मुट्ठी भर रोशनी / तेजेन्द्र शर्मा
शाम के धुंधलके में उसकी निगाह खिडक़ी में से गुजरते हुए अथाह समुद्र पर जा टिकी. उसे महसूस हुआ जैसे समुद्र भी उसकी अपनी ही तरह उफनती हुई भावनाओं को अपने अन्दर समेटे हुए है. कुछ ही क्षणों में सितारे चमकने लगेंके और फिर चांद भी निकलेगा. कितना अकेला होता है यह चांद, इन सितारों के बीच! एकदम उसकी अपनी ही तरह!
वह उठी और उसने नौकरानी को आवाज़ दी. आज इस घर में वह केवल अपनी नौकरानी कला के साथ रहती है. वर्तमान एवं भविष्य से जैसे उसका कोई सम्बन्ध ही नहीं. वह अतीत में जी रही है और केवल अतीत में ही जीना चाहती है. कला के आने पर उसने एक कप चाय बनाने को का. उसे लगा जैसे सामने समुद्र से निकलकर कोई साया उसकी आर बढ रहा है. वह हांफने लगी.
'बीबीजी चाय', कला चाय ले आई थी.
चौंक-सी गई सीमा. 'रख दो मेज़ पर.'अरे हा/, कई दिनों से तुम्हारा पति नज़र नहीं आया. पहले ता बहु चक्कर लगया करता था.'
'क्या बाताएं बीबीजी, यह मरदुए होते ही ऐसे हैं. अभी दः महीने शादी को नहीं हुए और मेरे से दिल भर गया. न जाने कौन-सी छिनाल पर नज़र है उसकी. पहले तो हर रात कुतद्वतों की तरह मुझे चाटता फिरता था. आजकल तो शक्ल ही नहीं दिखाता.'
और सीमा को महसूस हुआ कि हर औरत के जीवन में कहीं न कहीं एक काला साया मंडरा रहा है. यही कला शादी से पहले कितनी चंचल थी. कितनी बिन्दास, बिल्कुल जंगली हिरनी की तरह. मगर शादी होते ही!
सीमा ने चाय का कप होठों को लगाया, ौर पहला घू/ट भरते ही बोली, 'रे कला, चाय में चीनी डालना भूल ही गई!'
'अच्छा है न बीबीजी, एक तो चीनी की बचत होगी. और आजकल तो फैसन हो गया है फीकी चाय पीने का.' और कला ह/सती हुई चीनी लेने चल दी.
सीमा को कला की भाषणवाजी पर ह/सी आ गई. उसने चाय का घू/ट भरा. वह सोच रही थी बिना चीनी की चाय पीनी इतनी मुश्किल नहीं है उसके लिए. वैसे भी उसका जीवन क्या है? बिना चीनी के चाय का एक कप ही तो है. रसहीन! लक्ष्यहीन! वह जी रही है पर वह स्वयं नहीं जानती किसके लिए. एक थके हुए मुसाफिर की तरह बस चलती जा रही है. सम्भवतः इसलिए कि उसके लिए ज्ािन्दगी जाने का नाम नहीं समय काटने का पर्याय बन गई है. क्यों जी रही है वह? शायद इसलिए कि वह मर नहीं सकती. उसे कभी-कभी यह भी लगता है कि वह बहुत कायर है, मरने से डरती है, तभी तो!
'बीबी जी, राजू बाबू आए हैं.'
'अच्छा! उसे अन्दर ले आओ.' चाय का खाली कप कला को पक़डाते हुए सीमा बोली.
राजू! क्यों आया है? सीमा के मस्तिष्क में खलबली-सी मच गई. मनीष की मौत के बार आज पहली बार राजू. वह मनीष का करीबी दोस्त थाउसका हमराज.
'नमस्ते सीमाली, असे आप अन्धेरे में ही बैठी हैं?'
'कला जुरा बत्ती जला दो.' सीमा ने कला को आवाजु दी.
कैसे कहती कि अब तो अन्धेरा ही उसका जीवन है. कमरे में बतद्वती जला देने से उसके भतर का अन्धेरा कम नहीं होगा. अन्धेरा, जो समय बीतने के साथ-साथ और गहराता जा रहा है.
'आज इधर कैसे? तुम तो शायद जर्मनी चले गए थे न?'
सीमा ने कमरे के सन्नाटे को तोडुने की चेष्टा की.
'जी हा/ फ्रैंकफर्ट में हू/. एक महीने की छुट्टी लेकर आया हू/. मा/ आजकल शादी के लिए बाध्य कर रही है. मनीष की या ज़हन से निकलती ही नहीं. और अब तो सच यह है कि शादी के नाम से डर-सा लगने लगा है, अबसे मनीष.'
सीमा के दिल में एक खूल-सा चुभ गया. उसे लगा राजू उसे ही इस सबका दोषी मानता है. उसका कटाक्ष उसी की ओर है. वह तडप उठी, 'क्यों आए राजू तुम, क्यों तुम लोग मुझे चैर से नहीं जीने देते! क्यों आकर मेरे जख्म कुरेदते हो!' उसने मन-ही-मन कहा.
'सीमा जी मनीष के कुछ चित्र जर्मन पत्रिका ने प्रकाशित किए हैं. और उनके लिए पच्चीस हजार मार्क्स का पुरस्कार भी दिया है. इस पुरस्कार की सही अधिकारिणी तो आप ही हैं. यह लीलिए.'
'सीमा की आ/खें का बा/ध टूटने लगा. बहुत कोशिश के बावजूद वह अपने आ/सू रोक नहीं पाई. मनीष ने अपने जीवन में उसे क्या नहीं दिया-वास्तव में अपना जीवन ही दे दिया. और अब मरने के बार भी! सीमा को लगा वह पागल हो जाएगी.
'और यह एक छोटी-सी भेंट आपके लिए', राजू ने एक पैकेट मेज़ पर रख दिया-जिसमें एक 'हेयर ड्रायर' था.
राजू के जाने के बाद बहुत देर तक प्रकृतिस्थ नहीं हो पाई. बल्कि उसके जाने के बाद ज्वालामुखी अपने पूरे जोर के साथ फट पडा था. कला के लिए वह कोई नई बात नहीं थी. पिछले दो वर्षों से वह अपनी मालकिन को इसी तरह अकेले में, बेतहाशा रोते हुए दंखती रही है.
आखिर मनीष ने आत्महत्या क्यों की?
सीमा के हाथ में वो पत्रिका थी जिसमें मनीष का पुरस्कृत चित्र भी प्रािशत हुआ था. उसने पत्रिका खोली और उसकी निगाह एक चित्र पर टिक कर ाह गई. एक बकरा सार्वजनिक शौचालय के टूटे हुए नल से पानी पी रहा था. थोड़ा दूर रे देखने पर लगता जैसे बकरा भी आम मनुष्य की तरह वहा/ मूत्र त्याग रहा हो. क्या विडम्बना थी-वो शौचालय जिसे कोई भी मनुष्य गन्दगी के कारण उपयोग में नहीं लाता था. एक बकरे ने उसके अस्तित्व का औचित्य सिध्द कर दिया था. अपनी प्यास बुझाकर. मनीष को अपना यह चित्र सबसे अधिक प्रिय था. मन फिर यादों की पर्तों में झा/कने लगा. मनीष अपना कैमरा स/भो सूटकेस उठाए राजधानी एक्सप्रेस की ओर बढ रहा था. सीमा उसे विदा करने आई थी. मनीष पहली बार दिल्ली जा रहा था- उत्साह से भरपूर. उसकी पेंटिंग्ज़ की एक प्रदर्शनी दिल्ली के अशोक होटल में लगने वाली थी. उसने सीमा के पा/व छुए. सीमा का दिल भर आया था. इतना प्यार, इतना सम्मान तो उसके अपने भाई ने भी नहीं दिया था. 'मेरे भाई, तुझे अपने जीवन में असीम सफलता मिले.' 'दीदी!' और गला रू/ध गया. गाडी ने सीटी बजाई और चल दी. मनीष गाडी में से उचक-उचक कर तब तक हाथ हिलाता रहा जब तक वह सीमा को देख सकता था. पहली बार वह सीमा को छोड़कर बम्बई से बाहर ा रहा था. सीमा को उस रात तेज़ बुखार चढा था. रात भर वह मनीष का नाम नींद में बडबडाती रही. प्रदर्शनी में मनीष को बहुत प्रशंसा मिली थी-सर्वत्र उसकी पेंटिंग्स की चर्चा थी. प्रदर्शनी दो सप्ताह े लिए तय थी. तरन्तु दस दिन के भीतर ही मनीष के सभी चित्र कला प्रेमियों ने खरीद लिए थे. सीमा ने कमरे की खिडक़ी खोल दी. सामने अथाह समुद्र था. अपनी लहरों से आन्दोलिए, कितना चंचल है यह समुद्र और उसकी ज्ािन्दगी कितनी सपाट, कितनी स्पंदहीन, अक ेजी! 'कितना अन्तर है उसमें और मनीष में' वह सोचने लगी. मनीष आज संसार की र चिन्ता से मुक्त, कहीं दूर-क्षितिज के पास, मुस्कुरा रहा है. किन्तु वह जीवन के ापेडुे सहने के लिए जी रही है-घिसट रही है. शायद यही उसकी नियति है. जिस रात उसका जन्म हुआ था, उस दिन उसके दादा-दादी बहुत प्रसन्न थे कि लडक़ा पैदा होने वाला है. किन्तु सबकी आशाओं के विपरीत कन्या ने जन्म लिया. घर में एक चुप्पी छा गई. 'अरे यह तो बीस हजार की डिग्री घर आ गई.' बडबडाई दादी. 'किस जन्म के पाप का फल मिला है.' उसने सीमा की मा/ को हज़ारों गालिया/ दे डालीं- जाने लडक़ी पैदा करने मे उसका ही दोष था. एक नारी को नारी से इतनी घृणा. बचपन में किसी का प्यार नहीं मिला. चार वर्ष बाद भाई विकास का जन्म हुआ. धूमधाम! जश्न! सब रिश्तेदार इकट्ठे हुए. संगीत भरी शाम. मुहल्ले की हर औरत बधाइया/ दे रही थी. दादी के पा/व धरती पर नहीं पड रहे थ. हर किसी से अपने पोते के नैन-नक्श और गोरे रंग का बखान. यह सब कुछ! क्योंकि लडक़ा हुआ था. समय का चक्र चलता रहा. सीमा और विकास बढते रहे. सीमा की इर इच्छा दबस दी जाती थी. कोई शिकायत नहीं. अपने घर के एक अकेले अन्धेरे कोने में खडी वह हर अन्याय को देखती और सह जाती. विकास के लिए चॉकलेट और आइसक्रीम, सीमा के लिए खालीपन. फिर भी अपने छोटे भाई को बहुत प्यार करती. समय के साथ-साथ अकेलापन बढता गया. कभी भी अपने आपको उस परिवार का सदस्य नहीं मान पाई. प्यार क्या होता है रोज़ दूर से दखती थी. उसे स्वयं महसूसना उसके भाग्य में नहीं था. प्रतिदिन सीमा के माता-पिता का प्यार विकास के लिए बढ रहा था. और सीमा के लिए बढ रहा था एक भयानक अन्धेरा और एक शून्य. और इसी शून्य में से निकलकर उसे एक दिन मिला था मनीष! सीमा अपने कार्यालय पहु/ची तो गुप्ताजी का चेहरा कुछ उतरा हुआ था. पिछले दो वर्षों से पूरे मन से का करके सीमा ने गुप्ताजी का विश्वास और मन, दोनों जीत लिए थे. गुप्ताजी भी उसे अपनी बेटी की तरह चाहने लगे थे. सीमा को अनुमान हो गया कि आज फिर गुप्ताजी के घर में कुछ कहा सुनी हो गई है. मिसेज़ मुप्ता एक मार्डन नारी थीं और वह अपने पति को एक 'पिछडे हुए विचार' से अधिक कुछ नहीं मानती थीं. उनका बेटा और बेटी कैसे जी रहे हैं, इससे मिसेज़ गुप्ता को कोई सरोकार नहीं था. गप्ता जी से तो सदा उनका झगडा रहता ही था. सीमा को देखकर गुप्ताजी चेहरे पर मुस्कुराहट ले आए. 'आ गई बेटा. सब ठीक है न?' 'जी सर, आपके आसरे स ठीक चल रहा है.' सीमा ने दो वर्ष पूर्व यह आपि स एक स्टेनोग्राप र के रूप में आरम्भ किया था. किन्तु इतने कम समय में ही वह गुप्ता जी की निजी सचिव बन गई थी. उन्हें मिलकर ही सीमा को मालूम हुआ कि पिता का प्यार क्या होता है. कहा/ तो उसके अपने पिता जो कभी उससे बात तक न करते थे; उसकी मा/ जिसे अपने बेटे के सिवाय कुछ दिखाई न देता था. और कहा/ गुप्ताजी, जो कि उसके हर दुख-दर्द को समझते हैं. कुछ ही देर बाद सीमा गुप्ताजी के सामने 'शाअै हैण्ड' की कापी व पैन्सिल लिए 'डिक्टेशन' ले रही थी. गुप्ताजी को दोपहर बाद किसी मीटिंग में जाना था. वे जाहते थे कि सीमा कुछ आवश्यक काग़ज़ टाइप कर दे. सीमा ने अपने सधे हुए हाथों से सारा काम थोड़े ही समय में पूरा कर दिया और गुप्ताजी के सामने ला रखा. लंच के ाद गुप्ताजी मीटिंग के लिए चल दिस. सीमा अपने काम में व्यस्त थी. प ाेन की घण्टी बजी. 'हेलो! वेस्टन कम्पनी!' 'सीमा जी, अरवन्द बोल रहा हू/.' सीमा के चेहरे पर पसीने की बून्दें छलक आईं. एयरकण्डीशनर की आवाज़ थोड़ी अधिक ऊ/ची लगने लगी. एक कोने में काला अन्धेरा और पीला प्रकाश मिलते से लगे. 'सीमाजी, केरी आवाज़ सुर रही हैं न, आप?' 'जी? जीजी हा/.' 'अरे, आपकी तबियत तो ठीक है न?' 'जी हा/.' सीमा ने स्यं को संयत करते हुए कहा, 'कहए कैसे हैं आप?' 'अजी हम कैसे हो सकते हैं. हमारा तो जीवन ही अतीत से ज़ुडा है. कहीं शेक्पीयर, मिल्टन और डन है तो कहीं डिक्नस और ईलियट. किन्तु हा/, हमारा अतीत आपके अतीत से भिन्न है. जहा/ हम अतीत में जी रहे हैं, वहा/ आप अतीत को जी रही हैं.' 'कर दी न प्रोफेसरों वाली बातें श्ुरू?' 'अरे सीमाजी, आपने फिर से इस अदना से लेक्चरार को प्रोफेसर बना डाला.अच्छा सुनिए मुझे आपसे एक आवश्यक बात करनी है. आप अभी इसी समय मुझे मिलिए.' सीमा एक बार फिर दुविधा में पड ग़ई. वह कई बार अरविन्द से कह चुकी थी कि मनीष की याद को दिल से नहीं निकाल सकती किन्तु अरविन्द मानने को तैयार ही नहीं था. 'देखए अनविन्द बाबूश् 'सीमाजी मैं आज ना नहीं सुनू/गा. मैं 'टॉक आफ द टाऊन' में आपकी प्रतीक्षा करू/गा ठीक साढे तन बजे. अच्छ नमस्ते.' और अरविन्द ने सम्बन्ध विच्छेद कर दिया. सीमा विचारों के समुद्र में गोते लगाने लगी. उसे अरविन्द का व्यक्तित्व समझ नहीं आ रहा था. एकाएक वह बच्चों का-सा हठ करने लगता था. और कभी वह एक शान्त प्रकृति का प्रौढ़ बन बैठता था. 'आक ऑफ द टाऊन' सीमा के कार्यालय से बहुत करीब ही था. और सीमा को वहा/ पहु/चने में केवल पा/च मिनट का समय लगना था. उसे वह पा/च मिनट की दूरी कोसों लम्बी लग रही थी. उसने अपना काम बन्द किया और उसके कदम अनविन्द की ओर उठने लगे. अरविन्द हल्की नीली कमीज़ और काली पैन्ट पहने 'टॉक ऑफ द टाद न' के बाहर सीमा की प्रतीक्षा कर रहा था. उसके घु/घराले बालों की लट रह-रह कर तेज़ समुद्री हवाओं के साथ उसके माथे पर लहरा रही थी. सामने ही समुद्र मं लहरें रह रह कर किनारे से टकरा रही थीं और फिर शान्त होकर पानी वापिस जा रहा था-एग बार फिर किनोर को पाने के एि. अरविन्द का दिल धडक़ रहा था. एक ही सवाल उसके दिमाग़ को मथ रहा था-'सीमा आयेगी या नहीं.' उसे सीमा एक पहेली के समान प्रतीत हो रही थी. स्कूल के समय से ही अनविन्द को समाचार पत्रों व पत्रिकाओं की पहेलियों को हल करने का शौक था. वह सीमा की तह तक पहु/चना चाहता था. उसने देखा सामने सीमा बादामी रंग की साडी पहने चली आ रही थी. आगे बढा, 'सीमाजी, आपने इस ग़रीब पर बहुत एहसान किया आकर, नहीं तो न मालूम मैं क्या कर बैठता!' 'क्या कर बैठते?रोमियो-जूलियट पढाते-पढाते आप काप ी प्रभावित लगते हैं अपने नाटकों के चरित्रों से!' झेंप-सा गया अनविन्द. इतनी छिछली-स बात उसके मु/ह से कैसे निकली. वह एक कॉलेज में अ/ग्रेज़ी साहित्य का प्रध्यापक ै, और इतनी हल्की बात. 'आइए बैठते हैं.' उसने कहा और सीमा उसके साथ आगे बढ ग़ई. दोनों कुछ बेचैन से थे. अरविन्द कुछ कहने के लिए और सीमा सुनने के लिए. अरविन्द ने कॉफी और स्नैक्स का आर्डर दिया और अपनी उंगलियों के साथ मेज़ से खेने-सा लगाा. 'सीमा जी', एकाएक अनविन्द ने चुप्पी तोड़ी, 'क्या कई बार ऐसा नहीं होता कि इन्सार चाहकर भी अपनी बात होठों पर नहीं ला पाता! मुझे ही देखिए ना, पिछले एक साल से आपको लगभग हर रोज़ देखता हू/; कितनी बार मिला भी हू/, किन्तु न जाने क्यों हर बार मु/ह को एक ताला-सा लग जाता है और मेरी बात मन की गहराइयों में दबी रह जाती है. अनविन्द कपूर-जिसकी आवाज़ का लोहा विश्विविद्यालय के बडे से बडे प्राध्यापक तक मानते हैं, आपके सामने एक अजीब-सी भावना से ग्रस्त हो जाता है. ऐसा क्यों होता है?' 'अरविन्द बाबू, आप जिस दिशा में सोच रहे हैं, मैं बहुत पहले ही उन दिशाओं को छोड़कर एक विपरीत धारा में बह रही हू/. मेरा जीवन एक काले अन्धेरे में ज़कडा हुआ है; और वह काला भयानक अन्धेरा हर उस इन्सान पर छा गया जो भी मेरे सम्पर्क में आया. आप मुझे न जानते हुए भी कुझ से प्रेम करते हैं. आप इस ऊपरी देह से इतने प्रभावित हैं कि आपने भीतर के सत्य को जाननके का प्रयत्न ही नहीं किया.' 'सीमा!' आवेश में कह उठा अरविन्द, 'मुझे तुम्हारे अतीत से कोई सम्बन्ध नहीं. तुम जो हो, जैसी हो मुझे पसन्द हो. मैं तुमसे प्यार करता हू/ और तुमरे साथ अपना एक छोटा सा घर संसार बसाना चाहता हू/. मैंने एक सपना देखा है' 'अरविन्द! मैं और मेरा अतीत कोई सपना नहीं है. नही आपका भविष्य कोई सपना है. यह जीवन की एक ठोस सच्चाई है. एक रूपए का पैन ख़रीदते समय, मनुष्य उसकी पूरी जा/च पडताल करता है; फिर यहा/ तो जीवन भर का प्रश्न है. आपके जीवन साथी का अतीत क्या था, उसका वर्तमान क्या है, यह आपके भविष्य के लिए जान लेना बहुत आवश्यक है. मनुष्य आज जो भी है उसमें बडा हाथ अतीत का है. अतीत की एक एक तह जमकर इन्सान का वर्तमान बनता है. आवेश या भावनाओं में बहकर जीवन की समस्याों का ह नहीं ढ/ूढ़ा जा सकता.' अरविन्द का मस्तिष्क झन्ना उठा. उसे पहेली और भी कठिन होती प्रतीत हुई. उसे लगा कि सामने आसमान में एक अजीब-सा कोहरा छाया जा रहा है. वह उस कोहरे में सीमा को ढू/ढने की व्यर्थ चेष्टा कर रहा है. सीमा उससे दूर हुए जा रही है. उसे अपनी परिपक्वता पर शक होने लगा. वह अपने तर्कों से हज़ारों विद्यार्थियों व प्राध्यापकों को चुप करवा चुका था.किन्तु सीमा की एक बात उसे झकझोर-सी र्ग थी. क्यों इतना चाहता है वह सीमा को? वह एक विचित्र-सी स्थिति में पहु/च गया था. 'अच्छा अरविन्द, मैं चलती हू/.' और सीमा उ कर चल दी. अरविन्द ने सीमा के नेत्रों में से छलकते कुछ मोती देखे. वह कुछ नहीं बोल पाया और सीमा चली गई. सीमा सोच रही थी कि क्या मनीष उसे इस तरह जाने देता! क्या वह उसे हाथ पक़ड कर बैठा न लेता?
सुबह जब सीमा उठी तो उसे थोड़ा बुखार था. छाती तें थोड़ी दर्द-सी महसूर हो रही थी. कुछ ही देर में कला चाय ले आइै. चाय के लिए हााथ बढाया तो उसे चक्कर आ गया. सम्भल नहीं पाई और बिस्तर पर ही गिर गई. कला हडबडा-सी गई. हडबडाहट में ही चाय उसके हाथ से गिर गई. उसने देखा, सीमा का शरीर तप रहा था. जल्दी से पडाेस के डॉक्टर कोहली को बाु लाई. डॉक्टर ने सीमा को चेक किया और एक इन्जेक्शन और कुछ गोलिया/ दीं. डॉक्टर कोहली का चेहरा कुछ भिंचा हुआ था. जैसे किसी द्वन्द्व में हो. वे एकाएक किसी निर्णय पर नहीं पहु/चना चहते थे. सीमा का हा/फना जारी था और बीच बीच में खा/सी. डॉक्टर कोहली ने लगभग डा/टते हुए कहा, 'सीमा, कभी अपनी सेहत का भी ख्याल रखा करो. हर समय काम या फिर सोचना! क्या तुम्हारे जीवन का यही ध्येय रह गया है. कितनी कमज़ोर होती जा रही हो तुम. मैं तुम्हें अपने जीवन के सा खिलवाड नहीं करने दू/गा.' 'डॉक्टर, अब तो यह जीवन ही मेरे साथ खिलवाड क़र रहा है. इस घिसटने को क्या जीवन कहते हैं?' और फिर जो खा/स खुरू हुई तो बेहाशी पर ही रूकी. डॉ, कोहली जैसे गम्भीर समस्या पर विचार कर रहे थे. अपने लम्बे डाक्टरी जीवन में उन्होंने कई बार मरीज़ों को अपनी आ/खों के सामने मरते देखा था, किन्तु सीमा की बीमारी ने जैसे उन्हें भी हिला दिया था. भावनाओं पर काबू पाया, कला को कुछ हिदायतें दीं, चल पडे. सीमा के कार्यालय टेलीफोन भी कर दिया. सीमा की बीमारी की खबर सुनकर गुप्ताजी बहुत चिन्तित हो उठे थे. उन्हें अपना डर सच होता लग रहा था. सीमा का हर समय चुप रहना, कुछ सोचते रहना और शून्य में ताकते रहना, उन्हें किसी बडे ख़तरे का सूचक लगता था. तो क्या बसनहीं! गुप्ताजी के चहरे पर पसीने की बू/दें तैरने लगीं. उन्होंने अपनी कार की चाबिया/ उठाईं और लिफ्ट की ओर बढ चले. रास्ते भर उन्हें सीमा का मासूम चेहरा दिखाई देता रहा. इन दो वर्षों में जैसे सीमा उनके जीवन का एक अंग ही बन गई थ. सीमा को अस्पताल ले गए. डॉक्टर, इमरजेन्सी कमरे में ले गया. इन्जेक्शन! ग्लुकोस! सीमा बेहोशी में भी मनीष का नाम बडबडा रही थी. गुप्ताजी नर्वस हो रहे थे, 'डॉक्टर, मनी इल नो प्रोब्लम, जस्ट सेव हर. डू एनी थिंग.' और डॉक्अर एक मशीन की भा/ति अपने काम में लग गया था. उसने नर्स को कुछ निर्देश लिए और गुप्ताजी के साथ अपनी केबिन की ओर बढ ग़या. नर्स 'टेम्परेचर चार्ट' और नाडी क़ी गति का चार्ट बना रही थी. डॉ ने वाश बेसिन पर हाथ धोए. नीले रंग के तौलिए से पोंछे, 'गुप्ताजी, अभी तो हम एकदम किसी निष्कर्ष पर नहीं पहु/च सकते. कल मैं इनका खून और बाकी टेस्ट करवाऊ/गा. उसके बाद ही हम स्पष्ट रूप से कुछ कह पाएंगे. वैसे आज रात ही कठिनाई भरी है. इसलिए अगर आप चाहें तो आज रूक सकते हैं नहीं तो किसी और को छोड़ सकते हैं. वैसे हम तो यहा/ हैं ही.' गुप्ताजी ने एक क्षण को स्वयं ही रूकने की सोची किन्तु दूसरे ही क्षण उन्हें मिसेज़ गुप्ता का रौद्र रूप स्मरण हो आया. वे कला को वहा/ छोड़ गए. बेहोशी में मनीष के नाम की बडबडाहट जारी थी. अरविन्द जब अस्पताल पहु/चा तो सीमा को होश आ चुका था. चहरा उतरा हुआ था, शक्ल कमजोर. एक फीकी-सी मुस्कान से उसने अरविन्द का स्वागत किया. अरविन्द के चेहरे पर परेशानी झलक रही थी, 'सीमाजी, अपको अपने आप पर इस तरह जुल्म करने का केई हक नहीं. यह तो सरासर ज्यादती है आपकी. मैं आपको ऐसा नहीं करने दू/गा.' वह देखती रही अरविन्द की ओर. उसे सम्भवतः अरविन्द की यह व्यग्रता अच्छी लग रही थी. 'ऐसी कोई विशेष बात तो नहीं है अरविन्द जी. यह तो जीवन के साथ चलता ही रहता है.' 'असे आप जीवन का चलना कहती हैं यह तो आत्मघात है. सीमाजी जीवन की कोई भी समस्या ऐसी नहीं जिसका कोई हल न हो. समस्या तो खडी ही इसलिए होती है ताकि अपने हल के साथ आत्मसात हो सके. पर याद रखिए, मैं आपको इस तरह आत्महत्या नहीं करने दू/गा. आपको जीना है, अपने लिए भी और मेरे लिए भी.अरे हा/, टेस्ट रिपोर्ट आ गई क्या? 'कल शायद सभी रिपोटर्ें मिल जाए/गी. तभी पता चलेगा कितने दिन की मेहमान हू/.' 'आप न तो कभी मेहमान थीं और नही मैं आपको मेहमान बनने दू/गा. आपका व्यक्तित्व एक ठस सच्चाई है और मेरा प्यार भी. अब मैं आपको और अकेला नहीं छोडू/गा. आपको भी जीवन साथी की आवश्यकता है और में तो अकेला हू/ ही.' बहुत प्यार से अरविन्द ने रजनीगन्धा के फूलों को फूलदान में सजा दिया, 'कल मिलता हू/. आज तो कॉलेज में बहुत ज़रूरी काम है.' अरविन्द चला गया. सीमा ने आ/खें मू/द जीं. दर्द में अब राहत थी पर मन पहले से कहीं अधिक अशान्त था. अरविन्द जब भी आता, सीमा के अन्दर का समुद्र आन्दोलित हो उठता था. लहरें ही लहरें और उन लहरों ें डूब जाती थी सीमा. अरविन्द-'कैसे समझाऊ/ तुम्हें. एक ज्ािन्दा लाश के साथ क्यों बा/धना चाहते हो स्वयं को.' और कब उसकी आ/ख लग गई सीमा को पता ही नहीं चला. सपने में आज मनीष के चित्र पर कुछ धुंध हुई थी.
अस्पताल का बरामदा. दवाइयों की गन्ध. बीमार कमज़ोर चेहरे! सचमुच परेशान चेहरे! मुखौटे लगी परेशानिया/! राजू ने देखा, अनविन्द ने देखा, दोनों ने एक दूसरे ो पहचाना. लम्बे अरसे के बाद मिले थे. 'अरे मेरे कलाकार! क्या हाल है?' कॉलेज में अरविन्द स्टेज पर काप ी क़ाम करता रहता था. 'ओह राज! तुम यहा/ कैसे? सुना था तुम तो कहीं विदेश चले गए थे.' 'वहीं से आया ह/ भाई. पर तुम यहा/ किस चक्कर में हो?' 'एक करीबी दोस्त बीमार है. तुम क्या दिखाने आए हो?' 'दिखाने नहीं यार! वो सीमा भाभी की तबीयत कुछ खराब है. मैं तो कुछ दिनों में वापिस फ्रैंकप र्ट जा रहा हू/.' 'राज, यह सीमा वही तो नहीं जो वर्सोवा में रहती है? सात बंगला में?' आवाज़ में व्यग्रता थी. राज को बात पूरी नहीं करने दी. 'अरे हा/! पर तुम उन्हें कैसे जानते हो?' 'यार अब तुम्हें क्या बताऊ/. चल ज़रा बाहर बैठ कर थोड़ी देर आराम से केण्टीन में बात करते हैं. मुझे तुमसे कुछ आवश्यक बातें करनी हैं.' राजू हैरान! ठीक है अरविन्द और राज एक ही कॉलेज में थे-अरविन्द राज का सीनियर. दोनों ही विद्यार्थी परिषद के सदस्य. किन्तु दोनों कभी भी इतने अच्छे दोस्त नहीं थे कि बैठ कर बातचीत का सिलसिला आरम्भ किया जाता. वैसे कहने को अच्छी जान पहचार थी. 'राज, मेरे जीवन का काप ी क़ुद दारोमदार हमारी इस समय की बातचीत पर है.' अरविन्द ने कुर्सी की धूल झाडी. राज केवल स्थिति को समझने की चेष्टा कर रहा था. उसने छोकरे को दो स्पेशल चाय लाने को कहा. 'बात यह है दोस्त, कि सीमा से विवाह करना चाहता हू/. केवल इतना जानता हूं कि वह विधवा है. पर वह है कि बात को टाले ही जा रही है. तुम उसके बारे में जो कुछ जानते हो बता डालो.' अनविन्द एक सा/स में कह गया. राजू ने सिगरेट सुलगा ली, 'सरी बात सुन कर तुम्हारा यह उत्साह कायम रह पाएगा? कहीं, और लोगों की तरह.' 'यार भूमिका मत बनाओ, बस कह डालो.' राज ने चाय खत्म की और बात खुरू की.
मा/-बाप के प्यार से वंचित, अकेलेपन में बडी हुई लडक़ी, नारी होने के कारण अपने ही घर में दूसर दर्जे का जीवन जीने को मजबूर व्यक्तित्व का नाम है सीमा. अपने ही भाई विकास की तरफ मा/-बाप का अन्धा प्यार देखकर सीमा को पुरूषों से नप रत-सी हो गई थी. वह कभी किसी भी पुरूष से सहज नहीं हो पाती थी. प्यार का तो उसे अर्थ ही मालूम नहीं थी.
ऐसे में उसे मिला था मनीष-अभावों से ग्रस्त किन्तु मस्त. सीमा से काई तीन-चार वर्ष छोटा था. विकास का दोस्त था. अपने फटे कपडाें की परवाह किए बगैर वह उनके घर चला आया करता था. बचपन से ही कलाकार मन का व्यक्तित्व था.
एक बार बैठ गया सीमा की पेंटिंग बनाने. ज्ािद में एक सप्ताह स्कूल भी नहीं गया. पिजिक्स का प्रेक्टिकल भी 'मिस'स कर गया. पेंटिंग में कुछ ऐसे रंग भरे कि सीमा को उस पर बहुत प्यार आया. सीमा ने अपने आप में उतना वात्सल्य कभी नहीं महसूसा था जितना कि उस पेंटिंग में दिखाई दे रहा था.
अब सीमा को दीदी शब्द शब्द अच्छा लगने लगाा था. हा/ मनीष उसे दीदी कह कर ही बुलाता था. वह भी उसकी हर बात का ध्यान रखती. उसके खाने, वहनने, पढने की चिन्ता जैसे सीमा ने अपने ऊपर ओढ़ ली थी.
स्वयं साहित्य की विद्यार्थी थी. चाहती थी कि मनीष भी साहित्य पढे. क़िन्तु मनीष के घर कॉलेज की पीस और किताबों के लिए पैसे कहा/ थे. पिता को गुज़रे एक अर्सा बीत गया था. बडी मुश्किलें सह कर मा/ ने बडा किया था.
किसी तरह टाइपिंग सीखी और 'एम्पायमेण्ट एक्सचेंज' में अपना नाम लिखवा आया. नौकरी मिल गई. पढाई की कसक अभी भी बाकी थी. घर से बस में, वहा/ से लोकल, फिर बस और पैदल. सारा दिन दफ्तर में टाइपराइटर की टिक-टिक. शाम तक थकान, उब1 बम्बई का चिपचिपा पसीना.
कलाकार मन के लिए पढाई का लोभ संवरण करना मुश्किल था. सीमा के कहने पर सान्ध्य कॉलेज से साहित्य में बीए शुरू कर दी. समय और महंगी वस्तु हो गया.
व्यक्तित्व और खामोश हो गया. हर बात आ/खों से हने की आदत-सी हो गई. शब्दों के मामले में कंजूरी बढती गई. दिल के सारे तूप ानों को कैनवस पर उगलने की कोशिश अनवरत जारी.
विकास बीए में दो वर्ष फेल. मनीष बीए हो गया. मा/-बाप ने विकास को मनीष के उदाहरण देना शुरू किया. मन में मनीष के प्रति घृणा बढने लगी. बहन पर दोषारोपण कि अपने से छोटे लडक़े को फा/स रही है.
'मा/ तुम अपने बेटे के प्यार में इस कदर अन्धी हो गई हो? क्या वह मुझे कुछ भी कह सकता है. क्या मैं उसकी बडी वहन नहीं?'
'जब तुम्हारे भाई को पसन्द नहीं तो क्यों बोलती हो मनीष से? बाहर वाले तुम्हारे लिए सगे भाई से बढक़र हो गए.'
बाहर वाले! घर वाले! भाई! मा/ ! पिता! इन सब रिश्तों का कोई अर्थ नहीं था सीमा के लिए. वह केवल एग ही इन्सार के इर्द-गिर्द अपने जीवन का ताना-बाना बुन रही थी. वह मनीष के आगे कुछ सोच ही नहीं पाती थी. अपने एमए के नोटस ढू/ढ निकाले. मनीष के लिए नोट्स बनाने की व्यस्तता.
मनीष भी एक आर्टिस्ट के रूप में विख्यात होने लगा था. उसकी पेंटिंग्त्ज़ में कहा प्रेमियों की रूचि बढने लगी थी.
मा/, बाप चाहते थे कि सीमा विवाह कर ले.
'मनीष तुम ही बताओ, मैं शादी कैसे कर लू/. एक अनजान पुरूष के साथ क्सिे जीवन शुरू कर लू/?'
'दीदी, समाज में जीना है, तो इसके नियम तो मानने ही होगे. आपके माता-पिता विवाह किए बिना तो मानेंगे नहीं. और फिर हमारे बारे में जो उुल-जलूल बातें की जाती हैं.'
'केवल बातें ही नहीं मनीष, अब तो मार भी!' और सीमा का गला भर आया था.
मनीष की मा/ के हाथ तकं कपडा सिलने की सुई खंब गई. परवाह नहीं की. टेटनस हो गया. मा/ चल बसी. मनीष एकदम अकेला हो गया. पूरी तरह से सीमा पर आश्रित.
एक लडक़ा देखने आया था सीमा को-एयरफोर्स में पायलट. पूना में 'पोस्टिड' उसने सीमा को देखते ही पसन्द कर लिया. सीमा ने उसे 'देखा' ही नहीं.
मनीष स्वयं उसे मिलने गया. सीमा को मनाया और सगाई हो गई.
पायलट हर सप्ताह बम्बई आता. सीमा और वह इकट्ठे समय बिताते. कई बार मनीष भी साथ रहता.
एक धमाका हुआ था. पायलट का विमान कलाबाजिया/ खाते हुए पेड़ों में जा गिरा था. उसका विक्षिप्त शरीर पहचाना नहीं जा रहा था. और सीमा विवाह से पहले ही विधवा! सुन कर बेहाश हो गई थी. डॉक्टर ने देखा. दूसरा विस्फौट!
सीमा मा/ बनने वाली थी.
'कलमु/ही! इतनी क्या जवानी चढी थी तुझे. चार दिन सबर नहीं था. खानदान की नाक कटवा दी.'
मा/, पिता, विकास सबकी ओर से पिटाई. सूजा चेहरा, पथराई आ/खें. एक दर्दनाक चुप्पी.
रहा नहीं गया. मनीष उनके घर पहु/च ही गया.
'क्या करने आये हो? अब हमारा मज़ाक उडाने आये हो क्या?'
'आण्टी, आपकी बेटी मेरी भी तो कुछ लगती है. आपकी इज्ज़त मेरी इज्ज़त है.'
'अगर इज्ज़त का इतना ही ख्याल है तो सीमा से शादी कर ले. हम सब को समझा लेंगे. इस ़ ज़न्मजली को अब कौन ब्याह कर ले जाएगा?'
मनीष सकते में आ गया. 'यह क्या कह रही हैं आण्टी!'
'क्यों सा/प सू/घ गया क्या. यह दिखावे वाला प्यार तो दुनिया/ में हर कोई कर लेता है. अगर उसे इतना ही प्यार करता है तो ले जा इसे अपने साथ. इस ज्ािन्दा लाश का हम क्या करेंगे.'
'पर!'
रात भर करवटें बदलता रहा. जिसको सदा बडी बहन, मा/ समान माना हो, उससे!दीदी की इज्ज़त ! लोग़ क्या कहेंगे. वह स्वयं क्या सोचेगा. दीदी पर क्या गुजरेगी. अभी तो उसे मालूम ही नहीं कि उसकी मा/ ने क्या कहा है. पथराई-सी दीदी. क्या वह उसे ऐसे ही मर जाने देगा. क्या उसे पत्नी बना पाएगा.उर्वशी का क्या होगा? उससे जो वादे किए हैं. उसका क्या दोष है? रात भर दावानल में जलता रहा. यह हलाहल उसे ही पीना होगा. अपनी प्यारी दीदी की इज्ज़त बचाने का और कोई उपाय नहीं था.
मा/-बाप के हिसाब से उनकी और उनकी बेटी की इज्ज़त बच गई थी. मनीष अपनी डोली को अपने छोटे से किराए के फ्लैट में ले आया था. सीमा अभी भी पथराई आ/खों से सब कुछ देख रही थी.
उर्वशी का दिल टूट गया था. उसे मनीष की मजबूरी बिल्कुल समझ नहीं आई थी. 'मेरे जीवन के सभी सपनों को चकनाचूर करके तुम समझते हो कि तुम खुशी से जी लोगे! नहीं! ऐसा नहीं होगा.अरे, अगर पहले से ही चक्कर चला रखा था, तो तुझे क्यों घसीटा इस गलाज़त में?
हर आ/ख उसे अपनी ओर उठती ही दिखाई दे रही थी. वह उन आ/खों का सामना नहीं कर पा रहा था. हर आदमी जैसे उससे एक ही सवाल कर रहा था. 'कौन है यह-उसकी दीदी या उसकी पत्नी?' दीदी की इज्ज़त बचाने की चाह में वह कितने गहरे जा गिरा था, इसका अहसार उसे अब हो रहा था.
विकास ने तो सीधे ही कटाक्ष किया था, 'मैं कहता था न िकि दोनों में कोई चक्कर है. और फिर क्या पता कि बच्चा किसका है. शायद अपना ही पाप ढो रहा है. नहीं तो कोई ऐसा भोला भण्डारी नहीं है कि पराइ आग में अपने हाथ जलाए.'
मनीष अपने चरित्र पर गिए गए इन लांछनों को सह नहीं पाया था. दीदी को पत्नी नहीं मान पाया था. शादी के पा/चवें दिन ही मनीष की लाश समुद्र से, फूली हुई, मिली थी.
लाश देखते ही सीमा के पेट में मरोड़-सा उठा था और लाल रंग बन कर उसका गर्भ बाहर आ गया. कई दिन हस्पताल में रही थी.
और जीवन की इस लडाई में सीमा अकेली रह गई थी. उसके मा/-बाप तो कभी अपने थे ही नहीं. अब, मनीष भी चला गया था. बस गुप्ताजी ने ही उसे सहारा दिया.
राजू कहानी खत्म कर चुका था. काप ी देर दोनों के बीच चुप्पी छाई रही. अरविन्द इस बीच कई सिगरेटें पूँ क चुका था. राजू ने उसकी ओर देखा, 'क्यों अब भी तुम्हें लगता है कि सीमा के अ/धेरे जीवन में रोशनी हो सकती है-चाहे मुट्ठी भर ही सही?'
अरविन्द कुछ नहीं बोला. बस मुस्कुरा भर दिया.
सुबह कॉलेज जाने से पहले अरविन्द हस्पताल पहु/चा. बाहर से ही रजनीगन्धा के फूल लिए. सीमा के कमने में अभी तक अन्धेरा था. नर्स ने बताया कि सीमा ने परदे न खोलने के लिए कहा है.
अरविन्द आगे बढा और खिडक़ियों से परदे हटा एि. कमरा सूर्य की रोशनी से भर गया.