मुख्य राजमार्ग और संकरी गालियां / जयप्रकाश चौकसे

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मुख्य राजमार्ग और संकरी गालियां
प्रकाशन तिथि : 01 मई 2013


तीन मई १९१३ को गोविंद धुंडिराज फाल्के की 'राजा हरिश्चंद्र' प्रदर्शित हुई थी और इस वर्ष तीन मई को हिंदुस्तानी सिनेमा को आदरांजलि के तौर पर गढ़ी गई फिल्म 'बॉम्बे टॉकीज' का प्रदर्शन होने जा रहा है, जिसमें आधे-आधे घंटे की चार लघु फिल्में हैं। उसके लगातार विज्ञापन आ रहे हैं और फिल्मकारों के नाम भी सिनेमाई गुणवत्ता के आधार पर नहीं वरन् बॉक्स ऑफिस सफलता के आधार पर दिए गए हैं, जो कमोबेश सिनेमा का भाग्यविधाता भी रहा है। नाम के क्रम पर गौर करें - करण जौहर, जिन्होंने पारिवारिक अतिनाटकीयता की मसाला फिल्में रची हैं। दूसरे क्रम पर जोया अख्तर हैं, जिनकी पहली फिल्म 'लक बाय चांस' सिनेमा पर ही मखौल उड़ाने वाली फिल्म थी और केवल बॉम्बे में चली थी तथा दूसरी फिल्म 'ये जिंदगी ना मिलेगी दोबारा' में ऋतिक रोशन और कैटरीना कैफ जैसे सितारे थे तथा फिल्मकार का कहना है कि यह एक फे्रंच फिल्म से प्रेरित थी। तीसरे क्रम पर दिबाकर बनर्जी का नाम है, जिन्होंने लीक से हटकर 'खोसला का घोसला' और अर्थ की अनेक परतों वाली 'शंघाई' बनाई थी, जिसमें भारत के तथाकथित विकास के मॉडल की पोल खोली थी तथा चौथे क्रम पर अनुराग कश्यप का नाम है, जिनकी 'ब्लैक फ्रायडे' एक सार्थक फिल्म थी और आजकल ये नए सिनेमा के स्वयंभू गॉडफादर हैं। इनकी चर्चित 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' कस्बाई गॉडफादर ही थी।

उपरोक्त चारों नाम और उनके क्रम में ही हिंदुस्तानी सिनेमा की धाराओं के संकेत हैं। मुख्यधारा मसाला फॉर्मूला फिल्म है, जिसमें फिल्मकार अपनी व्यक्तिगत रुचियों के अनुसार मिर्च, मसाले घटाते-बढ़ाते रहते हैं और तत्कालीन लोकप्रियता का तड़का भी लगाते हैं। मसाला फिल्मकारों के मन में भी कुछ नया करने की इच्छा जागती है, तब वे 'माय नेम इज खान' बनाते हैं, जो तर्कहीन, भावनाहीन सेल्युलाइड कसरत है और स्वयंभू कला फिल्म के क्रांतिकार बॉक्स ऑफिस सफलता के लिए अपने बेकरार मन को कस्बाई हिंसक गॉडफादर के रूप में गढ़ते हैं। एक बार केतन मेहता के घर पर मैंने 'आवारा', 'गंगा-जमना' और 'मदर इंडिया' के पोस्टर देखे। स्पष्ट है कि ये फिल्में उन्हें पसंद हैं, परंतु वे लीक से हटकर फिल्में बनाते हैं। उनकी 'भवनी भवई' और स्मिता पाटिल अभिनीत 'मिर्च मसाला' तथा 'माया मेमसाब' सार्थक सफल फिल्में थीं और उन्होंने सरदार पटेल का बायोपिक भी रचा था। आमिर खान के साथ वे 'राख' नामक प्रयोगवादी फिल्म बना चुके थे और बाद में 'मंगल पांडे' भी रची, परंतु अब जाने कहां भटक गए हैं।

इसी तरह एक फूहड़ मसाला फिल्म बनाने वाले बड़बोले निर्देशक जिनकी हाल ही में एक घटिया रीमेक मुंह के बल गिरी है तो एक बार कबूल कर चुके हैं कि 'आवारा' और 'गंगा-जमना' उनके आदर्श हैं, परंतु वे जानते हैं कि उस तरह की महान फिल्में रचने की उनमें योग्यता ही नहीं है। इस साफगोई के लिए उनका शुक्रिया अदा करना चाहिए और इनके रीमेक के गुनाह से बचने की मुबारकबाद दी जानी चाहिए। सलमान खान की भी प्रिय फिल्म 'गंगा-जमना' है और उस कथानक को गांव से उठाकर महानगर में बनाने का ख्याल उन्हें आता है, परंतु सलीम-जावेद यह काम 'दीवार' में बखूबी प्रशंसनीय ढंग से कर चुके हैं।

हमारे सार्थक समानांतर फिल्मों के अधिकांश दावेदार प्रारंभ तो करते हैं एक क्रांति की तरह, परंतु अपनी छाप बनाने के बाद उसी तथाकथित 'क्रांति' की संकरी गली से मुख्य मार्ग पर आ जाते हैं, क्योंकि यही उनकी इच्छा भी थी। प्रकाश झा जैसी असाधारण प्रतिभा वाले व्यक्ति ने 'दामुल', 'मृत्युदंड', 'गंगाजल', 'राजनीति' और 'अपहरण' जैसी महान फिल्में रचने के बाद सितारों के साथ 'राजनीति' में बॉक्स ऑफिस सफलता पाई और बाद में 'आरक्षण' तथा नक्सलवाद पर सतही फिल्में बनाईं तथा अब बहुसितारा 'सत्याग्रह' बना रहे हैं। जयप्रकाश नारायण का आंदोलन उनका आदर्श रहा है और वे जानते हैं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ हर आंदोलन का राजनीतिक लाभ अंततोगत्वा प्रतिक्रियावादी गैर सेक्युलर वाली ताकतों को ही मिलता रहा है। जैसे सार्थक धारा के फिल्मकारों के मन में मुख्यधारा में शामिल होने की इच्छा बलवती होती है, वैसे ही मसाला सफल फिल्मकारों के मन में सार्थक फिल्म की तड़प रहती है और रुचियों की यह अदला-बदली प्राय: हादसों में बदल जाती है। सिनेमा क मध्यमार्ग ही श्रेष्ठ है, जिस पर चलकर ऋषिकेश मुखर्जी से लेकर राजकुमार हीरानी तक ने सफल मनोरंजक सार्थक फिल्में रची हैं। बहरहाल, विगत सौ सालों में मुख्य मार्ग के इर्द-गिर्द अनेक संकरी गलियां हैं और खुशी है कि सभी जगह आवन-जावन जारी है।