मुखौटों के पार / एक्वेरियम / ममता व्यास
तुमने अपने चेहरे पर लोहे के सख्त मुखौटे लगा रखे थे। ऐसा लगता था जैसे गर्म लोहे को पिघलाकर तुमने अपने चेहरे पर पोत लिया हो। क्या मजाल है कोई भाव, कोई अहसास या कोई रंग दिखाई दे जाये।
मैंने उस दिन हौले से अपनी आंखों से तुम्हें छुआ, तुम्हारे चेहरे पर एक हलकी-सी दरार आई थी मुझे खुशी हुई थी कि भीतर कोई जीवित है अभी तक। मैंने उत्साह में आकर एक बार और तुम्हें आंखों से छुआ। तुम्हारी और मेरी आंखों के बीच बहुत लम्बी दूरियाँ थीं। ये फासले हम किसी भी जन्म में तय नहीं कर पाते, ये बात हम दोनों बखूबी जानते थे लेकिन न जाने क्यों मेरी प्रेमभरी दृष्टि तुम्हारे चेहरे के लोहे को पिघला रही थी और देखते ही देखते तुम्हारे चेहरे से लोहे का एक टुकड़ा चटक कर नीचे गिर पड़ा और भीतर से गुलाबी रंग का सुन्दर चेहरा झांकने लगा।
"बाहर से कितने स्याह और खुरदुरे दिखते हो न तुम।" मैंने मन ही मन कहा।
तुम उस समय कटलेट और कॉफी के साथ व्यस्त थे। मैं देख रही थी कैसे धीरे-धीरे तुम्हारे सख्त चेहरे पर लकीरें बन रही थीं।
"कहीं ऐसा न हो तुम्हारा ये मुखौटा अभी इसी वक्त कॉफी हाउस में टूट कर गिर जाये।" मैं मन ही मन घबरा गयी और अपनी निगाहें नीची कर लीं।
तुम अब तक कटलेट खत्म कर चुके थे और कॉफी भी, तुमने खाली मग को किनारे सरका दिया। अपने चेहरे के गिरे हुए उस टुकड़े को तुम देख नहीं सके. मैंने चुपके से वह टुकड़ा उठाकर अपनी मुठ्ठी में दबा लिया। उस दिन तुम तो चले गए लेकिन ये टुकड़ा मेरे पास ही रह गया जो अक्सर चुभता है। तुमने ज़रूर उसी रात खुद को आईने में देखा होगा और फिर से एक लोहे के घोल की नयी कोटिंग अपने चेहरे पर चढ़ा ली होगी। है न?