मुग्ध माधुरी / बालकृष्ण भट्ट
मुग्धता की छवि ही कुछ निराली है। मुग्धता में चेहरे के भोलेपन के साथ ही साथ एक अद्भुत पवित्र, स्थिर और सत मनोवृत्ति प्रतिबिंबत होती है। जिस सौंदर्य में भोलेपन की झलक नहीं वह बनावटी सौंदर्य है। बनावटी सौंदर्य में सागर के समान प्रसन्न गंभीर और स्थिर भाव कभी ढूँढ़ने से भी न मिलेगा। भोलेपन से खाली तथा दगीली खूबसूरती पहले तो कोई खूबसूरती ही नहीं है और कदाचित् हो भी तो कुटिलाई और बांकापन लिए हाव-भाव दूषित, मलिन और अपवित्र मन की खोटाई के साथ ऊपर से रंगी चुंगी सुंदरता छत के समान देखने वालों के मन में अवश्य अपवित्र और दूषित भाव पैदा करेगी। स्वाभाविक सरल सौंदर्य वही है जिसमें भोलापन मिला हो और जो देखने वालों के चित्त में अपवित्र और दूषित भाव पैदा करने के बदले प्रकृति के अद्भुत लोकोत्तर कामों का स्मरण दिलाता हुआ भक्ति-प्रवण मनमधुप को सर्वशक्तिमान के चरणकमलों के ध्यान में रुजू करता है। बहुतेरे ऐसे दृष्टांत मिलते हैं कि हिंसक ठग लोग भी ऐसों के सौंदर्य पर मोहित तथा उनका मुग्धमाधुरी के वशीभूत हो हिंसा के काम से निरस्त हो बैठे। हमारे 'नूतन ब्रह्मचारी' का किस्सा इसका एक उदाहरण है।
जैसा ब्राह्मण और ऋषियों के बालकों में पुस्त दरपुस्त की तपस्या से उत्पन्न ब्रह्मवर्चस् तथा क्षात्रकुल प्रसूत राजर्षियों में क्षात्रतेज की दमक निराली होती है और छिपाए नहीं छिपती उसी तरह रूप के संसार में मुग्ध माधुरी भी छिपाए नहीं छिपाती। नागरिक स्त्रियों की अपेक्षा ब्रजवनिता गंवारिन गोपियों में कौन-सी ऐसी बात थी कि हमारे कविगण रूपवर्णन में अपनी कविता का सर्वस्व उनकी रूप माधुरी को सौंप बैठे। कोकिल कंठ जयदेव, कवि कर्णपूर तथा और-और लीलशुक प्रभृति कवियों की कोमल कविता का उद्गार इन्ही व्रजवनिताओं ही के रूप वर्णन में क्यों हुआ? इसका कारण यही मन में आता है कि इन लोगों को नगरवधू तथा प्रसिद्ध राज कन्याओं के रूप में वह बात न मिली। वह केवल बेबनावटी भोलापन था जिससे कृष्ण ऐसे रसिक शिरोमणि इन पर मोहित हो इनके पीछे-पीछे डोलते फिरे। हजार में नौ सौ निन्यानबे लोग तेल और पानी मिली हुई हल्दी की वार्निश से चमकाये गए वाग्वनिताओं के जिस सौंदर्य तथा रूप को देखकर कीट पतंग की गति भुगतते हैं वह सौंदर्य तथा रूप के जौहर के सच्चे जौहरियों की दृष्टि में अत्यंत तुच्छ और हेय हैं। वरन् संयोगवश कभी को उनकी नजर भी ऐसे सुंदरापे पर पड़ जाती है तो उन्हें घिन पैदा होती है। यह स्वाभाविक बेबनावटी सौंदर्य ग्राम में ही पाया जाता है। यह सुकुमार पौधा नगर की दूषित वायु के लगने से मुरझा जाता है। राजर्षि दुष्यंत के राजभवन में कितनी राजमहर्षियों के होते हुए भी वल्कल और छाल से ढाँपे हुए ग्राम्य नगरी शकुंतला ही उनको सोहावनी हुई।
इयमधिकमनोज्ञा वल्कलेनापि तन्वी।
यह एक अद्भुत बात है कि जितने शुद्ध पदार्थ हैं वे बाहरी देखने वालों को रिझानेवाले गुणों में उनसे कम मालूम होते हैं जिनमें मिलावट है। शुद्ध सोना उतना न चमकेगा जितना मिलाया हुआ। अपने बनावटी रूप का अभिमान करने वालों का अभिमान क्षणिक होता है। जैस हल्दी का रंगा वस्त्र बड़ा चटकीला होता है परंतु घाम के लगते ही सब चटक उसकी एक छिन में बिला जाती है। लावण्य का लालित्य बढ़ाने में स्वाभाविक सौंदर्य सार पदार्थ है। इसी स्वाभाविक सौंदर्य को हम मुग्ध माधुरी कहते हैं। रूप की इस मुग्ध माधुरी का कुछ क्रम ही निराला है कि जो मुखच्छवि रेख भीनते-भीनते पूनों के चाँद-सी सोहती थी वही जवानी के आते ही मोछों की कालिमा से कलुषित हो सेवार के जाल से ढँपे हुए कमल की शोभा धर लेती है। अस्तु इस बिगड़ी दशा में भी यह छवि बहुत दिनों तक नहीं रहती। धुँआ से जैसा चित्र, हिमसंहात से जैसा कमल, अंधियारे पाख से जैसा चंद्रमा ढंग जाता है उसी तरह बुढ़ापे से यह छवि भी आक्रांत हो जाती है। भवभूति महाकिव ने इस मुग्ध माधुरी का कई ठौर बहुत उत्तम चित्र अपने उत्तर चरित्र में खींचा है यथा -
प्रतनुविरलै: प्रांतों मी लन्मनोहरकुंतलैर्दशनमुकुलैमुग्धालोकं शिशुर्दधती मुखम्।
ललितललितैर्ज्योत्स्नाप्रायैरकृत्रिमविभ्रमैरकृत मधुरैरम्बानां मे कुतूहलमंगके: ।।
अलसलुलितमुग्धान्यध्वसंजातखेदा दशिथिलपरिरंभैर्दतसंवाहनानि
परिम दितमणालीदुर्बलान्यंगकानि त्वमुरसि मम कृत्वा यत्र निद्रामवाप्ता।।
कवि कुलमुकुट कालिदास ने भी पार्वती के कोमल अंगों के वर्णन में कहा है-
असम्भृतं मंडनमंगयष्टेरनावाख्यं करणं मदस्य।
कामस्य पुष्पव्यतिरिक्तमस्त्रं बाल्यात्परं साथ वय: प्रपेदे।।
उन्मीलितं तूलिकयेव चित्रं सूर्याशुभिर्भिन्नमिवारविंदं।
वभूव तस्याश्चतुरस्त्रशोभि वपुर्विभक्तं नवयौनेन।। इत्यादि
बिहारी ने भी लिखा है-
छुटी न शिशुता की झलक, झलक्यो योवन अंग।
दीपति देह दुहून मिल, दिपति ताफतारंग।।
तियतिथि तरणि किशोर वय, पुण्य काल सम दोन।
काहू पुण्यनि पाइयत, वैस संधि संक्रोन।।
चितवन भोरे भाव की, गोरे मुह मुसकानि।
लगानि लटकि आली गरै, चित खटकत नित आनि।।