मुखाग्नि / मृणाल आशुतोष
सवेरे सवेरे फ़ोन की आवाज़ ट्रिंग-ट्रिंग सुन अनुपम के मुँह से गाली निकलने ही वाली थी कि देखा भईया का फ़ोन है। भईया भी न समय भी नहीं देखते हैं और फ़ोन कर देते हैं, बड़बड़ाते हुये फ़ोन साइलेंट कर दिया। दोबारा फ़ोन आते देख उसने उठा लिया, "हेलो भईया।"
"क्या हुआ भईया। हेलो। हेलो। कुछ बोल क्यों नहीं रहे हैं?"
"कुछ नहीं। तुम फ्लाइट पकड़ कर जल्दी से घर पहुँचो"
" पर हुआ क्या? क्या हुआ पापा को?
"अंतिम दर्शन के लिये बुला रहे हैं। हम भी ट्रेन पकड़ने जा रहे हैं।"
"नहीं। पापा हमको छोड़ कर नहीं जा सकते। कब हुआ ई सब?"
"एक घण्टा पहले। छोटका चाचा कहे हैं कि वह सब व्यवस्था बात करके रखेंगे।"
दोनों भाई थोड़ी देर के आगे पीछे पहंचे तो चौक पर ही एगो भाय प्रतीक्षा कर रहा था। बैग वहीं पटक रोते कलपते और एक दूसरे को दिलासा देते श्मशान की ओर भागे। "
शमशान में बड़ी बहिन को देख कर दोनों भाई आश्चर्य में पड़ गए। छोटका चाचा कहने लगे, "बहुत मना किए पर मानी ही नहीं। ज़िद पर बैठ गयी कि अंतिम समय तक साथ रहेंगे।"
पीछे से लाल कक्का ज़ोर से बोले, "सूर्यास्त होने ही वाला है। जल्दी से मुखाग्नि वला काम शुरू करो।"
एक आदमी ने मुखाग्नि भईया के हाथ में दे दिया और बड़े बुज़ुर्ग मंत्र पढ़ने लगे।
भईया मुखाग्नि लगाने ही वाले थे कि अनुपम ने कहा, "रुक जाइये भईया!"
"क्यों? सब अचरज से अनुपम की ओर देखने लगे।"
"हम दोनों भाय तो केवल पैसा भेजकर अपना कर्तव्य पूरा करते रहे। असली बेटा तो बहिन है जो अपना घर परिवार छोड़कर दिन रात पापा कि सेवा करती रही। इसीको मुखाग्नि देने दीजिये।"
लाल कक्का जिनको बेटा न था, "सही कह रहा है ई अनुपम। इसीको मुखाग्नि देने दो।"
कुछ विरोध की आवाज़ भी उठीं पर वह असली बेटे के कर्तव्य तले दबकर रह गयीं।