मुमूर्षा / कुँवर दिनेश
रात के सवा नौ बज रहे थे। जसवन्त अपने दो छोटे-छोटे बेटों के साथ रात्रिभोज कर के अभी-अभी फ़ारिग़ हुआ था। उसने बेटों को कमरे में जाकर सोने को कहा। कुछ समय बाद बच्चे सोने के लिए ऊपर की मंज़िल पर शयनकक्ष में चले गए। जसवन्त की पत्नी व वृद्ध माँ अब भोजन करने बैठीं थीं। वह चूल्हे के पास ही बैठी पत्नी व माँ से बतियाने लगा। गाँव की, सरीकों की चर्चा हो रही थी। पत्नी खाने के उपरान्त बर्तन धोने के लिए रसोई के साथ बने छोटे-से कमरे में बने सिंक पर गई। वह बर्तन धोने में मशग़ूल थी कि अचानक उसे सीटियों की आवाज़ें कानों में पड़ीं। पहली एक दो बार तो उसने नज़र-अंदाज़ कर दिया पर पुनर्पुन: ध्वनि सुनाई देने पर वह भीतर रसोई की ओर दौड़ी व अपने पति से उन सीटियों की आवाज़ों के बारे में कहने लगी। जसवन्त तुरन्त रसोई के पीछे वाले उस कक्ष के द्वार की ओर दौड़ा और पिछवाड़े की बत्तियाँ जलाकर बाहर निकला। उसने इधर-उधर देखा पर वहाँ पर कोई नज़र नहीं आया। उसने पत्नी से कहा वहाँ तो कोई भी नहीं है, न ही कोई सीटियों की आवाज़ सुनाई दे रही हैं। वह भीतर को मुड़ा कि पीछे से फिर से सीटियों की आवाज़ आई। ऐसा लग रहा था मानो कोई जान-बूझ कर सीटियाँ मार रहा हो। जसवन्त फिर पीछे मुड़ा और देखने लगा कि आवाज़ कहाँ से आई, किन्तु फिर भी उसे वहाँ कोई दिखाई नहीं दिया। वह थोड़ी देर इधर-उधर देखता रहा किन्तु कुछ नज़र नहीं आया। अब सीटियों की आवाज़ भी नहीं आई। वह भीतर चला आया। उसने पत्नी से कहा कि वह दरवाज़ा ठीक से बंद करके बाहर की बत्तियाँ बुझा दे।
जसवन्त रसोई में लौटा। उसकी माँ पूछने लगी कि क्या हुआ। वे दोनों बाहर क्यों गए थे? ज़सवन्त ने माँ से सीटियों के बारे में कहा। माँ ने उससे सीटियों की प्रकार पूछी। जसवन्त ने बताया कि बिल्कुल किसी मनुष्य द्वारा बजाई सीटी जैसी भी नहीं, पर ऊँचे स्वर में आवाज़ आई थी। माँ भी वहाँ पिछवाड़े के दरवाज़े पर गई और थोड़ी देर वहाँ खड़े रहने पर उसने भी वे सीटियाँ सुनीं। आवाज़ कुछ-कुछ देर रुक कर आ रही थी। माँ समझ गई। उसने अपने अनुभव से बताया कि ये सीटियाँ हो न हो किसी सोतड़ या सौ से ऊपर की उम्र वाले किसी बुड्ढे खड़पे की लगती हैं।
जसवन्त ने बड़ी हैरानी से पूछा, “यह क्या कह रही हो माँ? एक खड़पे की ऐसी आवाज़ें मैंने तो पहले कभी नहीं सुनीं। खड़पे तो मैंने देखे हैं, उनकी ध्वनि भी सुनी है लेकिन इस प्रकार की नहीं। और आप कैसे कह सकती हैं कि ये आवाज़ें वही हैं?”
माँ ने बताया, “बेटा, मैंने भी एक-आध बार ही ऐसी सीटियाँ सुनीं हैं। पर तेरे पिता इनको अच्छी तरह पहचानते थे और अच्छी तरह समझते भी थे।”
“अच्छी तरह समझते थे? क्या समझते थे, माँ?” जसवन्त ने उत्सुकता भरे स्वर में पूछा।
माँ बोली―”बेटा, तू तो जानता है तेरे पिता एक अच्छे शिकारी थे। जब वे जंगल में शिकार को जाते थे तो कभी-कभी ऐसे खड़पे भी उन्हें दिख जाते थे। उन्होंने हमें बताया था कि एक दो को तो उन्होंने मारा भी था।”
“हाँ, माँ, यह बात तो थोड़ी-थोड़ी मुझे भी याद है। मैंने कभी इस बारे में तफ़सील से नहीं जाना पर आपने ऐसा क्यों कहा कि वे इन खड़पों को अच्छी तरह समझते थे?”
जसवन्त की पत्नी भी यह सब सुनकर हैरान थी। वह भी माँ से पूछने लगी कि ऐसी क्या बात है इन खड़पों के बारे में जो पिताजी समझते थे। दोनों की जिज्ञासा को देखते हुए माँ ने बताया, “उनको बहुत अनुभव था और उन्होंने अपने बुज़ुर्गों से व अन्य शिकारियों से भी यह सब जाना था। वो इनके बारे में बहुत कुछ बताते थे पर एक ख़ास बात इन सीटियों जैसी आवाज़ों के बारे में भी कहते थे।”
“क्या कहते थे?” जसवन्त ने प्रश्न किया।
“वो कहते थे कि खड़पे ऐसी सीटियों जैसी उच्च स्वर की आवाज़ें दो ही स्थितियों में निकालते हैं ―या तो तब जब वे किसी को मारने आए हों या फिर तब जब वे ख़ुद मरने आए हों।”
“माँ, यह क्या बात हुई, भला?” जसवन्त ने उत्सुकता से पूछा।
“हाँ, बेटा . . . जैसी आवाज़ें अभी सुनाई पड़ रही हैं, इनसे मालूम होता है कि यहीं पास में कोई बुड्ढा खड़पा आज अपनी जान देने पर उतारू है। वह मौत चाहता है।”
“लेकिन, माँ जी, कोई स्वयं मौत क्यों चाहेगा? अपनी जान तो सबको प्यारी होती है।” बड़ी हैरानी से जसवन्त की पत्नी ने पूछा।
“बहू, इन्सान तो जीने के मोह-पाश में फँसा रहता है, उससे छूट ही नहीं पाता। जानवर एक सीमा तक ही मोह रखते हैं। एक घर-परिवार के लिए वफ़ादार कुत्ते भी मरने के लिए अलग हो जाते हैं और अक्सर घर से बाहर कहीं दूर जाकर मौत को अपना लेते हैं। ये सर्प भी ऐसे ही होते हैं। एक उम्र के बाद ये भी जीने की इच्छा छोड़ देते हैं।” माँ कुछ गम्भीर होकर कह रही थी, “और, बहू, इन खड़पों की तो उम्र का भी पता नहीं चलता ― ये सैंकड़ों साल जीते रहते हैं। इनको इस जून से मुक्ति आसानी से नहीं मिलती। कई-कई बरस ज़मीन के नीचे पड़े रहते हैं, कोई-कोई तो इच्छाधारी भी हो जाते हैं।”
“इच्छाधारी?” बहू ने प्रश्न किया।
“हाँ, ऐसा सुना है। बस अपनी इस कठिन जून से मोक्ष पाने के लिए ये यूँ मरने चले आते हैं।”
“तो इसको मोक्ष दे देते हैं। मैं बंदूक़ लाता हूँ,” जसवन्त बोल उठा।
“हाँ, माँ जी, अब यह इतना तड़प रहा है, तो इसे मार देना चाहिए। इसको मारने से ही इसको मोक्ष मिलेगा।” बहू कुछ करुण स्वर में कहने लगी।
“नहीं . . . नहीं। इसको मारना नहीं” माँ कुछ गम्भीर स्वर में बोली।
“लेकिन क्यों, माँ, यह किसी को डस भी तो सकता है। इसे यहाँ से भगाना तो होगा,” जसवन्त थोड़ा चिन्तित होकर बोला, “और अगर यह उग्र होता है, तो इसे मारना भी पड़ सकता है।”
“नहीं-नहीं अभी रहने दो इसको ऐसे ही, सुबह देखेंगे। डंडे-डुंडे से इसको दूर कर देना, पर मारना मत . . . पता नहीं किस रूप में आया हुआ है . . . कोई पितर या देव भी हो सकता है . . . चलो सो जाओ, बड़ा वक़्त हो चला है।”
वे अपने-अपने कमरों में चले गए। रात के बारह बज रहे थे। माँ की बातों से जसवन्त और उसकी पत्नी उत्सुक भी थे और व्याकुल भी हो उठे थे। वे बड़ी देर तक आपस में भी इस विषय पर बातें करते रहे। उन्होंने भी नागों-खड़पों के बारे में बहुत-सी बातें सुनीं हुए थीं। बहुत-से मिथक, बहुत-सी किंवदन्तियाँ ― लोगों से सुनने को मिलतीं थीं। ऐसी ही बातें करते-करते वे सो गए।
शहर पास ही होने के कारण जसवन्त को उसके पिता ने पढ़ने के लिए वहाँ भेज दिया था; वहाँ वह अपने मामा के यहाँ रहा। हायर सैकेण्डरी के बाद वह कृषि विज्ञान में स्नातक डिग्री करने पास के कृषि विश्वविद्यालय में चला गया, जो तक़रीबन पचास किलोमीटर की दूरी पर था। वहाँ उसे हॉस्टल में रहना पड़ा। इस दौरान उसका ग्रामीण जीवन-शैली से अधिक राबता नहीं रहा। वह ग्रामीण जन-जीवन से जुड़ी बहुत-सी बातों से अनभिज्ञ था। गाँव के बीहड़ जंगलों में वन्य प्राणियों के विषय में भी वह अधिक जानकारी नहीं रखता था। अत एव नागों के बारे में जो बातें वह सुन रहा था, वे उसे बहुत अजीब-सी लग रहीं थीं।
जसवन्त ने अभी स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण कर स्नातकोत्तर शिक्षा के लिए आवेदन किया ही था कि उसके पिता चल बसे। इस कारण उसे शिक्षा अधर में छोड़ गाँव लौटना पड़ा था। उसकी माँ ने ज़मीन-जायदाद की देखभाल के लिए व गाँव में ख़ुद के अकेले रह जाने पर उसे फिर वहीं रहने का आग्रह किया। जसवन्त ने भी मजबूरियों व जिम्मेदारियों को समझा और गाँव में रहने लगा। उसने कृषि विज्ञान के क्षेत्र में अपने ज्ञान का सदुपयोग करते हुए अपनी ज़मीन पर फ़सलों व सब्ज़ियों को वैज्ञानिक ढंग से उगाना शुरू किया, जिससे काफ़ी अच्छा उत्पादन होने लगा व अच्छी आय भी होने लगी। दो-तीन साल में उसका विवाह हो गया और फिर दो बच्चे हो गए। इस तरह एक छोटे-से परिवार के साथ वह सुख से जीवन बसर कर रहा था।
सुबह हुई तो जसवन्त की पत्नी रसोई व बीह में सोत लगाती हुई घर के पिछवाड़े की ओर निकली और जैसे ही वह डंगे के नीचे की ओर कूड़ा फेंकने के लिए बढ़ी, वहाँ एक बड़े-से फण वाले खड़पे को लेटा देख कर सहसा उसकी चीख़ निकल पड़ी। उसके चिल्लाने की आवाज़ सुनकर जसवन्त तुरन्त बिस्तर से कूदा और बाहर की ओर दौड़ा और उसके पीछे-पीछे उसकी माँ भी बाहर पिछवाड़े में आ पहुँची। तीनों उस खड़पे को देखकर आश्चर्यचकित थे और भय से काँप रहे थे। कुछ क्षणों के लिए अवाक् हो गए। फिर माँ ने कहा कि यह वही खड़पा है जो रात को सीटियों की आवाज़ें निकाल रहा था। जसवन्त उसे देख बहुत हैरान था। उसने पहले कभी ऐसा अद्भुत् नाग नहीं देखा था। तक़रीबन फुट-भर चौड़ा उसका फण था और वह आठ-नौ फुट लम्बा तो अवश्य था। रंग कुछ काला-सा था, जिस पर सलेटी डिब्बियाँ दीख पड़ रहीं थीं। और वह काफ़ी मोटा था। इतना भयावह कि देखते ही व्यक्ति काँप उठे।
जसवन्त कहने लगा, “माँ, इसे तो मारना ही पड़ेगा। मैं बन्दूक़ लाता हूँ।” किन्तु माँ ने उसे फिर रोक लिया, “नहीं बेटे, रहने दे इसे ऐसे ही . . . कुछ देर में ख़ुद ही चला जाएगा।”
माँ की बात मानकर जसवन्त चुप रह गया। सभी भीतर चले गए और अपने-अपने काम पर लग गए। बच्चे नींद से जागे तो दादी और माँ ने उन्हें भी नाग के विषय में बताया और घर के पिछवाड़े न जाने की हिदायत दे दी। बच्चे उसे एक बार देखने की ज़िद्द करने लगे तो दादी ने जसवन्त से कहा कि पहले वह जाकर देखे कि वह खड़पा वहीं है, तो सावधानी से बच्चों को एक बार दिखा दे। जसवन्त ने देखा वह खड़पा वहीं लेटा हुआ था; उसने बच्चों को बुला लिया। बच्चों ने उसे देखा तो वे अवाक् रह गए। भय के कारण धीमे-धीमे फुसफुसाने लगे―”हाय, कितना ख़तरनाक नाग है और कितना अद्भुत्।”
“पापा, यह, यहाँ कैसे आ गया? इसको यहाँ से हटाते क्यों नहीं?”
जसवन्त ने उन्हें बताया कि वह बेचारा मरने की ही इच्छा से यहाँ आया है, परन्तु उसे मारने से माँ इन्क़ार कर रहीं हैं। इसलिए वे देखेंगे कि कुछ समय बाद वह वहाँ से चला जाए तो ठीक, वरना वे आगे की कार्यवाही के बारे में सोचेंगे।
उसने बच्चों को उस ओर न जाने की ताकीद की। कुछ देर में वहाँ से सब चल दिए और अपने-अपने कामों में मसरूफ़ हो गए।
दोपहर बाद तक इस घटना के बारे में आस-पड़ोस में सबको ख़बर हो गई। जसवन्त के घर के साथ ही घर था उसके चाचा तरसेम का। नाग के बारे में सुनते ही चाचा तरसेम जसवन्त के घर आ पहुँचे। जाने-माने शिकारी रह चुके चाचा से उस नाग को देखे बिना रहा नहीं गया।
जसवन्त उन्हें घर के पिछवाड़े ले गया। वहाँ डंगे के नीचे एक क्यारी में वह नाग पूरा फैला हुआ चित्त लेटा हुआ था। उसमें कोई हरकत नहीं थी। उसे ध्यान से देखने के बाद चाचा तरसेम बोलने लगे ― “अरे बेटा जसवन्त, यह तो पास वाले जंगल का बड़ा पुराना बाशिंदा है।”
जसवन्त ने बड़ी हैरानी से पूछा, “पास वाले जंगल का बाशिंदा? आपने पहले कब देखा वहाँ इसको?”
“बेटा, दो-एक बार मैंने इसको वहाँ जंगल में देखा था। मैं शिकार करने गया हुआ था। शाम हो गई थी, अँधेरा बढ़ रहा था, मैं घर की ओर आ रहा था, कि अचानक घनी झाड़ियों में कुछ सरसराहट हुई; मुझे लगा कोई जानवर है वहाँ पर . . . मैंने अन्दाज़े से गोली दाग दी . . . फिर कोई आवाज़ झाड़ियों मे से नहीं आई। वहाँ कुछ भी नहीं है, ऐसा जान जैसे ही मैंने क़दम बढ़ाया, मेरे पास से कोई पाँच-छ: फुट की दूरी पर ऐसा ही एक बड़ा सर्प ज़ोर-ज़ोर से सी-सी की आवाज़ें निकालता हुआ फण उठाए खड़ा था।”
हैरानी से जसवन्त ने बीच में ही टोक कर पूछा, “फिर क्या हुआ? आपने गोली नहीं मारी उसे?”
चाचा बोले, “अरे बेटा, मेरे पास इतना वक़्त कहाँ था कि छर्रा डाल पाता बन्दूक़ में . . . मैं तो कुछ पलों के लिए सहम-सा गया और इससे पहले कि वह आगे बढ़ता, मुझे कुछ और सूझा नहीं, बस वहाँ से भागा . . . कुछ दूर जाकर मैंने टॉर्च लगाकर उस दिशा में देखा तो वह वैसे ही फण उठाए सीटियों की आवाज़ें निकाल रहा था।”
“वह आपके पीछे नहीं दौड़ा?”
“नहीं, नहीं . . . शायद मैंने पहले जो गोली चलाई थी, वह इसकी पूँछ में लग गई थी। वह तभी ग़ुस्से से फुँकार कर रहा था और सच बताऊँ, बेटा, जब वहाँ से दूर आ गया तो मुझे मालूम पड़ा कि मेरी बरजिश तो गीली हो रखी थी . . .” ― “क्या बात कर रहे हो, चाचू?”
― “सच बता रहा हूँ, बेटा . . . भगवान् ने कुछ जानवर जैसे ― शेर, घड़ियाल और यह खड़पा, ऐसे बनाए हैं कि जब कभी ये औचक सामने आ जाएँ तो या तो कुछ देर के लिए दिल बैठ जाता है या फिर मूत निकल आता है।”
― “हाँ, चाचू, ये सब हैं तो बेहद डरावने पर हम अब इस खड़पे का क्या करें? रात भर से यहाँ डटा है। माँ कहती है इसे मारना नहीं . . . न जाने यह किस रूप में आया है, कोई पितर भी हो सकता है . . . इसे मारना पाप होता है।”
“पाप-पूप कुछ नहीं, मार डालो इसको। जो तुमको ख़तरा पैदा करे उसको मारने में कोई पाप नहीं होता। इससे पहले कि यह तुम पर हमला करे, इसे मार दो।”
“मैं भी ऐसा ही सोचता हूँ, पर चलो, चाचू, एक रात और देख लेते हैं, यह शायद यहाँ से ख़ुद ही चला जाए। माँ की बात भी रख लेते हैं।”
“जैसा तुम ठीक समझो, पर अपना ख़्याल रखना। बच्चों को मत आने देना इस तरफ़। मैं चलता हूँ।”
एक रात फिर ऐसे ही बीत गई। अगली सवेर क़रीब आठ बजे होंगे। जैसे ही जसवन्त उठ कर आँगन में आया, तो उसे चाचा तरसेम के घर पर कुछ शोर सुनाई दिया। वह भी उस ओर गया। उसने देखा चाचा के परिवार के सारे सदस्य वहाँ आँगन में मौजूद थे और चाचा तरसेम अपनी राइफ़ल उठाए हुए थे; साथ में गाँव के आस-पड़ोस के पाँच-छ: लोग भी वहाँ पहुँचे हुए थे। जसवन्त ने चाची से पूछा क्या बात हो गई, तो उन्होंने बताया कि तड़के ही जब चाचा बाहर टहलने को निकले तो उन्हें आँगन के साथ वाले खेत में वही बुड्ढा खड़पा नज़र आया और उन्होंने आव देखा न ताव, तुरन्त भीतर गए, अपनी राइफ़ल लेकर आए और उस पर फ़ायर कर डाला।
जसवन्त उस नाग को मरा देख अवाक् रह गया था। वह तुरन्त उसकी पुष्टि के लिए अपने घर के पिछवाड़े गया, और देखा कि वहाँ वह नाग नहीं था। फिर उसने अपनी पत्नी व माँ को बताया कि चाचा ने उस नाग को मार दिया है। सभी तरसेम सिंह के घर पहुँचे। वहाँ सभी उस बूढ़े नाग के बारे में तरह-तरह की बातें कर रहे थे।
चाचा ने जसवन्त को देखते ही कहा ― “देखो, जसवन्त, मैंने इसे मुक्ति दे दी . . . हा-हा-हा . . .,” जसवन्त मुस्कुराया और बोला, “पता नहीं, चाचू, यह इसकी मुक्ति हुई या हम पर पाप चढ़ा . . .”
माँ ने उसे देखा और मन ही मन में “नम: शिवाय” कहकर बस इतना बोली ― “इस बेचारे का भी वक़्त आया हुआ था।”