मुण्डू / सुशील कुमार फुल्ल
अन्दर मनन चल रहा था और वह बाहर खड़ा था! तश्तरी में रखे पान अन्दर जाने के लिये कुलबुला रहे थे। रात गहराने लगी थी और बर्फ के फाहे गिरने लगे थे। उसकी धमनियों मे रक्त जमने लगा था... शायद अब... कन्धे से लटका हुआ थैला भारी पड़ने लगा तो उसे उतार कर नीचे रख दिया। फिर भी तश्तरी लेकर बराबर डटा रहा था।
पहाड़ की टीसी पर बना डाक बंगला धुंधियाता जा रहा था...यह भी अच्छा ही हुआ कि उन्होंने पहले ही पूछ लिया था...तीन सौ नम्बर का पान तो मिलेगा न? ‘‘सर...’’
‘‘सर... क्या... श्रीमान कहो... लेखक हिन्दी के बनना चाहते हो और सम्बोधन अंग्रेज़ी में। यह तो असहनीय है... एकदम अशोभनीय...
भोलू का गला सूख गया। कहीं सारा काम बनते-बनते बिगड़ न जाए। वह सोचने लगा- नास्तिक को साथ ले आता तो वह सब संभाल लेता। ये सारे प्रबन्ध तो उसने विरासत में सीखे हैं... वह जानता है कि किस प्रदेश के लेखक क्या पसन्द करते हैं... संपादकों की चाहत क्या है... ससुरा किसी को नाराज ही नहीं होने देता। जहाँ देखो उसी का नाम छपता है...व्यवस्था भी क्या कुत्ती चीज़ है और वह तो उससे बड़ी शय है... व्यवस्था से ऐसा जुड़ा है... यदि उसे उनके आने की भनक ही मिल गयी होती तो उसने कोई न कोई जुगाड़ बना ही लेना था और आ टपकता यहां... और भालू को उखाड़ फेंकता! यह सोच कर वह खिल उठा तथा बोला सर, अंग्रेजी आसान भाषा है और सुविधाजनक भी। वैसे आप श्रीमान् शब्द से प्रसन्न होते हैं, तो मैं इसी शब्द का उपयोग करूँगा।
‘‘तुम तो जोंक की तरह शब्द-जाल में ही उलझ कर रह गये। मैंने पूछा है कि तीन सौ नम्बर का पान मिलेगा। मैं भारत के दूसरे छोर से इस दरिद्र प्रदेश में इसलिए तो नहीं आया कि जंगल में कुत्तों की तरह रिरियाता फिरूँ। बड़ी पत्रिका की सैंकड़ों व्यवस्ताएं हैं... मेरी मेज़ पर ढेरों निमन्त्रण पत्र पड़े रहते हैं...तुम हो कि... पता नहीं कैसा व्यक्ति ‘स्टेट-गैस्ट’ के साथ लगाया है...उल्लू कहीं का... कोई प्रबन्ध हो सकता है, तो करो... नहीं तो अभी मुख्यमन्त्री को फोन करता हूँ...
‘स्टेट-गैस्ट’ इसने भी तो अंग्रेजी शब्द का प्रयोग किया है... भोलू मुस्कुरा दिया मन ही मन परन्तु प्रत्यक्ष में बोला- आप निश्चिन्त रहें मैं अभी पान का प्रबन्ध करता हूँ।
‘‘पान का बीड़ा ही काफी नहीं होता... और भी बहुत कुछ होता है... समझे... और वे आक्रोश, असन्तोष जताते हुए बंगले के आहाते में निकल गये! भोलू को महसूस हुआ वह उनके सामने नोल हो गया था। उसने अपने पिता को दूसरों का हुक्का-पानी भरते तो देखा था परन्तु इतने तल्ख ढंग से किसी को पेश आते नहीं देखा था...पुश्त दर पुश्त बेगार... और फिर उसके पिता पढ़े-लिखे थे... छोटा-बड़ा कोई भी आता...वह अच्छी खातिर करते...फिर भी कभी-कभार उसके कान में पड़ता... ससुरा...चमारड़ी में जन्मा है.... साला राज करने लगा है.... लेकिन सामने कोई कुछ नहीं कहता। भोलू को अब सब कुछ समझ आने लगा था!
वह कभी-कभार कुछ लिखता था...कभी कविता... कभी कहानी... यत्र-तत्र छप भी जाता था परन्तु उसे लगता था कि कहीं कोई पहचान नहीं बन सकी थी या बन नहीं पा रही थी... फिर एक बड़ी पत्रिका का छोटा सम्पादक उसका परिचित हो गया था... आना-जाना... खाना-पीना... कई वर्षों तक चलता रहा.... तब एक बार कहा था... मैं अच्छा लेखक बन सकता हूँ पर...
‘‘पर क्या... क्या बैसाखियाँ नहीं हैं।’’ ‘‘नहीं... ऐसी बात नहीं! मैं कोई लंगड़ा तो हूं नहीं।’’
‘‘सुनो... लेखन का अकेले दम भरने वाले सब लोग लंगड़े होते हैं... कम से कम आज के युग में... समझे! किसी कुर्सी को पकड़ लो... अन्धे की तरह...पहले कोई सरकारी कुर्सी काबू करो... फिर माध्यम बनने पर महत्वपूर्ण लोग अपने आप निकट सरक आते हैं।’’
भोलू को अपने मित्र की बात आज सार्थक होते लगी... उसने कुर्सी पर आसीन एक बड़े अफसर को चुन लिया था... वह पूरी आत्मीयता एवं निष्ठा के साथ अपने प्रभु द्वारा रचित साहित्य की प्रशंसा करता... एक दिन कुर्सी ने उसकी स्वामीभक्ति से प्रसन्न होकर कहा था... मेरे प्यारे-प्यारे नोल.... नहीं मुण्डू... मैं तुमसे प्रसन्न हुआ। हमारी सरकार ने दरबार पत्रिका के सम्पादक को स्टेट-गैस्ट बुलाया है... उन्हें भ्रमण करवाना है... यह सुनहरी अवसर है.... उनके लेखों से सरकारें गिरती हैं... बनती हैं, बिगड़ती हैं.... भारी भरकम सम्पादक हैं..... मैंने उनके साथ तुम्हें लगाया है.... कुछ दिन उनका मुण्डू बनो... फिर देखो साहित्य में तुम कैसे जगमगाते हो!
अभी यह पहला ही पड़ाव था.... भोलू को तीन सौ नम्बर का पान लेने गम्बर जाना था.... डाक-बंगले के आस-पास पनवाड़ी की दूकान नहीं थी... शिमला का मालरोड़ तो था नहीं..... सात-आठ किलो मीटर पर पान मिलने की संभावना थी... वह चलने लगा... थोड़ा रास्ता ही निकला होगा... उसे लगा वह बहुत लेट हो जाएगा। वह तुरन्त पीछे लौटा... डाक-बंगले के चौकीदार से मिला... ये अनुभवी लोग होते हैं... इनसे पूछना ठीक होगा... बोला- मुंशीराम जी, मैं एक विकट समस्या में फंस गया हूँ। साहब तीन सौ नम्बर का पान माँग रहे हैं!
‘‘तुम्हें पहले ही लाना चाहिए था... साहब अब भी कुछ नहीं बिगड़ा... तुम्हें गाड़ी में इसीलिए सरकार ने भेजा है... भोलू मंत्र-मुग्ध सा सुनता रहा!
‘‘देखो... पान के शौकीन तो कोई-कोई साहब ही होते हैं... यहाँ आने वाले तो और भी बहुत कुछ माँगते हैं...’’ ‘‘मैं समझा नहीं!’’ ‘‘ये बात तो डाक बंगले के ढोर भी समझते हैं! रात होते ही इन साहबों को सुरसुरी होने लगती है... साहब आप समझ गये न... यहाँ तो इशारों से ही काम चलता है!’’ भोलू चलने लगा! तभी मुंशीराम ने आवाज़ दी- ‘‘जनबा, आप सरकारी ड्यूटी पर हैं। पैदल क्यों जाएँगे। गाड़ी ले जाओ न। फिर ड्राइवर से बोला- थोड़ी मेरे लिए भी लेते आना! ड्राइवर ने आँखों में सब समझ लिया!
एक बार वह अपने लेखक दोस्तों के साथ देर रात ऐसे ही पान लेने निकला था। तो स्पेशल चैकिंग में इलाके के एस. डी. एम. ने कहा था... इतनी रात गये टैक्सियों में पान ढूँढने निकलते हो... बड़े लेखक बने फिरते हो... ससुरों को चौबीस घण्टे हवालात में रखूँगा... और पान...
लेकिन आज ऐसी कोई बात नहीं! भोलू हंस दिया! अगर एस. डी. एम. ने अन्दर कर ही दिया होता... तो कितना अच्छा होता... कुछ और कहानियाँ फूटती... व्यवस्था विरोधी...
वह बहुत खुश था! पान मिल गये थे! ड्राइवर की सलाह पर उसने सौ-सौ के नोट और खर्च कर दिये थे! रात के नौ साढ़े नौ बज गये और वह तश्तरी लिये बरामदे में खड़ा था। मुंशीराम उस पर मुस्करा रहा था- बोला, ‘‘साहब, मैं तुम्हारी मदद करता हूं। नहीं, तो तुम जिन्दगी भर यहीं खड़े रहोगे।’’
मुन्शीराम ने दरवाजे पर दस्तक दी। अलसाये से मल्लराज ने द्वार खोला तथा कहा- क्यों भई... क्या तीन सौ नम्बर का पान आ गया। इतनी देर कर दी... तीन सौ नम्बर पान ही न खाया हो तो मनन क्या खाक होगा...सोचा था शहर से दूर जाकर पर्वतीय प्रदेश पर अपनी पाण्डु-लिपि से हम बिस्तर हो सकूँगा लेकिन... ‘‘सर... श्रीमान् यह लीजिए...’’ भोलू ने पिघलती हुई मोमबत्ती की तरह बिछते हुए कहा।
‘‘जनाब! आप खाएंगे क्या।’’ मुंशीराम ने पूछा! ‘‘पहले यह बताओ कि है क्या-क्या।’’ ‘‘साग है, गोभी है, आलू हैं... ‘‘बस... बस...आलू है... कचालू है... उल्लू... स्टेट-गैस्ट को कचालू खिलाओगे।’’ ‘‘सर गोश्त...’’
मुंशीराम ने उछलते हुए कहा, "देखा न... मेरा अन्दाज़ा सही निकला। सरकार को सुरसुरी हो रही है... हो भी क्यों न... इतनी ठण्ड तो बरसों बाद देखी है... अब फिर जाओ!
‘‘नहीं भोलू... अब तुम नहीं...मुंशीराम जाएगा’’ उसने भोलू को कन्धे से थपथपाते हुए कहा- ‘‘बरखुरदार...शायद तुम्हारी ड्यूटी पहली बार लगी है... तुम कुछ कह रहे थे कि तुम भी कुछ लिखते हो...’’
‘‘जी हाँ...’’ ‘‘तो ले आओ न... लेकिन... ससुरी सुरसुरी जग रही है... कहानी सुनने के लिये भी माहौल चाहिए... सुनने के लिये तो चाहिए ही चाहिए!’’ ‘‘जी... सर... मैं अभी लाया!’’
मेज पर दो गिलास टिक गये थे! बर्फानी मौसम में भी बर्फ आ गयी थी... मल्लराज चहकते हुए बोले- घर में तो सब बवाल कर नहीं पाता.... बाहर आकर साँस मिलता है.... तो इच्छा भड़क उठती है... और फिर तो तुम जानते ही हो कि अन्दर के साँप बाहर निकलने का यही तो मौका होता है... शरीर की बर्फ पिघलने लगी थी... गोश्त गर्म होने लगा था।
भोलू ने पूछा- सर, कहानी पढूँ। ‘‘कहानी... कहानी... सारी जिन्दगी भर क्या करोगे।’’ ‘‘सर आप सुन लेते तो मेरा हौसला बढ़ जाता।’’
‘‘सब सुन लेंगे.... फिलहाल अपनी दो तीन कहानियों के नाम बता दें... छाप देंगे... तुम चिन्ता मत करो!’’ ‘‘सर मेरी कहानियों के शीर्षक सिम्बॉलिक होते हैं... यथा म्हास्ति, जंगल में दंगल, कछुए की चाल, तश्तरी... मुण्डू...’’
‘‘हां... आह! मुण्डू क्या प्यारा शब्द है... यह छप सकती है... उसका अर्थ क्या होता है?’’ मल्लराज ने खँखालते हुए गिलास खाली कर दिया!
‘‘सर, मुण्डू का अर्थ है परम्परा से चली आ रही बेगार... अरदली होना.... इसका सही अर्थ तो मैं नहीं समझा सकता... लेकिन...’’ ‘‘लेकिन तुम तश्तरी लेकर बाहर खड़े थे... क्या तुम्हें मुण्डू कहा जा सकता है।’’ ‘‘आप कह सकते है!’’ ‘‘अच्छा शब्द है।’’
‘‘लेकिन सर इसे ज्यादा अच्छा नहीं समझा जाता...यह बेचारगी का प्रतीक है।’’ ‘‘तब तो और भी सार्थक है...हर आदमी में मुण्डू होता है.... दो ही विकल्प हैं या तो आप मुण्डू हो जाए या गुण्डू...अपने सीनियर के सामने मैं भी मुण्डू होता हूँ... और अपनी उसके सामने भी...’’ तभी हिचकोले खाते हुए वह बोला- अरे...भई अभी तक वह आई नहीं... ‘‘कौन सर?’’
‘‘तुम तो बातें प्रतीकों की कर रहे थे... और तुम्हारा भेजा... मैंने तो सुना था यहाँ नयी लेखिकाएँ उगाई जा रही हैं।’’ मल्लराज की साँसे... शायद गर्माने की इन्तजार में धधक रही थी...
भोलू को कुछ-कुछ स्पष्ट होता लगा... फिर अस्पष्टता की छाया...नयी लेखिकाएं...और वह... फिर उसे लगा उसके शरीर पर औरत के अंग उगने लगे थे...वह भाव-विभोर हो उठा!