मुझे मुक्त कर दो / नीरजा हेमेन्द्र
वह तीव्र कदमों से कार्यालय की ओर बढ़ती जा रही थी। घर की जिम्मेदारियों को पूरा करने के साथ ही साथ उसे कार्यालय भी समय पर पहुचना है। यदि वह अकेली होती तो अपने लिए खाने-पीने की व्यवस्था कहीं पर भी कर लेती कुछ भी रूखा-सूखा खा कर जीवित रह लेती, किन्तु घर में माँ-पिता जी हैं। उनके लिए सभी कुछ करना है। एक तो वृद्ध शरीर ऊपर से उम्र जनित बीमारियाँ। उनके खाने पीने की अलग से व्यवस्था कर के तथा दवा इत्यादि रख कर उन चीजों के विषय में उन्हे समझा कर आने में उसे कभी- कभी कार्यालय पहुँचने में विलम्ब होने लगती है। वैसे तो उसी घर के आधे हिस्से में उसके बड़े भइया अपने परिवार के साथ रहते हैं। माता-पिता से उनका संबन्ध औपचारिकता मात्र ही है। वह अलग रहतें हैं। घर का आँगन कए ही है। यदि माता-पिता उन्हे आँगन में दिख जायें तो वे मौसम, महंगाई व अन्य निरर्थक समस्याओं पर हल्की-फुल्की बात-चीत कर लेंगे, किन्तु माता-पिता के स्वास्थ्य, उनके सुख-दुःख व उनकी आवश्यकताओं की बात नही पूछेंगें। पिता जी भी कैसी कातर व आशा भरी दृष्टि से उसे देखने लगते हैं। इन्ही पारिवारिक समस्याओं व व्यस्तताओं से जूझते हुए वह प्रतिदिन कार्यालय पहुँचती है।
कार्यालय पहुँच कर वह काम में व्यस्त हो गयी। व्यस्तता कुछ कम हुई तो वह अपने लक्ष्य विहीन जीवन के विषय में सोचते सोचते विगत् दिनों की स्मृतियों में विलीन होने लगी। कितने खूबसूरत दिन थेे- “वे दिन जब वो कॉलेज जाती थी। बचपन कुछ पग पीछे गया था व किशोरावस्था यौवन की ओर अपने पग बढ़ा रहा था। यहाँ, इसी छोटे से शहर के कॉलेज में उसका नामांकन करा दिया गया था। घर में सब उसकी बु़िद्धमत्ता ही प्रशंसा करते थे। पिता जी को उससे बड़ी आशायें भी थीं कि पढ़-लिख कर वह अपने पैरों पर खड़ी होगी तथा सुखी जीवन व्यतीत करेगी। वर्ष-दर-वर्ष व्यतीत होते जा रहे थे। उसने स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। उसके पिता उसे उच्च शिक्षा दिला कर आइ0ए0एस0 आॅफिसर बनाना चहते थे। वह भी उनके सपनों को पूरा करना चाहती थी। पूरे मनोवेग से अध्ययन में रूचि ले रही थी। वे दिन कितने सुखद थे।
वह नगर बस से कॉलेज जाती थी। बस में उसके कॉलेज में साथ पढ़ने वाले लड़के लड़कियाँ भी मिल जाते। सब आपस में खूब बातें, हास-परिहास करते हुए कॉलेज आते-जाते। वे दिन भी कितने सुहाने थे। किसी प्रकार का कोई उत्तरदायित्व नही। दिन, समय की नदी में बहते जल की भाँति सरलता से व्यतीत होते जा रहे थे। ऐसा लगता था, जैसे इन्ही सुखद लम्हों से मिल कर जीवन बना है। बस! यही जीवन है।
उसे स्मरण हैं वे दिन। वह दुबली-पतली, सामान्य लम्बी तथा गेहँए रंग की लड़की थी। लम्बे बालों की दो चोटियाँ बाँध कर सलवार-कुरता पहन कर वह कॉलेज जाती थी। उसके साथ की लड़कियाँ उसके सादगी युक्त सौन्दर्य की प्रशंसा करती थीं। उनकी दृष्टि में मैं अत्यन्त आर्कषक लगती थी। वे प्रति दिन मेरी प्रशंसा में कुछ न कुछ कही करतीं थीं। मुझे अपनी प्रशंसा अच्छी नही लगती थी। मैं स्वयं को साधारण रंग-रूप वाली युवती ही मानती थी। कदाचित् मैं अपना आकलन करने में भूल कर रही थी। ऐसा न होता तो वह प्रतिदिन बस में आते-जाते मेरी ओर क्यों आकृष्ट क्यों होता? वह भी बस से ही आॅफिस आता-जाता था। उस समय उसका नाम मुझे नही ज्ञात था न ही ज्ञात करने की इच्छा। वह गौर वर्ण का लम्बा, आर्कषक युवक था। यदा-कदा बस में दिखाई देता था। मैं जब भी उसकी तरफ देखती, वह मुझे अपलक मेरी ओर देखता मिलता। उसे यूँ अपनी तरफ देखता पा कर मैं सकुचा जाती व चुपचाप बैठी रहती। धीरे-धीरे वह प्रतिदिन मुझे मेरी बस में मिलने लगा। न जाने उसने मुझमें क्या देखा? वह मेरी ओर आर्कषित हो चुका है, इस बात का आभास मुझे उस दिन हुआ, जब वह बस में मेरे ठीक पीछे आ कर खड़ा हो गया। मेरे बस से उतरने तक वह मेरे पीछे खड़ा रहा। फिर तो वह प्रतिदिन बस में मेरे पीछे खड़ा रहता, तथा मुझे देखता रहता।
एक दिन मेरे बस से उतरते ही वह भी मेरे पीछे-पीछे कॉलेज के पास उतर गया। जब कि वह उसी बस से आगे तक जाता था। बस से उतरते ही उसने अत्यन्त शालीनता से मुझे पुकारा तथा मुझसे मेरा नाम पूछा। मैं किसी अजनबी को अपना परिचय क्यों बताती? मैं आगे बढ़ गयी। वह वहीं खड़ा रह गया।
इन सब बातों से निर्विकार मैं अपनी शिक्षा की तरफ पूरा ध्यान दे रही थी। वह पूर्ववत् बस में मुझे दिखता रहता। मैं अपनी सहेलियों के साथ बातें करती रहती या बस की खिड़की से प्राकृतिक दृश्यों से तारतम्य जोड़ लेती। उसकी तरफ से अनभिज्ञ होने का प्रयत्न करती। प्रकृति तो मुझे बाल्यावस्था से ही अपनी ओर आकृष्ट करती थी। सड़क के दोनो ओर फैले हरे-भरे खेत मुझे मखमली कालीन के सदृश्य लगते, और उनमें बनी सर्पीली पगडंडियाँ कालीन में बने अद्भुत चित्र के समान। मैं प्रकृति के मनोरम सौंदर्य में स्वयं को आत्मसात् कर लेती। सड़क के दोनो ओर कतारबद्ध रूप से उगे शीशम, पलाश, आम, अमलतास व ढाक के वृक्षों पर ऋतुओं का आना-जाना व उनका प्रभाव देखती वृक्षों व ऋतुओं के सम्बन्धों में मुझे पूरा दर्शन शास्त्र समाहित नज़र आता। समय के साथ ऋतुओं का आगमन व प्रस्थान होता रहा। मेरे शिक्षा सत्र भी समापन की ओर बढ़ चले। वह भी बस में मुझे दिखता रहता, मेरे पीछे खड़ा। धीरे-धीरे मुझे उसकी आदत-सी होने लगी थी। कभी भीड़ के पीछे उसके अदृश्य होने की स्थिति में मेरे नेत्र उसे ढूँढ लेते। मार्च का महीना प्रारम्भ होने वाला था। वार्षिक परीक्षा की तिथियाँ घोषित हो चुकी थीं। कालेज में मेरा यह अन्तिम वर्ष था। मैं भी पूरे मनोवेग से पढाई में लगी थी।
पूर्व की भाँति में उस दिन भी मैं बस से उतर कर कॉलेज के मुख्य गेट की ओर बढ़ रही थी। सहसा किसी ने पीछे से मेरा नाम ले कर मुझे आवाज दी। मैंने पलट कर देखा। वह ठीक मेरे पीछे खड़ा था। मैं चैंक-सी गयी। मेरे चैंकने का कारण यह था कि उसे मेरा नाम नाम कैसे ज्ञात हो गया? मैंने क्रोध भरी प्रश्नवाचक दृष्टि उस पर डाली। वह सकपका कर मेरी ओर देखते हुए बरबस बोल पड़ा- “मैं...मैं... आपसेे कुछ कहना चाहता हूँ...।” उसके वाक्य पूरे भी न हुए थे कि मैं तेज स्वर में उसे डाँटने लगी। मेरा क्रोध देख कर वह चुप हो गया था वह। मैं बोलती चली जा रही थी। न जाने क्या-क्या कह दिया था मैंने उसे उस दिन। प्रत्युत्तर में वह सिर्फ इतना ही बोल पाया था-” क्षमा कीजिएगा। “मैं कॉलेज चली आई।
इस घटना के पश्चात् भी वह कॉलेज आते-जाते बस में मुझे मिलता रहता। परीक्षयें समाप्त होने वाली थीं। मेरे सभी प्रश्न-पत्र अच्छे हो रहे थे। मैं प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी पर विचार कर रही थी। मेरे जीवन में फिलवक्त कोई अन्य लक्ष्य नही था। मैं आगे की शिक्षा अनवरत् रखते हुए नौकरी हेतु प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी का मन बना चुकी थी। उधर माँ-पिता जी मेरे ब्याह की चर्चा-परिचर्चा कर रहे थे। शीघ्र ही एक दिन वह भी आ गया जब मेरा व्याह निश्चित कर दिया गया। मेरे जीवन में बहुत कुछ अपूर्ण रह गया। आगे बढ़ कर कुछ कर पाने का जो स्वप्न मैं जी रही थी, जिसके लिए माँ मुझे प्रेरित भी कर रही थी वह युवावस्था तक आते-आते समाप्त क्यों हो गया? उनकी क्या मजबूरी थी? भईया भी तो उच्च शिक्षा प्राप्त कर आगे बढ़ रहे थे। उन्हें किसी ने नही रोका, फिर मुझे क्यों रोक दिया गया? माँ के घर में मैं अपनी कोई इच्छा पूरी नही कर पाई थी। मुझे याद है कॉलेज के दिनों की वो बात, जब एक बार मेरी कुछ सहेलियों ने छुट्टियों में फिल्म देखने का कार्यक्रम बनाया था। वो मुझे भी साथ ले जाना चहती थीं। मेरी भी इच्छा थी, उन सब के साथ फिल्म देखने की। मैंने माँ से जाने के लिए पूछा तो माँ ने कहा था, “घूमना- फिरना, फिल्में देखना यह सब विवाह के पश्चात् करना।” उस दिन के लिए तो माँ ने अनुमति दे दी, किन्तु मैं पुनः कभी भी माँ से ऐसी किसी बात के लिए पूछने का साहस नही जुटा पायी। उन्होने मेरा विवाह तय कर दिया था और उसमें मरी सहमति- असहमति पूछने का प्रश्न ही कहाँ उत्पन्न होता? लड़की की इच्छा जानने की आज्ञा समाज कहाँ देता हैं। मेरे द्वारा प्रतिवाद करने का प्रश्न ही उत्पन्न नही होता।
मेरा विवाह अवश्य हुआ, किन्तु इसी समाज में रहने वाले मेरे ससुराल के सामाजिक प्राणियों ने, जिनमें मेरे पति भी सम्मिलित थे, जब दहेज के लिए मुझे भीषण प्रताड़ना दी तब मेरे माता-पिता को यह अनुभूति हो पायी कि “उनसे भूल हुई है। काश! वे मुझे आगे बढ़ने के कुछ अवसर और देते। मैं आत्म निर्भर हो पाती। “इसे भाग्य का लिखा कहें कि मानवीय भूल जिसका मूल्य मुझे अपनी इच्छायें, अपने सपने, अपना जीवन दे कर चुकाना है। मेरे माता-पिता मेरी दुर्दशा देख कर शीघ््राता से वृद्धावस्था की तरफ बढ़ चले। मैं ससुराल में रह कर दुर्बलता व बीमारियों का शिकार हो रही थी। अपनी शिक्षा भूल रही थी। पुस्तकें व कलम मेरे लिए अजनबी हो रहे थे। समाज का कोई भी व्यक्ति मेरी इस दुर्दशा का साक्षी न था। मैंने ससुराल में रहने का, समायोजित होने का अथक प्रयत्न किया, किन्तु मैं टूट गयी। एक दिन माता-पिता की दहलीज पर पुनः खड़ी हो गयी। माँ, पिता व भाई सबने मुझे सहारा दिया, मेरा साहस बढ़या। मैं पुर्नजीवित हुई, और नौकरी हेतु प्रयत्न करने लगी। श्नैः- श्नैः इन सबमें व्यस्त हो कर अपना अतीत किसी दुःस्वप्न की भाँति भूलने लगी। मैं वो बेगाना शहर छोड़कर अपने शहर में आतो गयी, जहाँ की हवाएँ, वृक्ष-पत्ते, ऋतुएँ, सब कुछ जानी पहचानी -सी थीं। किन्तु अकेलेपन के क्षणों में मेरे हृदय में एक प्रश्न बार-बार उत्पन्न होता कि, “क्या यह शहर मेरा है? क्या यह समाज एक लड़की को पिता का शहर, पिता का नाम अपनाने की स्वीकृति देता है? यदि नही देता है तो क्यों? यह प्रश्न अनुत्तरित ही रहता।
कुछ समय पश्चात् मेरे जीवन में प्रसन्नता के कुछ पल तब आये जब मेरा चयन नौकरी के लिए कर लिया गया था। मेरे आत्मविश्वास में कुछ वृद्धि हुई। कम से कम मैं अब आर्थिक रूप् से सबल थी। किसी पर बोझ नही थी।यह मेरा सौभाग्य था कि मेरी प्रथम नियुक्ति इसी शहर में हुई। कदाचित् मुझे जीवन में अभी और संघर्षों का सामना करना था, क्यों कि भईया विवाह के पश्चात् माँ-पिता जी से अलग हो गये थे। जब कि पुत्र होने के कारण माँ-पिता जी ने उन पर स्नेह की विशेष कृपा की थी। आर्थिक रूप से भी भईया को सबल बनाया था।फिर भी उनके व्यवहार में न जाने कहा से परायापन समाता चला जस रहा था। मैं माँ-पिता जा का एक मात्र सहारा बन गयी थी। मेरा लक्ष्य विहीन जीवन और कठोर संघर्ष देख कर माँ-पिता जी भी दुःखी हो जाते, किन्तु मैं यन्त्रवत् जिए जा रही थी।
समय का पहिया अपनी गति से घूमता जा रहा था। एक दिन निलय मुझे पुनः बस स्टैण्ड पर खड़ा दिख गया। मैं कार्यालय जाने के लिए बस की प्रतिक्षा में खड़ी थी। मुझे देखते ही वह मेरी ओर बढ़ा ही था कि मैंने उसे अनदेखा करते हुए अपना चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया। दरअसल मैं उसके प्रेम का तिरस्कार कर शर्मिन्दा थी, और उससे दृष्टि चुरा रही थी। मेरा नाम तो उसने उसी समय ज्ञात कर लिया था, किन्तु उसका नाम मुझे जीवन के दूसरे दौर के मुलाकात में ज्ञात हो पाया। निलय! उसके नाम में भी मुझे उसी जैसा आर्कषण व शालीनता की अनुभूति होती। वह मेरे पास आ कर खड़ा हो गया। मुझसे मुखातिब हो कर बातें करने लगा। इन विगत वर्षों के दरम्यान ऐसी बहुत सी बातें थीं जो वह मुझसे पूछना चाहता था। मैं बताना चाहती थी। उसने अनेक बातें पूछीं व मैंने बताईं भी। मुझे वह अपना-सा लगने लगा था। वह स्नेहिल नेत्रों से मुझे देखता रहा, उसी प्रकार जैसे कॉलेज के दिनों में भाव पूर्ण नेत्रों से मुझे चुपचाप देखता रहता। उसकी आँखें वही थीं, किन्तु मैं बदल गयी थी। मैं उससे दूर जाना चाहती थी, किन्तु वह...।
मैं नयी नौकरी व वृ़द्ध माता-पिता की देख भाल की जिम्मेदारियों में व्यस्त हो गयी थी। निलय मेरे आस-पास ही रहता। उसने बताया कि उसका भी विवाह तय हो गया था, किन्तु उसने वह रिश्ता तोड़ दिया है। क्यों? क्या कारण है? मैं उसके योग्य अब नही हूँ। मैं तो एक परित्यक्ता हँू। रूढि़गत् समाज के योग्यता- अयोग्यता के ये पैमाने उसके कदमों को आगे बढ़ने देंगे। किन्मु निलय उन रूढि़यों को तोड़ते हुए मेरे माता-पिता से मिलना चाहता है।मेरे समक्ष अनेक प्रश्न खड़े हैं। मैं स्त्री हूँ और स्त्री का एक गुण है संवेदनशीलता और मानवता। मैं सोचती हूँ “मेरे विवाह कर के कहीं और बस जाने के उपरान्त मेरे माता-पिता का क्या होगा? उनकी देखभाल कौन करेगा? माँ से पूछने पर वह कहतीं हैं कि मैं उनकी फिक्र न करूँ। निलय अविवाहित हैं, क्या उनका परिवार और हमारा समाज उन्हेे एक परित्यक्ता से विवाह की अनुमति देगा? क्या वह इस समाज के कटु प्रहारों के समक्ष खड़ा रह पाएगा? कहीे समय के थपेड़ों से वह डगमगा गया तो? “आज इन सभी प्रश्नों के उत्तर उसे निलय से जानने हैं। वह कार्यालय के कार्यों को तीव्रता से निपटाने लगी। उसने सोच लिया है आज जब वह कार्यालय से घर जाने के लिए निकलेगी निलय से इन सभी प्रशनों के उत्तर जानेगी।
सायं निलय उसे बस स्टैण्ड पर प्रतिक्षारत मिला, सदैव की भाँति। मैंने उसके समक्ष अपने ह्नदय में पल रहे अनेक प्रश्नों की झड़ी लगा दी है। मेरी बातें सुन कर वह मुस्कराता रहा। कुछ क्षणें के उपरान्त वह मुझेसे बोला, “इतने दिनों में क्या तुमने मुझे इतना ही जाना है कि मैं विपरीत परिस्थितियों में परिवर्तित हो जाऊँगा? ऐसा नही हूँ मैं। मैं तो आज भी वहीं खड़ा हूँ जब मैंने तुमसे तुम्हारा नाम भर पूछा था, और तुम ही मुझे प्रतीक्षारत छोड़ कर आगे बढ़ गयी। मुझे तुम्हारे जीवन में आने वाली दुःखद परिस्थितियों का आभास था। मैं दृढ़ प्रतिज्ञ था कि मैं अविवाहित रहूँगा। जब भी तुम्हे संबल की आवश्यकता होगी तुम मुझे पाओगी।
निलय की बातें सुन कर मेरे नेत्रों से अश्रु की बूँदे छलक पड़ी। इन अश्रुओं को मैंने उन दिनों से रोक रख था, जब मेरी इच्छा के विपरीत मेरा व्याह कर दिया गया और मैंने कोई प्रतिवाद नही किया था। इन आसुओं को मैंने उन दिनों से रोक रखा था जब ससुराल में मेरी शिक्षा, योग्यता को दरकिनार करते हुए दहेज के चन्द पैसों के लिए मेरे साथ अमानवीय व्यवहार किया गया। इन अश्रुओं को मैंने उन दिनों से रोक रखा था जब ससुराल से वापस पिता के घर आते ही मेरे भइया ने अपने उत्तरदायित्व से मुँह मोड़ते हुए वृद्ध माता-पिता को तिरस्कृत कर मेरे सहारे कर दिया था। इन अश्रुओं को निलय के सबल हाथों ने अपनी हथेली पर रोक लिया है। मैं भावशून्य-सी यह समझने में असमर्थ हो रही हूँ कि अपनी इस दुर्दशा का दोष किसे दूँ? कदाचित् स्वयं को। काश! मैं उस समय प्रतिवाद करने का साहस कर पाती जब मेरे माता-पिता ने मेरी इच्छा के विपरीत मेरा विवाह कर दिया था। मैं अब ये साहस करूँगी। मैने सोच लिया है, भइया को भी उनके उत्तरदायित्व का बोध कराऊँगी। मैं चल पड़ी हूँ निलय के साथ अपने घर की ओर...।