मुखौटों वाली संस्कृति / कुबेर

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मनुष्य स्वभाव से स्वतंत्रताप्रिय होता है, लेकिन समाज के सारे बंधन उसे स्वीकारने पड़ते हैं। अरस्तु ने कहा है - मनुष्य स्वभाव से सामाजिक प्राणी है, वह समाज के बगैर नहीं रह सकता।

मनुष्य समाज के बाहर रहकर जी भी ले, पर यह निश्चित है कि समाज स्वयं से अलग रहकर जीने की इच्छा रखने वाले मनुष्य को जीने नहीं देती। मुझे डार्विन के जीवन संघर्ष वाला सिद्धांत ही सर्वथा उचित जान पड़ता है। सबल प्राणी जो प्रकृति के सापेक्ष अनुकूलित होने की क्षमता रखता है, वही जीवित रह सकता है; अन्यथा दुश्मन उन्हंे जीवित नहीं छोड़ते। हरे पौधों में रहने वाले छोटे जीवजन्तु हरे रंग के होते है और फूलों में पलने वाली तितलियाँ रंगबिरंगी; ताकि प्रकृति के रंगों में स्वयं को छिपाकर दुश्मन की नजरों से बच सके।

मनुष्य भी स्वयं को समाज के रंग में रंगकर अनुकूलित होने का प्रयास करता है, ताकि वह भी दुश्मन की निगाहों से बचा रह सके। रंग बदलने में जो जितना अधिक निपुण होता है, वह उतना ही अधिक सफल होता है। मैंने सोचा था कि मैं बहुरूपियों वाला यह खेल अपने जीवन में नहीं खेलूँगा, पर अपनी इस निष्ठा पर मैं अटल नहीं रह सका हूँ। समाज में जीने के लिये रंग बदलना शायद अनिवार्य होता है।

तो क्या समाज में रंग बदल कर रहना मनुष्य का स्वभाव है, या उसकी मजबूरी?

अन्य लोग अपने-अपने चेहरे के अनुकूलित रंगों को कितने ढंग से देखते-परखते हैं, मैं नहीं जानता; पर मैं स्वयं अपने चेहरे का अक्स तीन तरीके से देखता हूँ; देखता ही नहीं पढ़ता भी हूँ।

कुछ वर्ष पूर्व तक मुझे आइना देखने का बेहद शौक था। घर की कच्ची दीवार की खूँटी पर टंगी टीने की फ्रेम वाली एकमात्र छोटे से दर्पण के सामने खड़े होकर मैं घंटों अपने चेहरे की रंगत का परीक्षण किया करता था। तब मुझे अपनी चिकनी, गोरी और मासूम सूरत पर बड़ा गर्व होता था। कभी हँसकर कभी मुस्कुराकर, आँखों को, भौंहों को और होठों को विशेष आकार दे-देकर अपने रूप-दर्प को मैं अभिव्यक्त किया करता और खुश हुआ करता। कंघी लिये घंटों बाल सँवारा करता। मेरा चेहरा न सिर्फ गोरा, चिकना और मासूम लगता; स्वच्छ निष्कलंक और निश्छल भी लगता। फिर वह दिन भी आया, जिस दिन से दर्पण मेरे लिये आह्लादकारी नहीं अपितु विषादकारी प्रतीत होने लगा। यह सब अचानक नहीं, क्रमशः हुआ; जीव विज्ञान वाले अनुकूलन के सिद्धांत की तरह।

पड़ोसी चाचा की एक लड़की है, कल्पना। हमारा बचपन साथ-साथ बीता। साथ-साथ जवान हुए। शादी उसकी पहले हुई मरी बाद में। कल्पना तब भी मुझे राखी बाँधती थी और आज भी डाक से भेज दिया करती है। वह मायके आई हुई थी। चाचा को अपने काम से छुट्टी नहीं मिल रही थी। चाची फिल्म देखना पसंद नहीं करती थी और घर में कोई अन्य बालिग सदस्य नहीं था जिसके साथ कल्पना को फिल्म देखने भेजा जा सके। परिणामतः यह जिम्मेदारी हमेशा की तरह मुझे सौपी गई। मैं खुश था, परिणाम से बेखबर।

उस रात और दूसरे दिन भर, पत्नी ने मुझसे बात नहीं की और रात में जब उसके फूले हुए गालों की प्रत्यास्थता, सीमा लांघ गई तो वह अचानक फट पड़ी। उस रात उसने मेरी जैसी गत बनाई वह लिखने लायक नहीं है।

दूसरे दिन मैंने अपनी सूरत आइने में देखी। अरे! यह क्या? मेरे माथे पर काला धब्बा। घबराहट में मैं उस धब्बे को तौलिये से जल्दी-जल्दी पोंछने लगा। लाख कोशिशों के बाद भी वह साफ नहीं हुआ। मेरी घबराहट और बढ़ गई। मैंने उसे पानी से, फिर बाद में साबुन से धोकर साफ करना चाहा। परिणाम शून्य रहा। चेहरा खराब हो जाने के कारण मैं बड़ा दुखी हुआ। पता नहीं वह कैसा दाग था, लाख कोशिशों के बाद भी साफ नहीं हुआ। मुझे अपनी वह मासूम सूरत अब डरावनी प्रतीत होने लगी थी।

मैंने अब आइना देखना कम कर दिया। मेरे एक अत्यन्त करीबी मित्र हैं, आत्माराम। आत्माराम की दोस्ती पर मुझे भरोसा भी है और गर्व भी, क्यांेकि हमारी यह दोस्ती ऐतिहासिक है और इतिहास साक्षी है, मेरे इस जिगरी दोस्त ने मुझे कभी धोखा नहीं दिया। उसने मुझे बताया, ’मित्र! यह कलंक का टीका है, कभी मिटता नहीं है।’

मैंने अपने परिचितों और परिजनों की संख्या में भारी कटौती कर दी। पान ठेले के सामने खड़े होकर बकबक करना भी मैंने छोड़ दिया। मेरे घर के दरवाजे और ऑफिस की इमारत के बीच के रास्ते भर मुझे केवल छोटे-बड़े मकानों के जंगल ही नज़र आते, जिनकी काई लगी दीवारों पर से अनेक उल्लू नजरें जैसे हमेशा मुझे घूरती रहती।

ऑफिस से छुट्ठी लेकर मैं कहीं बाहर चला गया। सोचा था हवा-पानी में बदलाव आने से चेहरा भी कुछ निखर जाएगा, पर हुआ कुछ नहीं। निराश हो वापस लौट आया। पुरानी जीवनचर्या पुनः आवर्तित होने लगी।

सुबह टहलता हुआ मैं ठेलू पान ठेले की ओर चला गया, जहाँ इस समय मित्र-मंडली के उपस्थित हाने की पूरी संभावना रहती है। ढेलूराम को शायद मेरी ही प्रतीक्षा थी। पहुँचते ही उन्होंने मुझे महीने भर की पान का बिल थमा दिया। बिल में लगभग उतने ही रूपयों का योग था, जितना हमेशा हुआ करता। असहमति प्रगट करते हुए खाते की कॉपी मांगकर मैं उसका निरीक्षण करने लगा, वैसे ही जैसे होमवर्क की जांच करने वाला शिक्षक छात्रों की कॉपी जांचता है। ढेलू राम को मेरा यह कृत्य शायद अप्रिय लग रहा था। पहला कॉलम दिनांक का था, जिसमें पहली तारीख से लेकर महीने की आखिरी तारीख तक का ब्यौरा था। दूसरा कॉलम खरीदी गई वस्तुओं का और तीसरा कॉलम रकम दर्शित करने वाला था। नीचे था पूरे माह भर की उधारी का योग। बिल को छेड़ने की अथवा उस पर किसी भी प्रकार की टिप्पणी करने की मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी; लेकिन महीने की उन दिनों में जब मैं बाहर गया हुआ था, मेरे नाम पर किसने उधारी लिखाई होगी? मेरी जानकारी में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था जिससे मेरी अदावत हो। निश्चित ही, यह सरासर बेईमानी थी। ढेलू राम से बिल सही करने के लिये कहकर मैं घर चला आया।

दूसरे दिन हवा में कुछ विशेष प्रकार की तरंगें तैर रही थी, जिसकी आवृत्ति सामान्य ध्वनि तरंगों अथवा रेडियो तरंगों की आवृत्ति से सर्वथा भिन्न और बड़ी शक्तिशाली थी। इसका मज़मून इस प्रकार था - “खाते समय लोगों को अच्छा लगता है, देते समय हवा निकल आती है, बेईमान कहीं के।” इस तरंग ने मेरे मस्तिष्क के एक-एक कोश को बुरी तरह रौंद कर निर्बल और असहाय कर दिया। मेरे दुख की कोई सीमा न रही।

मुझे दुखी देखकर मेरे परम मित्र आत्माराम ने मुझे सांत्वना देते हुए कहा - “मित्र ये बदनामी की शक्तिशाली तरंगें हैं। इनका वेग रेडियों तरंगों के वेग से भी अधिक तेज होती हैं, फैलने में समय नहीं लगता।”

उस दिन दर्पण में मैं अपना अक्स देख न सका। दर्पण से अब मुझे भय होने लगा था। जब भी मैं दर्पण के सामने खड़ा होता, दर्पण में मेरी डरावनी और वीभत्स आकृति उभर आती, जिसका चेहरा बदनामी के गहरे दागों से भरा होता, और माथे पर कलंक का भद्दा टीका लगा होता। मित्र की सलाह पर मैंने दर्पण देखना ही छोड़ दिया। अब मैं हर क्षण सतर्क रहने लगा कि मेरे चेहरे पर और कोई दाग न लगे, मेरा चेहरा और न बिगड़े। जो होना था, हो चुका था, बाकी रह क्या गया था?

लाख सावधानियों के बाद भी मेरे चेहरे पर न जाने और कितने, कैसे-कैसे कालिख पुतते रहे। मैं बाहर निकलने में भय खाने लगा। समाज, परिवार और पत्नी के साथ मेरे संबंध तनावपूर्ण हो चुके थे। इस तनावपूर्ण संबंधों के कारण चेहरे पर उभर आये रेखाओं से निर्मित तनावजालिकाओं को मैं स्पष्ट अनुभव करने लगा था।

लोगों से दुआ-सलाम पूर्ववत ही होता, पर उसमें पहले-सी अपनत्व की भाव-ऊर्जा का प्रवाह न होता। संभवतः लोग मेरे प्रति अब सामान्य हो चुके थे, अथवा सामान्य दिखने का अभिनय करने लगे थे, पर मैं अपना इतना वीभत्स चेहरा लेकर कभी सामान्य नहीं हो सकता था; सामान्य होने का केवल अभिनय ही कर सकता था ओैर करता भी था।

समाज रूपी दर्पण में अब मुझे अवसाद के धुँधलके से घिरा अपना तरह-तरह का चेहरा नजर आने लगा जिसके मूल में मेरे मन की वह ग्रंथि होती, जिसका उत्स भी समाज ही था। वह अक्स कब का गायब हो चुका था, जिसके मूल में निश्छल और निःस्वार्थ मानवीय भावनाओं-जनित बहुरंगी खुशियों का उमड़ता-छलकता रेला हुआ करता था। इसका तिरोहन हो चुका था। मैं सामान्य होकर जीना चाहता था और इस चाहत में मेरी गति विपरीत दिशा की ओर हो गई थी। मैं चाहे दर्पण देखना बंद कर सकता था, सोचना नहीं। सोचने की प्रक्रिया मेरे अस्तित्वबोध और जिन्दा रहने की अनुभूति के लिये आवश्यक थी।

मेरे परम मित्र आत्माराम भी मेरी इस दयनीय हालत से खिन्न मन रहा करते थे। मैं पुनः पहले-सा सामान्य रहने लगूँ , इस बाबत उनके द्वारा सुझाई गई सारी तरकीबें असफल हो चुकी थी। वे अधिकतर अब मौन रहने लगे थे।

ऐसे में मुझे अपने दूसरे मित्र मनमोहन की शरण लेनी पड़ी। वे बड़े चंचल प्रवृत्ति के हैं। इनकी प्रतिभा बड़ी विलक्षण है। इनकी सलाह अचूक थी। चूँकि इनकी पैठ समाज के सूक्ष्मतम स्तर तक है, अतः इन्हें समाज के जाने-अनजाने सभी रहस्यों के बारे में पता है। इनकी सलाह पर अब मैं अपने वीभत्स हो चुके चेहरे के ऊपर बड़ा सुंदर, मासूम और भोला-सा मुखौटा लगाने लगा हूँ।

परिस्थिति, परिवेश और मौसम के हिसाब से मैंने कई मुखौटों की व्यवस्था कर रखी है। इसमें एक मुखौटा बिलकुल वैसा ही है, जैसा बचपन के दिनों में मेरा चेहरा हुआ करता था। आवश्यकता अनुसार दिन में कई बार मैं अपना मुखौटा बदल लिया करता हूँ, पर सर्वाधिक उपयोग इसी मुखौटे का करता हूँ।

मैं अपने मित्र मनमोहन का आभारी हूँ जिसने मुझे दर्पण के सामने खड़ा होने का हौसला फिर से दिलाया। अब मैं अपने तरह-तरह के मुखौटों के साथ सदा खुश रहता हूँ। मेरी पत्नी मुझे अब पहले से ज्यादा प्यार करने लगी है। समाज के वे सारे लोग जो मुझे देखकर अपना रास्त बदल लिया करते थे, अब मेरे आजू-बाजू मंडराते रहते हैं। मैं जानता हूँ कि ये भी, सारे के सारे, मुखौटा लगाये हुए हैं। सब एक दूसरे की इस राज को जानते हैं, पर सभी इस गलतफहमी में और इस बात का दिखावा करते हुए जी रहे हैं कि उनके इस राज को कोई नहीं जानता।

कोई किसी के मुखौटे वाले इस चेहरे का कतई बुरा नहीं मानता। मेरे मुखौटे वाले चेहरे से भी किसी को कोई आपत्ति नहीं है। मेरे आस-पास के सभी लोग, जिनसे मैं संबंधित हूँ, जिन्हें मुझसे संबंधित होना पड़ता है; सब अपने-अपने मुखौटों के साथ खुश हैं।

मेरा मुखौटा मुझे दुख देने लगा है। मैं अपने असली चेहरे के साथ जीना चाहता हूँ, पर मेरा यह दुःसाहस लोगों को पसंद नहीं है।

समाज में जीने के लिए अनुकूलन आवश्यक है। मुखौटों वाली इस संस्कृति में जीना मेरी मजबूरी है।