मुफ्तखोरों की विराट पंगत जारी है / जयप्रकाश चौकसे

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मुफ्तखोरों की विराट पंगत जारी है

प्रकाशन तिथि : 06 अगस्त 2012

शुक्रवार को प्रदर्शन के बाद निर्माता फिल्म के सफल होने का जश्न मनाता है और फिल्म असफल होने पर निर्माता का प्रतिद्वंद्वी दावत देता है। हर हालत में सप्ताहांत में जश्न मनाया जाता है। मुफ्तखोरों के मजे होते हैं। हर उद्योग में कुछ लोग होते हैं, जो कोई काम नहीं करते या कभी कुछ किया था, जिसकी स्मृति में उन्हें दावतों में बुलाया जाता है। फिल्म उद्योग में कुछ बुजुर्ग हैं, जो स्वयं भूल चुके हैं कि उन्होंने आखिरी फिल्म कब बनाई थी। दरअसल फिल्म उद्योग में एक या दो सफलताओं के दम पर पूरी उम्र निकल जाती है।

हर सप्ताह मुहूर्त या प्रदर्शन की दावत होती है। कई निर्माता गीत रिकॉर्डिग या शूटिंग के दौर खत्म होने पर भी दावत देते हैं। शूटिंग के समय दोपहर के भोजन में स्टूडियो में मौजूद हर फिल्मवाले को सम्मान सहित खाना खिलाया जाता है। रमजान के महीने में स्टूडियो के बगीचे में सौ-दो सौ व्यक्तियों के रोजा इफ्तारी का बंदोबस्त होता है।

मुफ्तखोर और दावतों के लुटेरों के कई मुखौटे होते हैं, जिनमें सबसे लोकप्रिय विशेषज्ञ का मुखौटा है। जिसे कुछ नहीं आता, वह आसानी से विशेषज्ञ हो सकता है। मुफ्तखोरों की संख्या फिल्म उद्योग में अन्य उद्योगों की तुलना में अधिक है। फिल्म उद्योग में बहुत-सी चीजें भाग्य के भरोसे होती हैं, इसलिए निर्माता किसी की भी बद्दुआ नहीं लेना चाहता। जब किसी प्रतिभाहीन कामचोर को सफलता मिलती है, तब वह अधिक अंधविश्वासी हो जाता है। विगत कुछ दशकों में धार्मिक स्थलों पर चढ़ावे में अकल्पनीय धन आने लगा है। भ्रष्टाचार और अन्याय के अनुपात में चढ़ावे की रकम बड़ी है और आस्था के केंद्रों पर भीड़ भी बढ़ती जा रही है।

इसका यह अर्थ भी हो सकता है कि व्यवस्था बदलने के लिए अब केवल ईश्वर या खुदा का ही भरोसा है। इंसानी पहल में लोगों का भरोसा उठ गया है। जब तर्क से किसी नतीजे पर पहुंचना कठिन हो जाता है, तब लोगों का यकीन टोटकों में होने लगता है। लाइलाज मर्ज होने पर मरीज या उसके रिश्तेदार किसी अजूबे के घटने की प्रार्थना में लीन हो जाते हैं।

अन्ना हजारे ने आंदोलन वापस लिया है और उनके तौर-तरीकों पर विवाद हो सकता है। स्वयं अन्ना की भाषा में धमकियां ध्वनित होती थीं और उनके साथी हमें हिटलर और गोएबल्स की याद दिलाने लगे थे। केवल किसी अधिनियम से समाज नहीं बदलता, यह सही है, परंतु उनके द्वारा उठाया गया भ्रष्टाचार का मुद्दा आज भी कायम है। व्यवस्था की सड़ांध पहले से ज्यादा भयावह हो गई है। अत: इन हालात में अन्ना की विफलता पर कुछ नेताओं ने आनंद अभिव्यक्त किया है और यह एक शर्मनाक बात है। आज देश को लेकर चिंता की दशा पहले से ज्यादा स्याह है। अत: खुशी का इजहार भ्रष्टाचार का अनुमोदन माना जा सकता है।

इसका एक पक्ष यह भी है कि प्रारंभ से ही अन्ना का निशाना केवल कांग्रेस थी और उन्होंने कभी अन्य दलों के भ्रष्ट आचरण पर कोई आपत्ति नहीं दर्ज की थी। हिसार में हुए चुनाव में अन्ना के दल ने उस प्रतिनिधि के जीतने में सहायता की, जिस पर अनेक प्रकरण दर्ज हैं। कांग्रेस के पराजित उम्मीदवार पर लांछन नहीं थे। यही कारण है कि अन्ना के साथी संतोष हेगड़े ने हिसार की गलती को रेखांकित किया।

भारत में मुफ्तखोरों और आलसी लोगों के लिए निरंतर दावतों में शरीक होना संभव है। कहीं किसी के पास सरल लक्ष्य का आंदोलन चलाने की इच्छा नहीं है। आम आदमी के जीवन पर भ्रष्टाचार के प्रभाव के समान ही प्रभाव कामचोरी से भी होता है। दफ्तरों के गलियारों में खैनी मलते लोग मंडराते हैं और जनता काम के इंतजार में घंटों बैठी रहती है। जीवन और समाज के हर क्षेत्र में कामचोर लोग गुलर्छे उड़ा रहे हैं। कुछ लोगों के लिए जीवन एक दावत, एक लंगर हो गया है। जाने कौन जजमान है, परंतु एक विराट पंगत जारी है और दूसरी ओर भूखों की लंबी कतार लगी है, पत्तलों के फेंके जाने का इंतजार है। हर देश में गरीब और लाचार लोग हैं, परंतु भारत जैसे दृश्य कहीं नहीं हैं। यहां पसीना ही अर्थ खो चुका है। हमने ऐसे समाज की रचना की है, जहां मुफ्तखोरों की जमात खड़ी है, बिचौलियों का हुजूम है। हर तरफ दलाल ही दलाल नजर आते हैं।

दरअसल देश में काम के आदर, परिश्रम के पुरस्कार का वातावरण बनाना बहुत कठिन है। गांधीजी के हर आंदोलन के साथ कुरीतियों के खिलाफ संघर्ष को महत्व दिया गया था। अन्ना के साथ तो कुरीतियों के जन्मदाता भी शामिल थे। भ्रष्टाचार और कालेधन से ज्यादा महत्वपूर्ण है सांस्कृतिक शून्य को भरना और दैनिक सरल कामों में जीवन मूल्यों की स्थापना करना। इस देश में प्रतिभाशाली और परिश्रम करने वालों की संख्या बहुत बड़ी है, परंतु देश में सुधार हर नागरिक का दायित्व है। आप कुछ प्रतिभाशाली लोगों के ऊपर निर्भर नहीं कर सकते, क्योंकि जनतंत्र व्यवस्था में हर नागरिक का नायक होना जरूरी है। हर बूंद के सार्थक होने से ही प्रभावी लहर का निर्माण संभव है। अन्ना की विफलता पर आनंद की अभिव्यक्ति महज भ्रष्टाचार का अनुमोदन करना है। इस राष्ट्रीय त्रासदी पर गंभीर और गहन विचार की आवश्यकता है। अजूबों और अवतारों से देश नहीं बनता। राष्ट्रीय चरित्र का विकास आवश्यक है। हमने स्वतंत्रता को ठीक से परिभाषित नहीं किया था और आज भ्रष्टाचार को भी हम ठीक से परिभाषित नहीं कर रहे हैं। दफ्तरों में काम न करना भी एक तरह का भ्रष्टाचार है। एक स्कूल का शिक्षक पढ़ाते समय चॉक और डस्टर को जेब में डालता है और उसके घर लौटने पर वे चॉक के टुकड़े उसके बच्चे ले लेते हैं। इसको भ्रष्टाचार नहीं मान सकते।शुक्रवार को प्रदर्शन के बाद निर्माता फिल्म के सफल होने का जश्न मनाता है और फिल्म असफल होने पर निर्माता का प्रतिद्वंद्वी दावत देता है। हर हालत में सप्ताहांत में जश्न मनाया जाता है। मुफ्तखोरों के मजे होते हैं। हर उद्योग में कुछ लोग होते हैं, जो कोई काम नहीं करते या कभी कुछ किया था, जिसकी स्मृति में उन्हें दावतों में बुलाया जाता है। फिल्म उद्योग में कुछ बुजुर्ग हैं, जो स्वयं भूल चुके हैं कि उन्होंने आखिरी फिल्म कब बनाई थी। दरअसल फिल्म उद्योग में एक या दो सफलताओं के दम पर पूरी उम्र निकल जाती है।

हर सप्ताह मुहूर्त या प्रदर्शन की दावत होती है। कई निर्माता गीत रिकॉर्डिग या शूटिंग के दौर खत्म होने पर भी दावत देते हैं। शूटिंग के समय दोपहर के भोजन में स्टूडियो में मौजूद हर फिल्मवाले को सम्मान सहित खाना खिलाया जाता है। रमजान के महीने में स्टूडियो के बगीचे में सौ-दो सौ व्यक्तियों के रोजा इफ्तारी का बंदोबस्त होता है।

मुफ्तखोर और दावतों के लुटेरों के कई मुखौटे होते हैं, जिनमें सबसे लोकप्रिय विशेषज्ञ का मुखौटा है। जिसे कुछ नहीं आता, वह आसानी से विशेषज्ञ हो सकता है। मुफ्तखोरों की संख्या फिल्म उद्योग में अन्य उद्योगों की तुलना में अधिक है। फिल्म उद्योग में बहुत-सी चीजें भाग्य के भरोसे होती हैं, इसलिए निर्माता किसी की भी बद्दुआ नहीं लेना चाहता। जब किसी प्रतिभाहीन कामचोर को सफलता मिलती है, तब वह अधिक अंधविश्वासी हो जाता है। विगत कुछ दशकों में धार्मिक स्थलों पर चढ़ावे में अकल्पनीय धन आने लगा है। भ्रष्टाचार और अन्याय के अनुपात में चढ़ावे की रकम बड़ी है और आस्था के केंद्रों पर भीड़ भी बढ़ती जा रही है।

इसका यह अर्थ भी हो सकता है कि व्यवस्था बदलने के लिए अब केवल ईश्वर या खुदा का ही भरोसा है। इंसानी पहल में लोगों का भरोसा उठ गया है। जब तर्क से किसी नतीजे पर पहुंचना कठिन हो जाता है, तब लोगों का यकीन टोटकों में होने लगता है। लाइलाज मर्ज होने पर मरीज या उसके रिश्तेदार किसी अजूबे के घटने की प्रार्थना में लीन हो जाते हैं।

अन्ना हजारे ने आंदोलन वापस लिया है और उनके तौर-तरीकों पर विवाद हो सकता है। स्वयं अन्ना की भाषा में धमकियां ध्वनित होती थीं और उनके साथी हमें हिटलर और गोएबल्स की याद दिलाने लगे थे। केवल किसी अधिनियम से समाज नहीं बदलता, यह सही है, परंतु उनके द्वारा उठाया गया भ्रष्टाचार का मुद्दा आज भी कायम है। व्यवस्था की सड़ांध पहले से ज्यादा भयावह हो गई है। अत: इन हालात में अन्ना की विफलता पर कुछ नेताओं ने आनंद अभिव्यक्त किया है और यह एक शर्मनाक बात है। आज देश को लेकर चिंता की दशा पहले से ज्यादा स्याह है। अत: खुशी का इजहार भ्रष्टाचार का अनुमोदन माना जा सकता है।

इसका एक पक्ष यह भी है कि प्रारंभ से ही अन्ना का निशाना केवल कांग्रेस थी और उन्होंने कभी अन्य दलों के भ्रष्ट आचरण पर कोई आपत्ति नहीं दर्ज की थी। हिसार में हुए चुनाव में अन्ना के दल ने उस प्रतिनिधि के जीतने में सहायता की, जिस पर अनेक प्रकरण दर्ज हैं। कांग्रेस के पराजित उम्मीदवार पर लांछन नहीं थे। यही कारण है कि अन्ना के साथी संतोष हेगड़े ने हिसार की गलती को रेखांकित किया।

भारत में मुफ्तखोरों और आलसी लोगों के लिए निरंतर दावतों में शरीक होना संभव है। कहीं किसी के पास सरल लक्ष्य का आंदोलन चलाने की इच्छा नहीं है। आम आदमी के जीवन पर भ्रष्टाचार के प्रभाव के समान ही प्रभाव कामचोरी से भी होता है। दफ्तरों के गलियारों में खैनी मलते लोग मंडराते हैं और जनता काम के इंतजार में घंटों बैठी रहती है। जीवन और समाज के हर क्षेत्र में कामचोर लोग गुलर्छे उड़ा रहे हैं। कुछ लोगों के लिए जीवन एक दावत, एक लंगर हो गया है। जाने कौन जजमान है, परंतु एक विराट पंगत जारी है और दूसरी ओर भूखों की लंबी कतार लगी है, पत्तलों के फेंके जाने का इंतजार है। हर देश में गरीब और लाचार लोग हैं, परंतु भारत जैसे दृश्य कहीं नहीं हैं। यहां पसीना ही अर्थ खो चुका है। हमने ऐसे समाज की रचना की है, जहां मुफ्तखोरों की जमात खड़ी है, बिचौलियों का हुजूम है। हर तरफ दलाल ही दलाल नजर आते हैं।

दरअसल देश में काम के आदर, परिश्रम के पुरस्कार का वातावरण बनाना बहुत कठिन है। गांधीजी के हर आंदोलन के साथ कुरीतियों के खिलाफ संघर्ष को महत्व दिया गया था। अन्ना के साथ तो कुरीतियों के जन्मदाता भी शामिल थे। भ्रष्टाचार और कालेधन से ज्यादा महत्वपूर्ण है सांस्कृतिक शून्य को भरना और दैनिक सरल कामों में जीवन मूल्यों की स्थापना करना। इस देश में प्रतिभाशाली और परिश्रम करने वालों की संख्या बहुत बड़ी है, परंतु देश में सुधार हर नागरिक का दायित्व है। आप कुछ प्रतिभाशाली लोगों के ऊपर निर्भर नहीं कर सकते, क्योंकि जनतंत्र व्यवस्था में हर नागरिक का नायक होना जरूरी है। हर बूंद के सार्थक होने से ही प्रभावी लहर का निर्माण संभव है। अन्ना की विफलता पर आनंद की अभिव्यक्ति महज भ्रष्टाचार का अनुमोदन करना है। इस राष्ट्रीय त्रासदी पर गंभीर और गहन विचार की आवश्यकता है। अजूबों और अवतारों से देश नहीं बनता। राष्ट्रीय चरित्र का विकास आवश्यक है। हमने स्वतंत्रता को ठीक से परिभाषित नहीं किया था और आज भ्रष्टाचार को भी हम ठीक से परिभाषित नहीं कर रहे हैं। दफ्तरों में काम न करना भी एक तरह का भ्रष्टाचार है। एक स्कूल का शिक्षक पढ़ाते समय चॉक और डस्टर को जेब में डालता है और उसके घर लौटने पर वे चॉक के टुकड़े उसके बच्चे ले लेते हैं। इसको भ्रष्टाचार नहीं मान सकते।