मुझे नहीं होना बड़ा / दीपक मशाल
आज फिर सुबह-सुबह से शर्मा जी के घर से आता शोर सुनाई दे रहा था। मेरे और उनके घर के बीच में सिर्फ एक दीवार का फासला है। बड़ी आसानी से उनके घर की ज़रा-सी भी ऊंची आवाज़ हमारे घर में सुनाई दे जाती है। मालूम पड़ा—किसी बात को लेकर बड़े भाई अमित की अपने छोटे भाई अनुराग से कहा-सुनी हो गयी है। बात जब हाथापाई तक पहुँचती लगी तो मुझसे रहा नहीं गया और बीच-बचाव के लिए मैं उनके घर पहुँच गया। हालांकि इस कोशिश में मैं नाक पर एक घूँसा खा गया और चेहरे पर भी कुछ खरोंचें चस्पा हो गयीं, मगर संतोष इस बात का रहा कि उनका युद्ध महाभारत में तब्दील होने से बच गया। वैसे तो अमित और अनुराग दोनों से ही मेरे दोस्ताना बल्कि कहें तो तीसरे भाई जैसा रिश्ता था लेकिन अल्लाह की मेहरबानी थी कि उन दोनों के बीच आये दिन होने वाले झगड़े की तरह इस तीसरे भाई से उनका कोई झगड़ा नहीं होता था।
अमित के दो बेटे हैं—बड़ा ७-८ साल का है और छोटा ४-५ साल का। झगड़े के समय वे दोनों खिसियाने से दाल्हान के बाहरी खम्भों से ऐसे टिके खड़े थे जैसे कि खम्भों के साथ उन्हें भी मूर्तियों में ढाल दिया गया हो। उनकी फटी-फटी आँखें और खुला हुआ मुँह देखने लायक था। झगड़ा निपटने के लगभग आधे घंटे बाद जब दोनों कुछ संयत होते दिखे तो उनकी माँ, सुहासिनी भाभी, उनके लिए दूध से भरे गिलास लेके आयीं।
”चलो तुम लोग जल्दी से दूध पी लो और पढ़ने बैठ जाओ।” भाभी की आवाज़ से उनके उखड़े हुए मूड का पता चलता था। बड़े ने तो आदेश का पालन करते हुए एक सांस में गिलास खाली कर दिया लेकिन छोटा बेटा ना-नुकुर करने लगा।
भाभी ने उसे बहलाने की कोशिश की,“दूध नहीं पियोगे तो बड़े कैसे होओगे, बेटा?”
“मुझे नहीं होना बड़ा…” कहते हुए छोटा अचानक फूट-फूट कर रोने लगा,“मुझे छोटा ही रहने दो… भईया मुझे प्यार तो करते हैं…”