मुफ्त की दावतें खत्म हो रही हैं / जयप्रकाश चौकसे

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मुफ्त की दावतें खत्म हो रही हैं

प्रकाशन तिथि : 22 सितम्बर 2012

विगत कुछ वर्षों से असफल फिल्में बनाने का दंड फिल्मकार को नहीं मिल रहा था, क्योंकि सैटेलाइट पर प्रदर्शन अधिकार बहुत महंगे में बिक रहे थे। फिल्म की आय का पचास प्रतिशत सैटेलाइट, होम वीडियो, संगीत अधिकार से प्राप्त हो रहा था। हाल ही में सैटेलाइट अधिकार खरीदने वालों ने निर्णय लिया है कि फिल्म प्रदर्शन के बाद बॉक्स ऑफिस नतीजे के आधार पर सैटेलाइट अधिकार के दाम तय होंगे, अर्थात असफलता के सीने से सैटेलाइट का कवच हट जाएगा और दर्शक के फैसले का तीर सीधे फिल्मकार की छाती पर लगेगा! यह परिवर्तन फिल्मकार की स्वच्छंदता पर अंकुश लगाने के लिए किया गया है।

इसी नीति के तहत 'जोकर' और 'बर्फी' जैसी फिल्मों का संयुक्त सौदा प्रदर्शन के पूर्व तोड़ दिया गया था, परंतु अब 'बर्फी' को दर्शक अनुशंसा के कारण उसकी लागत के बराबर धन सैटेलाइट से मिलने के समाचार आ रहे हैं, जबकि 'जोकर' के घाटे बढ़ जाएंगे।

अब सैटेलाइट अधिकार लेने वाला फिल्म पर विज्ञापनकर्ता के साथ बैठकर विचार करेगा और इस आकलन के आधार पर कीमत तय की जाएगी। शाहिद कपूर की 'मौसम' अपनी कीमत टेलीविजन पर प्रदर्शन से नहीं निकाल पाई। अनेक फिल्मों के साथ यही हुआ। इसी तरह सितारों द्वारा की गई विज्ञापन फिल्मों से मिलने वाली राशि भी उत्पाद की ब्रिकी पर निर्भर करेगी। कई बार किसी सितारे द्वारा प्रचारित उत्पाद की बिक्री नहीं बढ़ती। हाल ही में सलमान खान द्वारा प्रचारित एक मोटरबाइक की बिक्री कई गुना बढ़ गई है और ब्रांड भी छलांग लगाकर ऊपर आ गया है। अत: अब परिणाम आधारित मेहनताने का निर्धारण होगा।

दरअसल सरकारों का राजनीतिक मूल्य भी इसी तरह तय किया जाना चाहिए और विरोध तथा प्रदर्शन के असर का भी कोई मानक होना चाहिए। हाल ही में सरकार द्वारा एफडीआई के निर्णय और उसके विरोध, दोनों का मूल्यांकन मुद्दे के लाभ-हानि पर आधारित होना चाहिए। विगत कुछ वर्षों से भारत की कंपनियों ने भव्य स्टोर्स की शृंखला रची है और विशेषज्ञों का कहना है कि सभी घाटे में चल रही हैं, अत: विदेशी कंपनियां अपनी निजी व्यवस्था के बदले इन घाटा देने वाली संस्थाओं को खरीदकर अपने ढंग से चलाना पसंद कर सकती हैं। गोया कि इन भव्य पूंजीवादी स्टोर्स का मरा हुआ सांप भारतीय गले से उतारकर विदेशी गर्दन पर चस्पां हो सकता है। इन भव्य दुकानों का रख-रखाव बहुत महंगा है और पूरे देश की खरीद का मात्र पांच प्रतिशत इन भव्य ठिकानों से हो रहा है तथा बड़ा प्रतिशत पारंपरिक किराना दुकानों से हो रहा है। इस प्रकरण से उभरती हैं कुछ भारतीय प्रवृत्तियां, मसलन भव्य वातानुकूलित दुकानें उन्हें भयभीत और पारंपरिक किराना दुकानें आश्वस्त करती हैं। भव्य स्टोर्स की चकाचौंध और पेचीदा व्यवस्था उन्हें पसंद नहीं कि एक जगह से तरबूज उठाओ, दूसरी जगह तोलने के बाद तीसरी जगह भुगतान की कतार में खड़े रहो। अमीरों को कार पार्किंग की समस्या है। महानगरों में इन भव्य स्टोर्स के लिए जगह लेने पर बहुत किराया देना पड़ता है। सबसे बड़ी बात यह है कि पारंपरिक किराना दुकान पर पुराने नियमित ग्राहकों को उधार की सहूलियत भी है। खराब माल आने पर लौटाया भी जा सकता है। माल की शुद्धता सभी जगह संदिग्ध है। मिलावट तो हमारे डीएनए में शामिल है। बहरहाल मनोरंजन उद्योग में सैटेलाइट ऊंची भव्य दुकान है और अब वह घाटे से बचना चाहती है तथा एकल सिनेमाघर पारंपरिक किराने की दुकानों की तरह है, जहां भयभीत होने की जरूरत नहीं है। शीघ्र ही यह भी संभव है कि असफल फिल्म के सितारों व तकनीशियनों के मेहनताने घट जाएं। जीवन के सभी क्षेत्रों में गुणवत्ता की स्थापना आवश्यक है और परिणाम पर मेहनताना आधारित होना चाहिए।