मुगलकालीन नहीं आधुनिक भारत / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 18 मई 2013
आदित्य चोपड़ा के लिए लेखक, निर्देशक अतुल सभरवाल ने 'औरंगजेब' बनाई है, जो मुगलकालीन नहीं वरन आधुनिक भारत की कहानी है, जिसमें तथाकथित विकास के मॉडल के तहत हाईवे, मॉल, मल्टीप्लैक्स और औद्योगिक घरानों के दफ्तर खुल रहे हैं, जिनमें नेताओं, पुलिस तथा व्यवस्था के हर विभाग के भ्रष्ट लोग शामिल हैं। इस नए निजाम में हिंसा और अपराध की जड़ें गहरी हो रही हैं। एक बर्खास्त पुलिस अफसर ने नए शहर से दूर घर बनाया था, परंतु थोड़े ही समय में नया महानगर उसके घर-आंगन तक आ गया। अपनी मृत्यु की दस्तक दरवाजे पर सुनकर वह अपने बेटे को एक जवाबदारी देता है, जिसे समझने की प्रक्रिया में कई राज खुलते हैं और व्यवस्था की सड़ांध के कारण भी उजागर होते हैं। बेटे की एक खाली बियर की बोतल लुढ़ककर उसके पैरों तक आती है, वह जंगल घास की तरह सीमेंट के बीहड़ को देखता है और खाली बोतल में अपनी बची हुई सांसें भरने की कोशिश करता है - यह खाली बोतल और एक वृद्ध की उखड़ती सांस ही सारे विकास की कलई उतार देती हैं। अनुपम खेर का फिल्म में यह एकमात्र दृश्य है, परंतु उसका आदर्श कि अपनों के लिए व्यक्तिगत सपने छोडऩे पड़ते हैं, पूरी फिल्म में प्रतिध्वनि की तरह बार-बार लौटकर आता है।
फिल्म में अनुपम खेर के सगे भाई ऋषि कपूर भी आला पुलिस अफसर है, जो नए विकसित होते महानगर को हड़पने के लिए एक अत्यंत पेचीदा षड्यंत्र रचता है, परंतु दो भाइयों के इस परिवार में एक ईमानदार अफसर और एक पवित्रता की प्रतीक मां के कारण षड्यंत्र विफल हो जाता है। यह बात इस कॉलम में अनेक बार कही गई कि भ्रष्टाचार का निदान कानून, अदालत और संसद के परे परिवार में नैतिकता के पाठ द्वारा ही संभव है। जिस देश में अधिकतम लोग सुविधाभोगी भ्रष्ट लोग हैं, वहां केवल एक नैतिक व्यक्ति के साहस से पतन की प्रक्रिया रुक जाती है। किसी स्कूल के पाठ्यक्रम में नैतिकता नहीं सिखाई जा सकती। यह काम माता-पिता और संस्कार का है। यह समस्या सड़क के नुक्कड़, संसद या रामलीला मैदान में नहीं सुलझ सकती। यह केवल परिवार में ही सुलझ सकती है। हर भ्रष्ट का दावा है कि वह अपने परिवार की भावी पीढिय़ों के लिए धन का संचय कर रहा है और अगर परिवार का ही केवल एक सदस्य विरोध करे तो यह समस्या की जड़ पर प्रहार होगा।
इस फिल्म में एक ईमानदार दामाद की हत्या से रहस्य के सारे परदे एक के बाद एक खुलने लगते हैं। आखिरी सिरा वह ईमानदार पत्नी है, जो अपने भ्रष्ट पति के खिलाफ मुखबिर बनने का प्रयास करती है। उसके आदर्श के कारण उसकी रक्षा के प्रति चिंतित पुलिस अफसर स्वयं के निलंबन को स्वीकार करता है, परंतु उस औरत की रक्षा करता है। नेता, पुलिस और उद्योगपति के आपसी स्वार्थ के कारण पनपते रिश्तों की पोल खोलने वाली फिल्म में प्लाट अत्यंत सघन है और सारे रिश्तों के आधार को समझने के लिए दर्शक को अपनी बुद्धि का प्रयोग करना पड़ता है। यह कोई युवा प्रेम-कथा नहीं है वरन अनुभवों की आग से निकले पारिवारिक जीवन की कहानी है।
इसमें ऋषि कपूर असली खलनायक हैं और इस समय वे भावाभिव्यक्ति के शिखर पर खड़े हैं। अर्जुन कपूर अपनी दोहरी भूमिका में यथोचित प्रभाव उत्पन्न करने में सफल हैं। सारे चरित्र कलाकारों ने भी कमाल का अभिनय किया है। अत्यंत सार्थक संवाद हैं। यह चिंता भी बखूबी अभिव्यक्त हुई है कि आने वाले समय में भव्य कॉर्पोरेट और भ्रष्ट व्यवस्था का गठबंधन तोडऩे के लिए एकल साहसी प्रयास ही पर्याप्त है। हाल ही में करोड़ों रुपए प्रतिवर्ष कमाने वाले तीन क्रिकेट खिलाडिय़ों ने कुछ लाख रुपयों के लिए अपना ईमान बेचा है। सुविधासंपन्न और शिक्षित व्यक्ति ही भ्रष्टाचार में डूबा है और उसके जमीर को उसके परिवार के लोग ही जगा सकते हैं। अत: भ्रष्टाचार के खिलाफ शंखनाद परिवार में ही करना होगा। यह एक गैरपारंपरिक परंतु निष्ठावान परिवार की कहानी है, जिसके गुमराह सदस्यों को परिवार ही सद्मार्ग पर लाने का प्रयास करता है। यह सघन प्लाट की गहन कथा है।
जयप्रकाश चौकसे