मुख्यमंत्री नाराज़ थे / पंकज सुबीर
डी. डी. मित्तल उर्फ़ द्वारकादास मित्तल का चेहरा ग़म में डूबा हुआ था। राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारी डी. डी. सर (ये उनका पुकारे जाने का नाम है) बहुत दुःखी थे। डी. डी. सर की माँ का पार्थिव शरीर उनके सरकारी बँगले के भव्य ड्राइंग रूम के फ़र्श पर रखा हुआ है। लम्बे समय से बीमार चल रहीं उनकी माँ ने कल सुबह ही अंतिम साँस ली। गाँव से उनका पार्थिव शरीर देर रात यहाँ लाया गया है। डी. डी. सर की इच्छा थी कि माँ को यहीं लाया जाए। बँगले के बाहर सरकारी अधिकारियों तथा कर्मचारियों की भीड़ जुटी है। अधिकारी का दुःख सारे अधीनस्थों को भी दुःखी कर देता है और उस पर यदि प्रशासनिक सेवा का अधिकारी दुःखी हो तो ये दुःख और भी बढ़ जाता है। सारे के सारे दुःखी हैं और डी. डी. सर भी दुःखी हैं। ग़मगीन हैं। लेकिन डी. डी. सर के दुःखी होने का कारण कुछ और है। माँ तो लम्बे समय से बीमार थीं, जाना ही था, चली गईं। दुःख का कारण तो कुछ और है। असल में डी. डी. सर यहाँ ज़िला मुख्यालय पर ए. डी. एम. के पद पर कार्यरत हैं। ए. डी. एम. का मतलब जिले की प्रशासनिक व्यवस्था में ठीक दूसरे नंबर का पद। कलेक्टर या डी. एम. के ठीक बाद का पद और उस पर ज़िला भी कौन सा...? मुख्यमंत्री का अपना ही गृह जिला। डी. डी. मित्तल कुछ माह पहले ही यहाँ स्थानांतरित होकर आए थे। मुख्यमंत्री का गृह ज़िला बरसात के पानी से भरे हुए पोखर के समान होता है। इस पोखर के किनारे बने बिलों, गड्ढों में मुँह बाहर निकाल कर कई सारे मैंढक बैठे टर्राते रहते हैं। लेकिन इनमें से कई मुँह दरअसल मैंढकों के नहीं होते हैं। आपने यदि ग़लती से किसी मैंढक का मुँह पकड़ कर बिल से खींचने की कोशिश की तो पता चलेगा कि वह तो निकलता ही आ रहा है, निकलता ही आ रहा है। असल में वह साँप होता है। तो इसी प्रकार से मुख्यमंत्री के क्षेत्र में भी आप केवल मुँह देख कर पता नहीं लगा सकते कि ये मैंढक है अथवा साँप है...? डी. डी. सर बहुत मेहनती अधिकारी हैं, वे अपने से ऊपर के अधिकारियों को प्रसन्न रखने के लिए हमेशा मेहनत करते रहते हैं। इसी का परिणाम था कि यहाँ पर स्थानांतरित होकर आने के छः माह के अंदर ही उनको कलेक्टर द्वारा ए.डी.एम. बना दिया गया। मुख्यमंत्री के गृह जिले का ए.डी.एम.। मुख्यमंत्री के गृह जिले का ए.डी.एम. होने का अलग ही अर्थ होता है।
सब कुछ अच्छा ही चल रहा था और चलता ही रहता, मगर चला नहीं। डी. डी. सर चूक गए। भूल गए कि वे कहाँ पदस्थ हैं। एक मैंढक को प्रशासनिक हाथों से पकड़ कर बिल से खींच लिया। मैंढक, साँप निकला। डी. डी. सर खींचते रहे, वह खिंचता रहा, खिंचता रहा। ख़ूब लम्बा साँप था। उसकी पूँछ दूसरे सिरे पर मुख्यमंत्री की कुर्सी से लिपटी हुई थी। डी. डी. सर ने खींचा..., खींचा..., जब पूरा बाहर नहीं खिंचा तो झटका दिया। झटका दिया तो उधर पूँछ में लिपटी कुर्सी हिली। हिली तो कुर्सी पर बैठे हुए मुख्यमंत्री के माथे पर बल पड़े, चेहरे की भंगिमा बदली, कुछ ऐसा चेहरा बन गया जो नाराज़ी से भरा हुआ था। बात की बात में मैसेज पूरे प्रशासनिक हल्के में फैल गया कि मुख्यमंत्री, डी. डी. सर से नाराज़ हैं। डी. डी. सर ने घबराकर साँप को छोड़ा, मगर देर हो चुकी थी। साँप नीचे गिर कर ए.डी.एम. की कुर्सी से लिपट गया और अब कुर्सी हिलाने की बारी उसकी थी। उधर से मुख्यमंत्री ने साँप की पूँछ को झटका दिया और इधर ए.डी.एम. की कुर्सी हिली। यदि डी. डी. सर की माँ का निधन नहीं हो गया होता तो उनको कल ही हटा दिया जाना तय था। मगर माँ ने मरने के बाद भी बेटे को आसन्न संकट से दो चार दिन की मोहलत तो दिलवा ही दी थी। मोहलत इसलिए भी मिल गई कि डी. डी. सर, कलेक्टर साहब के चहेते हैं। कहावत की भाषा में 'नासिका के अंदरतम हिस्से के बाल हैं'। अपने मातहतों में कलेक्टर साहब सबसे ज़्यादा डी. डी. सर को ही पसंद करते हैं।
ये जो माँ का पार्थिव शरीर गाँव से यहाँ बुलवाया गया है, उसके पीछे दो कारण हैं। पहला तो ये कि डी. डी. सर इस समय अपनी ग़लती के कारण हुए नुक़सान को ठीक करने के लिए भागदौड़ करने में जुटे हैं, स्वयं कलेक्टर उनकी मदद कर रहे हैं, इसलिए मुख्यालय छोड़कर कहीं नहीं जाना चाह रहे थे। दूसरा ये कि माँ की मौत से सहानुभूति की जो लहर यहाँ पैदा होगी वह डेढ़ सौ किलोमीटर दूर दूसरे जिले के पुश्तैनी गाँव में कहाँ। मुख्यमंत्री भी कुछ तो पसीजेंगे ही। आख़िर को माँ मरी है अगले की। प्रशासनिक हल्के में सबसे बड़ा अपमान होता है किसी घटना के कारण पद से हटाया जाना। वह अधिकारी इसके बाद हटाया हुआ अधिकारी ही होता है। डी. डी. सर, ये ठप्पा अपनी पीठ पर नहीं लगवाना चाहते। अभी काफ़ी नौकरी बाक़ी है उनकी।
'डी. एम. साहब आ गए... ।' कलेक्टर आ पहुँचे हैं, साथ में अर्दली है हाथ में पुष्पचक्र लिए। अधिकारियों, कर्मचारियों, में सुगबुगाहट हो गई। कलेक्टर साहब अंदर चले गए। कुछ देर डी. डी. सर के पास बैठे और उसके बाद दोनों अंदर से और अंदर चले गए। देर तक अंदर ही रहे। कुछ देर बाद बाहर खड़े एक अधिकारी का मोबाइल बजा, नंबर देखकर वह अटेंशन हो गया। उसने कुछ अदब से बात की और अंदर चला गया। अंदर मतलब वहाँ नहीं जहाँ माँ थीं, अंदर से भी अंदर, जहाँ कलेक्टर साहब और डी. डी. सर थे। फिर एक और का बजा, वह भी अंदर से अंदर चला गया। फिर एक और फिर एक और फिर एक और। काफ़ी देर बाद सारे के सारे बाहर निकले। कलेक्टर ने अपना हाथ डी. डी. सर के कंधे पर रखा हुआ था। कलेक्टर ने कार के पास आकर डी. डी. सर का कंधा थपथपाया और कार में बैठकर रवाना हो गए। अंदर गए अधीनस्थ अधिकारियों ने अपने-अपने विभाग के कर्मचारियों को हाथ से इशारा किया। बात की बात में वे सब भी अपने-अपने वाहनों पर सवार होकर कुछ तेज़ी दिखाते हुए कहीं रवाना हो गए।
लगभग एक डेढ़ घंटे तक डी. डी. सर के बँगले पर यथास्थिति बनी रही। रिश्तेदार बार-बार मिट्टी उठाने की बात करते और बार-बार डी. डी. सर द्वारा रोक दिया जाता। डेढ़ घंटे बाद कुछ हलचल बढ़ी। तेज़ी से गईं सरकारी गाड़ियाँ उतनी ही तेज़ी के साथ लौटीं। मगर इस बार बँगले के मुख्य द्वार पर न लगकर पीछे के दरवाज़े पर लगीं। कर्मचारियों ने काफ़ी सारा सामान उतार-उतार कर पीछे के दरवाज़े से बँगले के अंदर पहुँचा दिया। अधिकारियों, कर्मचारियों और सामान को बँगले के अंदर छोड़, ख़ाली गाड़ियों को उनके चालकों ने बँगले के सामने लाकर लगा दिया। अब बँगले के अंदर, के अंदर, के भी अंदर वाले कमरे में कुछ हलचल थी। जहाँ ये सब पहुँचे थे। सामान, कर्मचारी और अधिकारी।
कुछ देर बाद जनसंपर्क अधिकारी आए, फिर मीडिया के लोग। जनसंपर्क अधिकारी बँगले के लॉन में मीडिया के लोगों के बैठने की व्यवस्था करने में लग गए। कुछ ही देर में कलेक्टर भी पहुँच गए। इस बार वे सफेद कुरता पाजामा पहने हुए थे। आते ही पहले वे पत्रकारों से मिले, हरेक के पास जा-जाकर आत्मीयता से बात की और फिर अंदर चले गए।
अगला दिन
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"प्रदेश के मुख्यमंत्री की पुत्रियाँ बचाओ योजना का प्रभाव"
(निप्र) कल शहर में निकली एक अनोखी शवयात्रा ने लोगों को मुख्यमंत्री की पुत्रियाँ बचाओ योजना का संदेश दिया। शवयात्रा में शामिल लोग "पुत्रियाँ हैं तो भविष्य है" , "पुत्रियाँ ही आने वाला कल है" , "पुत्री बचाओ" , "माँ ही कल पुत्री थी, पुत्री ही कल माँ होगी" , जैसे संदेशों की तख़्तियाँ लिए हुए थे। अस्सी वर्ष की उम्र पूरी कर चुकीं रामवती देवी की शवयात्रा ने कल पूरे शहर में बेटियाँ बचाने को लेकर जागरूकता पैदा की। स्वयं ज़िला कलेक्टर तथा सभी प्रमुख अधिकारी अपने हाथों में इस प्रकार के संदेश देने वाले पोस्टर तथा तख़्तियाँ लेकर शवयात्रा में शामिल हुए। रामवती देवी, ज़िला मुख्यालय पर पदस्थ ए. डी. एम. श्री द्वारकादास मित्तल की माताजी थीं। हमारे संवाददाता से दूरभाष पर चर्चा करते हुए श्री मित्तल ने बताया कि उनकी माताजी, प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा चलाई जा रही 'पुत्रियाँ बचाओ योजना' से बहुत प्रभावित थीं। वे उस योजना को लेकर काम भी करना चाहती थीं, किन्तु अस्वस्थता के चलते वे ऐसा नहीं कर पाईं। उनकी अंतिम इच्छा थी कि जब भी उनकी अंतिम यात्रा निकाली जाए तो उसमें प्रदेश के यशस्वी तथा संवेदनशील मुख्यमंत्री की योजना का संदेश समाज को दिया जाए। उनकी इसी अंतिम इच्छा का पालन करते हुए उनकी शवयात्रा में इस प्रकार का प्रयोग किया गया।
हमारे राजधानी संवाददाता ने बताया कि स्वयं मुख्यमंत्री ने इस क़दम की सराहना करते हुए कहा है कि इस प्रकार के प्रयासों से ही पुत्रियाँ बचाने के कार्यों को बल मिलेगा। हमारे संवाददाता ने बताया कि संभवतः यह पहला अवसर है जब शवयात्रा के माध्यम से सामजिक परिवर्तन का संदेश दिया गया है।