मुझको भी तरकीब सिखा दे, यार जुलाहे / ममता व्यास

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सोचती हूं रिश्तों पर लिखूं या, समाज पर। मन पर लिखूं या प्रेम पर, खुद पर लिखूं या औरों पर एक विचार का सिरा पकड़कर लिखना शुरू करती हूं तो दूसरा सिरा गुम हो जाता है। फि र उसे पकड़ू तो बाकी सारे भाव तितलियों के मानिंद फुर्र से उड़ जाते हैं।

अब इन चंचल तितलियों को कौन पकड़े चलिए, ऐसा करती हूँ जो सिरा हाथ लगता है उसे ही पकड़ कर बात शुरू करती हूँ देखना, बाकी सारे भाव भी चुपचाप एक के पीछे एक धीरे-धीरे आकर खुद ही जुड़ते जायेंगे।

असल जि़न्दगी में भी तो हम कुछ ऐसा ही करते हैं रिश्तों के ताने बाने बुनते हैं। एक सिरा यहाँ से एक वहाँ से और ताउम्र अपने इस ताने बाने के खेल में हारते-जीतते रहते हैं। एक सिरा टूटा तो उसे जोडऩे लगे फि र वहां दूसरा टूटा तो उसे बनाने लगे। कहीं संतुलन बिगड़ ना जाये इसी होशियारी में अपनी जि़न्दगी गुजार देते हैं, लेकिन लाख जतन करने पर भी यही होता है कि “गाँठ अगर पड़ जाए तो रिश्ते हो या डोरी। लाख करें कोशिश जुडऩे में वक्त तो लगता है हम अपनी जरूरतों के हिसाब से रिश्ते तो बुन लेते हैं कभी दोस्ती के रिश्ते, प्रेम के रिश्ते, उजागर रिश्ते, छुपे रिश्ते, दिखावे के रिश्तें, छलावे के रिश्ते और ना जाने कितने बेनाम रिश्ते हम अपनी जि़न्दगी में बुनते हैं और इनमें उलझते रहते हैं, लेकिन कोई ऐसी तरकीब हमें नहीं आती कि हम इन्हें टूटने से बचा लें।

कभी-कभी सोचती हूं, लोहे की जंजीरों से भी मजबूत रिश्ते जरा सी बात पे कैसे चट्ट से टूट जाते हैं और पट्ट से हमेशा के लिए दूर हो जाते है। क्या कोई ऐसा रसायन नहीं है जो इन रिश्तों को फिर से पहले कि तरह नया कर दे अब आप कहेंगे कि प्रेम का रसायन ही रिश्तों की रिपेयरिंग कर सकता है तो मैं कहूंगी कि जनाब सबसे ज्यादा गाँठ प्रेम में ही पड़ती है और प्रेम के रिश्तों में पड़ी दरारें किसी भी रसायन से नहीं भरती।

बहरहाल मैं बात कर रही थी कि कोई ऐसी तरकीब नहीं है क्या जो रिश्तों को टूटने से बचाले और यदि टूट कर जुड़ जाए, तो गाँठ नजर न आये तरकीब से याद आया। इस विषय पर गुलजार ने बहुत ही खूबसूरत और गहरी बात कही है वे कहते हैं कि-

“मुझको भी तरकीब सिखा दे यार जुलाहे

अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते

जब कोई तागा टूट गया या खत्म हुआ

फि र से बाँध के और सिरा कोई जोड़ के उसमें

आगे बुनने लगते हो

तेरे इस ताने में लेकिन इक भी गाँठ गिरह बुन्तर की

देख नहीं सकता कोई

मैंने तो इक बार बुना था

इक ही रिश्ता

लेकिन उसकी सारी गिरहें

साफ नजर आती हैं

गहरी बात इससे पहले की कोई रिश्ता हम से जाने अनजाने टूट जाए उसे हम बचा ले वरना वो टूटने के बाद फि र से नहीं बन सकेगा और यदि बन भी गया तो उसकी गांठे आपको चैन से जीने नहीं देगीं। बहुत मुश्किल है रिश्तों को सहेजना उन्हें संभालना, उन्हें पालना मन में चुभी कोई फ ांस जीवन भर टीस देती है। एक सच्चा रिश्ता हाथ से खो जाये तो दुनिया के सभी रंग फीके लगते हैं। कोई भी जतन, कोई भी तरकीब कीजिये, लेकिन रिश्तों को बचा लीजिये। किसी जुलाहे को पुकारिए और कहिये कि, मुझको भी तरकीब सिखा दे यार जुलाहे...।