-बार आप परेशान हो रहे हो। पशुपति का हृदय भीतर से संक्रमित होने लगा।
वे केवल अपनी भावनाओं को अपने भीतर दबा रहे थे। वे भूलना चाहते थे,सूर्य की अनुपस्थिति को और उसके विलंब से आने के समय को। सूर्य उनके बुढ़ापे का बेटा था। बहुत दिनों तक निसंतान रहने के बाद माँ चंडी की कृपा से सूर्य उनकी गोद में आया था। वही सूर्य आज बड़ा होकर बीस साल का हो गया था। प्रथम श्रेणी में बी॰ए॰ पास किया है। एयर फ़ोर्स की नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गया है। जाते समय उनसे बीस रुपए लेते गया है यह कहते हुए, “पिताजी, आप देखोगे, ये पैसे मैं कैसे वापस करूंगा,आपको पता भी नहीं चलेगा। मेरे लिए आपने और माँ ने कितने कष्ट उठाए है, मुझे मालूम है।”
पार्वती को उस यजमान के घर में देखने के बाद,उन्हें याद हो आया अपना बाईस वर्षीय यौवन। यह धरती इतनी सुंदर,जिंदगी जीने के लिए कितने रंगीन उपादान यहाँ भरे हुए है। केवल दुख या यंत्रणा नहीं, इस सुंदर धरती पर सुख भी है, संभोग भी।
पार्वती के पिताजी के पास जाकर अपने मन की इच्छा बताई थी। चकित हो गए थे शिव मंदिर के मुख्य पूजक हरिहर आचार्य।
“-ये क्या कह रहे हो तुम? पार्वती विधवा है।”
“ मैं विधवा से ही शादी करना चाहता हूं।” दृप्त स्वर में पशुपति ने कहा। मगर हरिहर आचार्य ने अनुमति प्रदान नहीं की। लंबे दो साल तक हर छुट्टियों में पशुपति हरिहर से अनुरोध करते थे। तब तक पार्वती के दिल की बात समझ चुके थे पशुपति। समय के धीरे-धीरे दबाब के आगे नरम होता गया हरिहर आचार्य का कठोर मन।
एक दिन हरिहर आचार्य ने पशुपति के सिर पर अपना हाथ रखते हुए कहा, “मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ, तुम सफ़ल होओ। अनूठा कन्या का वैधव्य-वेश और मैं नहीं देख पाऊँगा।”
हरिहर जी की सहायता से विवाह कर वह एक दिन मध्य-रात्रि में पार्वती को लेकर अपने कर्मस्थल पर पहुँच गए।
रात के अंधेरे में जिस टगर फूल को लेकर आए थे पशुपति, उसने गुलाब बनकर उनकी ज़िदगी को सुवासित कर दिया।
लेकिन जो जन्म से दुखी हो .....ईश्वर भी उनको सुख देने में कतराता है।
पशुपति के जीवन में सुख के सपने कभी पूरे नहीं हो पाए। विधवा-विवाह करने के कारण हर जगह इस बात का प्रचार हो गया। केवल छ महीने के अंदर स्कूल की संचालक मंडली ने उन्हें वहाँ से विदा कर दिया। अपराध और असामाजिक कार्य- विधवा विवाह।
“आज तुम्हारा मन खराब क्यों है? उस पिंडे पर बैठकर क्या कर रहे हो। दूसरे दिन तो बैठकर किताबें पढ़ते हों। पर आज खाली बैठे हो। खाली बैठने से सारा का सारा दुख दौड़ आता है। चलिए, मैं खाना लगा देती हूँ।”
फिर एक बार पशुपति ने पार्वती के चेहरे की तरफ़ देखा। कितनी ममता, दीर्घ छ्ब्बीस सालों के समय के प्रवाह में पार्वती की आँखों में वही स्नेह की भाषा अभी भी खत्म नहीं हुई थी? पार्वती की तरह तपस्या कर रही थी वह, दुःख-दारिद्रय-यंत्रणा मनसंताप के साथ वह संघर्ष कर रही थी, कभी भी उसने पशुपति को किसी भी अभाव के बारे में शिकायत नहीं की थी। मन की बात कहना तो दूर की बात।
नौकरी चली गई। सालो-साल निसंतान रहे पशुपति। मगर कभी पार्वती की कोई शिकायत नहीं थी। कभी-कभी वह असहाय स्वर में कहती, “ मेरे जैसी हतभागा औरत के साथ शादी कर आप यंत्रणा भोग रहे हो –विधवा विवाह के कारण आपको यह सजा मिल रही है।” यह सुनकर पशुपति उसका सिर सहलाने लगे।
अंत में इस शहर में आ गए पशुपति। अचानक चंडी-मंदिर में अकेले चंडी पाठ करते-करते उनकी मुलाकात हो गई इस मंदिर के वृद्ध पुजारी से। अचरज से उन्होने पशुपति का परिचय लिया और उसके बाद पूजा का दायित्व उन्हें सौंप दिया। उनकी कोई औलाद नहीं थी।
पशुपति हो गए माँ के सेवक। लेकिन आश्चर्य की बात, उस दिन नि:संतान ब्राह्मण के हाथों से पूजा-भार ग्रहण करते ही पशुपति संतान के पिता हो गए। माँ चंडी की पूजा करने के एक साल के अंदर पार्वती गर्भवती हो गई। उम्र की ढलान पर उन्होने अपने पुत्र का चेहरा देखा। उनके अंधकारमय संसार के भीतर सूर्य का जन्म हुआ- धरती के सारे दुख कष्ट एक पल में मानो अदृश्य हो गए। इसलिए नाम रखा “सूर्य”।
बारिश कम होने लगी। मगर दोपहर खत्म होकर शाम के आगमन का संकेत करने लगी। बारिश में भीगे नीड़ खोए कितनी सारी चिड़ियाँ अपने पंख झाड़कर उड़कर चली गई।
“क्या करेंगे कहो? किससे पूछे? सूर्य अभी तक नहीं लौटा। मन नहीं मान रहा है। सुन रहे हो .....” पार्वती का विकल स्वर।
माँ का हृदय। क्या करेंगे, कैसे समझाए पशुपति पार्वती को। सूर्य तो इतना दायित्वहीन नहीं है। उसे पता है कि थोड़ी देर होने पर माता-पिता कितने परेशान हो जाते हैं। शहर के अंतिम किनारे पर,पड़ौसीविहीन होने के कारण उन्हें कोई खबर नहीं मिल पाएगी- यह बात अच्छी तरह जानता है सूर्य -।
पशुपति पार्वती का सिर सहलाने लगे। “चिंता मत करो –सूर्य आएगा। बारिश हो रही है, कहीं रूक गया होगा। इंटरव्यू की बात है।
पार्वती दोनों हाथ जोड़कर माथे पर लगाकर कहने लगी, “माँ, विपदानाशिनी, मेरे बेटे की रक्षा करना।”
बारिश खत्म हो गई। सांझ का अंधेरा धीरे-धीरे पेड-पौधों पर छा रहा है। टाऊन की आखिरी बस हॉर्न बजाते हुए आ रही है। पार्वती,पशुपति सीधे बस की तरफ़ देखने लगे। इस बार सूर्य आएगा।
पार्वती कहने लगी-“ सूर्य आने से चूल्हा जलाकर भात गर्म कर दूंगी। बस हॉर्न बजाकर पशुपति के दरवाजे के पास आकर खड़ी हो गई।
दो-चार यात्री उतर गए। सूर्य कहाँ? नहीं, सूर्य तो नहीं दिख रहा है। बस हॉर्न बजाकर वहाँ से घूमकर शहर की ओर चली गई। सूर्य नहीं आया .....सूर्य कहाँ गया। सूर्य नहीं लौटा,…. अनुच्चारित चीख दोनों के विकल हृदय के भीतर गूंजने लगी।
बारिश कम होती जा रही थी। दोनों के होठों की भाषा मानो हमेशा- हमेशा के लिए बंद हो गई हो। कौन किसको क्या कहेगा? सूर्य नहीं लौटा। कौन किसको कैसे समझाएगा सूर्य क्यों नहीं लौटा?।
अनेक समय बाद फ़िर से पशुपति को कमजोर लगने लगा था। असहाय भाव से पार्वती की गोद में सो गए। मगर पार्वती की आँखें अंधेरे में देख रही है सूर्य के लौटेने वाले रास्ते की तरफ।
कितनी रात हो गई...... किसी की आवाज सुनकर चमक जाते थे पशुपति। बारिश में भीगे चाँद की रोशनी में दो-चार पुलिसवाले उसके बरामदे के पास रास्ते में आकर खड़े हो गए। रास्ते में एक गाड़ी।
क्या हुआ .... पशुपति पार्वती की गोद से उठ गए। बहुत साल पहले जैसे सो गए थे वे। पार्वती इधर-उधर देखने लगी।
पुलिस ने बहुत धीरे स्वर में कहा –“आप पंडित पशुपति त्रिपाठी। ”
“हाँ”
“आपका बेटा सूर्य त्रिपाठी”
“हाँ”
“ आपका बेटा एयर फोर्स में इंटरव्यू देने के लिए गया था सुधामयी गर्ल्स स्कूल में”
चुपचाप सिर हिलाया बिना कुछ कहे पशुपति ने।
“ इंटरव्यू के दौरान धक्का-मुक्की,झगड़े-झंझट,चाकूबाजी में आपके बेटे की मौत हो गई है,त्रिपाठी बाबू। इतने प्रार्थियों का नाम आते- आते पाँच बज गए थे। आपके बेटे का नाम इंटरव्यू खत्म होने से ठीक पहले था,उसके नाम के साथ ही इंटरव्यू खत्म हुआ। दूसरे किसी दिन इंटरव्यू होने की घोषणा से उत्तेजित लड़कों ने सूर्य को नहीं जाने दिया। धक्का-मुक्की शुरू हो गई। सूर्य के जाने के लिए उतावला होते समय भीड़ के अंदर किसी ने उसके सीने में चाकू घोंप दिया। अस्पताल ले जाते समय उसकी मौत हो गई। जेब में मिले परिचय-पत्र से आपका पता चला। ”
स्तब्ध भाव से पशुपति पुलिस अधिकारी के चेहरे की तरफ देखने लगे। सूरज की मौत हुई है.... सूर्य और इस दुनिया में नहीं है?
अधिकारी कहने लगा, हम उसकी लाश ले आए हैं। आप इजाजत दें। हम उसका अन्त्येष्टि कर्म कर दें। पोस्टमार्टम हो गया है।
तभी ज़ोर से आवाज आई। पशुपति ने देखा,पार्वती चटाई के ऊपर गिर गई है। एक पुलिस वाला उसे उठाने की कोशिश कर रहा है। कोई कह रहा था .... पानी.... पानी... थोड़ा पानी चाहिए।
पशुपति मानो पत्थर बन गए हो। मुंह से एक भी शब्द नहीं निकल रहा था। बहुत कष्ट भरे स्वर में कहने लगे,” कहाँ है मेरा सूर्य? ”
पुलिस अधिकारी ने इशारों में कुछ संकेत किया। दो पुलिस दौड़ कर गाड़ी के पास गए। एक ने स्ट्रेचर पर सफ़ेद चादर उड़ाए सूर्य को बाहर निकाला। गिरे हुए कामिनी फूलों की पंखुड़ियों पर उन्होने सूर्य की लाश को रख दिया।
चंद्रमा की मद्धिम रोशनी में पशुपति बरामदे से उतरकर नीचे आए और उसके चेहेरे से सफ़ेद चादर हटाया। आंखे मींचे निश्चिंतता के साथ सोया हुआ था सूर्य।
“ मां-पिताजी की बात याद नही आ रही है? सारा दिन दोनों बिना खाए पिए तेरे इंतजार में बैठे है? यही तेरा विवेक है सूर्य? सो गए। फिर हमेशा के लिए। कैसे जिएंगे तुम्हारे माँ-पिताजी? कैसे खाएँगे? कैसे सोएँगे? एक बार भी नहीं सोचा मेरे बच्चे?
बुत बने पशुपति की आंखों से आंसू नहीं गिरे। सीने में वही पुराने घाव। भरे गले से अधिकारी को देखकर कहने लगे, ”आईए लाश पहले पवित्र करनी पड़ेगी। अस्पताल से लाई है, उसके बाद अंत्येष्टि कर्म।”
धीरे-धीरे कदमों से रास्ते पर चलने लगे पशुपति। आकाश की ओर देख बड़बड़ाने लगे, “
हे विश्व-नियन्ता ! तू यही चाहता है? आज मैं अपने बेट को पवित्र करूं,उसका अंतिम संस्कार करूं। मुखाग्नि देकर अन्त्येष्टि-कर्म करूँ। क्यों दिया सूर्य को अगर तेरी इच्छा नहीं थी। क्यों? क्यों मुझे दो दिन के लिए झांसे में डाल दिया?
मलिन उजाले में आगे चल रहे थे पशुपति। पीछे लाश ले जाती हुई पुलिस। अंधेरे के भीतर चंडी मंदिर का शिखर दिखाई दे रहा था पशुपति को, “ माँ, हे माँ ! तेरी क्या यही अभिलाषा थी? ... माँ, माँ पागलों की तरह चिल्लाते हुए आगे चले जा रहे थे पशुपति .... श्मशान की ओर से बिल्लियों के रोने की आवाज सुनाई दे रही थी।