मुर्दहिया / कमलानंद झा
जो यह पढ़े कहानी, हम्ह संवरै दुई बोल साल भर पहले मुर्दहिया पढ़ा था। वर्षों बाद एक अच्छी पुस्तक पढ़ने की खुशी नहीं तकलीफ़ हुई। एक सांस में पूरी पुस्तक पढ़ जाने के बाद अपना तथाकथित संघर्ष मजाक लगने लगा। घंटों सोचता रहा जिंदगी जी है तो तुलसीराम ने। जिंदगी को ठेंगा दिखाता, जिंदगी की रेड़ पीटता और जिंदगी की धज्जियां उड़ाता। मुर्दहिया किसी भी संवेदनशील पाठक को डिस्टर्ब और घोर बेचैन करने वाली रचना है। इसका एक पाठ तो यह है कि मुर्दहिया के लेखक तुलसीराम सवर्ण हेजेमनी का शिकार होकर दलित चेतना के तुर्श धार को भोथरा कर रहे हैं। मुर्दहिया का दूसरा पाठ इस पाठ का प्रतिपाठ रचते हुए इसे दलित दमन और सामाजिक समरस के द्वंद्व का विलक्षण रचनात्मक विस्फोट मानता है। ध्यान देने की बात यह है कि मुर्दहिया का दूसरा पाठ करनेवाले सिर्फ सवर्ण आलोचक ही नहीं बल्कि कई दलित रचनाकर और आलोचक भी हैं। इस घमासान ने मुर्दहिया को पुनः पढ़ने पर विवश किया। और जब दूसरी बार इसे पढ़ा तो लगा यह एक अपराजेय योद्धा की विराट् युद्ध कथा है। इसलिए यह आत्मकथा एक सांस में पढ़नेवाली नहीं है बल्कि यह रचना पाठकों से रुक-रुक कर पढ़ने की मांग करती है। बशीर बद्र के शब्दों में ‘ये ग़ज़ल की सच्ची किताब है, इसे धीरे-धीरे पढ़ा करो।’ और इस तरह पढ़ने से मुर्दहिया का वैशिष्ट्य अधिक खुलकर सामाने आता है। मुर्दहिया को हम दलित आत्मकथा लेखन की दूसरी धारा कह सकते हैं। दलित आत्मकथा की पहली धारा की अधिकांश रचनाओं में सवर्णों के असह्य दमन, घुट-घुट कर उस को बर्दाश्त करने रहने की विवशता और प्रतिक्रियास्वरूप उनके दमित क्रोध को रंखांकित किया गया है। निश्चित रूप से इन आत्मकथाओं ने समाज की एक ऐसी असलियत को साहित्य में स्थापित किया जिसे सायास बाहर रखने की कोशिश लंबे समय से चली आ रही थी। इन आत्मकथाओं के प्रकाशन से न जाने कितने पंडितों और आचार्य आलोचकों की गद्दी हिलने लगी और उनकी प्रगतिशीलता की पोल खुल गई। एक दलित कविता में इस भाव को बखूबी समझा गया है-
नवजात शब्दों के अंकुर फूटते ही
तुम्हारी छाती पर सांप लोटने लगे। अभी तो तुम्हारे जुल्मों की लाखों
अनकही कहानियां बयां करनी है।
आत्मकथाओं की विश्वसनीयता और यथार्थता पर आज गंभीर विमर्श हो रहा है। यह विमर्श निश्चित रूप से दलित साहित्य के लोकतांत्रिक चरित्र का परिचायक है। आलोचना-प्रत्यालोचना साहित्य के संबधित धारा को कमजोर न कर उसकी शक्ति और सामर्थ्य को नयी दिशा प्रदान करता है। आज तक के भारतीय साहित्य विशेषकर दलित केंद्रित भक्ति कविता इस बात को स्थापित करने में सफल रहा है कि प्रतिक्रिया में लिखा गया साहित्य संवेदनाओं को समग्रता में प्रकट नहीं कर पाता। यद्यपि प्रतिक्रिया में लिखे गए साहित्य का मूल्य कम नहीं होता क्योंकि वह ऐसे अनुभवजन्य शोषण के विविध रूपों को प्रकाश में लाता है जिसे कई परतों और अभेद्य दिवारों के अंदर छिपा कर रखा जाता है। लेकिन दूसरी तरफ यह भी सच है कि दुनिया का कोई भी समाज सिर्फ शोषण और दमन की भित्ति पर नहीं टिकी होता बल्कि उसमें एक समरसता भी होती है। किसी भी वर्ग या जाति को पूर्णतः शोषक मान लेना, एक तरह का सामान्यीकरण है। मुर्दहिया इसी सामान्यीकरण के खिलाफ शोषण की मनोवृत्त्यिों और टेन्डेन्सियों पर मारक प्रहार करते हुए समाज के समरस प्रकृति को सामने लाने का प्रयास है जो दलित आत्मकथा की दूसरी और नयी धारा है। मुर्दहिया में तुलसीराम ने बुद्ध की करुणा का संस्पर्श पाकर आक्रोश को मानवीय संवेदना में रूपांतरित कर दिया है। बौद्ध दर्शन की संवेदनशीलता और समरसता ने मुर्दहिया को विद्रोह और आक्रोश की जगह दुख, करुणा और प्रेम की आत्मकथा बना दिया है। वरिष्ठ आलोचक चैथीराम यादव के शब्दों में ‘‘मुर्दहिया रोती हुई संवेदनाओं की आत्मकथा है जिसे पढ़ते समय लेखक के बार-बार रोने का अहसास होता है। इसकी पराकाष्ठा मुर्दहिया से बिछुड़ने के दुख में होती है जब लेखक की गैर रोशनीवाली आंख से भी उतनी ही अश्रुधारा फूट पड़ती थी जितनी कि रोशनीवाली आंख से। आक्रोश का होना एक बात है और उसे सृजनशीलता में बदल कर मानवीय संवेदनाओं के व्यापक परिप्रेक्ष्य में एक सकारात्मक दिशा देना बिल्कुल दूसरी बात।’’2
ज़िन्दगी न मिलेगी दुबारा मुर्दहिया का दलित जीवन एक योद्धा का जीवन है जो प्रत्येक क्षण अपनी जिंदगी जीने के लिए युद्धरत है। लेखक ने अपने इस भीषण युद्ध को पूरे दलित समाज के युद्ध से जोड़ कर इसे समग्र रूप देने की चेष्टा की है। यह युद्ध किसी खास कौम या जाति के खिलाफ नहीं बल्कि उस पूरे जातिवादी सिस्टम के खिलाफ है जो दलितों को इस जहालतपूर्ण जिंदगी जीने के लिए विवश किए हुए है। आत्मकथा लेखक तुलसीराम जो आज की तारीख में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय अध्ययन के प्रसिद्ध विद्वान हैं, को मात्र दस वर्ष की उम्र में मरे हुए पशुओं के खाल उतारने का काम करना पड़ता था। पांचवीं कक्षा के छात्र तुलसीराम को पढ़ने और जीने के लिए इस तरह के काम में दक्षता प्राप्त करना अनिवार्य था। इस तरह खाल उतारे जाने की एक रोमांचकारी घटना का अत्यंत सजीव चित्रण लेखक ने मुर्दहिया में किया है। वर्णन की कलात्मकता यहाँ अद्भुत है। जिन्हें दलित साहित्य में रस और काव्य सौंदर्य का अभाव दिखता है उन्हें यह अंश जरूर पढ़ना चाहिए और संपूर्ण हिंदी साहित्य में इस तरह के वीभत्स रस की खोज करनी चाहिए। तुलसीराम लिखते हैं, “ हमारे घर में मुन्नर चाचा चमड़ा छुड़ाने के काम में माहिर थे। चमड़ा छुड़ाते समय उन्हें एक टहलुवा (उनके अनुसार काम करने वाला) की जरूरत होती थी। जब हमारी घरवाली कलोरी गाय मरी तो छह आदमी काड़ी पर ढ़ोते हुए मुर्दहिया पर ले गए । मुन्नर चाचा कहने लगे उस छुट्टी में मैं चमड़ा छुड़ाना धीरे-धीरे सीख जाउं ताकि भविष्य में इस चर्मकला में पारंगत हो सकूं। हम दोनों ने जमीन पर पड़ी मुर्दा गाय को पैरों की तरफ से ठेलकर पेट को उतान किया। मुन्नर चाचा ने मुझे आदेश दिया कि मैं गाय के पिछले पैरों को पकड़कर ऊपर ताके रहूं। मैंने वैसा ही किया। अब गाय का पेट सीधे उपर था। मुन्नर चाचा ने एक बड़ी सी छुरी को एक छोटे से पत्थर से रगड़कर तेज किया।---देखते ही देखते चाचा ने गाय के गर्दन के निचले हिस्से में छुरी भोंक दी तथा तेजी से पूरे पेट को चीरते हुए पिछली टांगों के बीच से आर-पार कर दी। उनके आदेशानुसार मैं दोनों टांगों को उपर उठाए पकड़े रहा। उन्होंने चीरे हुए पेट के दोनों तरफ के चमड़े को एक-एक बित्ता चैड़ाई के साथ छुड़ा दिया। फिर उन्होंने कहा कि मैं उनके साथ एक तरफ का चमड़ा पकड़कर उल्टी दिशा में उचाड़ने में मदद करूं। इस विधि से हम दोनों ने पेट के दोनों तरफ से चमड़े को उचाड़कर पीठ की तरफ ला दिया। अब गाय का लगभग पूरा शरीर चुकचुकाते खून से लथपथ रक्त के टीले जैसा दिखाई देने लगा। जैसा स्वाभाविक था अचानक सैकड़ों गिद्ध आसमान में मंडराने लगे। मैं बेतहाशा डर गया था, क्योंकि गिद्ध के चोंच मुन्नर चाचा के छुरी से कहीं ज्यादा तेज थे। चाचा के कहने पर मैं मुर्दहिया की झाड़ियों से एक लंबी डाल तोड़कर गाय के उपर आसमान में हो-हा-हो-हा करते हुए घुमाता रहा|” यह तो हुई मरे हुए पशु की लाश की बात लेकिन इससे भी कम उम्र यानी मात्र आठ वर्ष की उम्र में तुलसीराम को पंद्रह दिन सड़ी मानव लाश को गडढे से निकालाना पड़ा था। हुआ यों कि तुलसीराम के पिता जिस सुदेस्सर पांडेय का हल जोतते थे, उनकी माँ खरमास (अपशकुन) में मर गई। पंडितों ने कहा कि इनका दाहसंस्कार पंद्रह दिन बाद होगा। सबसे पहले तुलसीराम को अपने पिता के साथ उस मृत महिला की लाश को गाड़ना पड़ा, पंद्रह दिनों तक उसकी ओगरवाही (देखभाल) करनी पड़ी और फिर पंद्रह दिनों के बाद उस सड़ी गली लाश को गडढे से निकालकर चिता पर सजाना पड़ा। इस घोर वीभत्स घटना का वर्णन पढ़कर शुद्धता और पवित्रता की धारणा रखनेवाले तथाकथित सुस्कांरित पाठकों को धक्का लग सकता है, “सुदेस्सर पोडेय दो चार फावड़ा मिट्टी हटाकर दूर खड़े हो गए। सड़ांध आने के डर से उनके पट्टीदार भी दूर भाग गए। पिताजी कब्र की मिट्टी फावड़े से हटाते रहे। किनारे लायी गई भुरभुरी मिट्टी फिर से कब्र में ना गिर पड़े, इसके लिए पिता जी मुझे मिट्टी पीछे ठेलने के लिए कहते रहे। पिताजीने जैसे-तैसे सड़ी लाश को पैर तरफ से उठाकर मेरे हाथों में पकड़ा दिया और स्वंय सिर की तरफ से पकड़ लिया। अपार दुर्गंध और घृणा से मजबूर हम दोनों ने उस लाश को बाहर निकालकर पहले से ही पास में सजाई चिता पर रख दिया। सुदेस्सर पांडेय बड़ी मुश्किल से मुह-नाक बांध लाश के पास आए और आग जलाकर चिता को जला दिया। और भागकर दूर चले गए। वहाँ सिर्फ मैं और पिता जी खड़े रहे और लाश को जलाते रहे|” यह थी तुलसीराम जैसे दलितों की जिंदगी। आज भारतीय गणतंत्र के 63 वर्षों के बाद भी इन दलितों के जीवन में न आर्थिक बेहतरी आयी है और न शोषण ही खत्म हुआ है। कुछ दिन पूर्व हरियाणा हिसार की एक खबर यह थी कि मात्र मटका छू लेने पर एक दलित युवक का हाथ दरांती से काट दिया गया। विपन्नता की जहाँ तक बात है आज भी बिहार में कई दलित समुदाय बिल से चूहे निकालकर खाते हैं। जो अर्थशास्त्र के आंकड़े में विश्वास करते हैं और जीडीपी बढ़ने को समग्र आर्थिक विकास मान लेते हैं, ऐसे अनुसंधानकर्ताओं को बिल से चूहे निकालकर खाने वाले दलित समुदायों पर भी शोध करना चाहिए और आर्थिक विकास के आंकड़े से इसका मिलान करना चाहिए। तुलसीराम के दलित समाज में बरसात के दिनों में काम न मिलने के कारण जब भुखमरी हो जाती थी तो ऐसे चूहे खोजने का अभियान शुरु हो जाते। वैसे बारिश जो भुखमरी का कारण होता उनके अभियान को आसान भी बना देता था, “शुरू-शुरु में जब तेज बारिश से कट चुकी फसलों वाले खेतों में पानी भर जाता, तो उनके अंदर बिल बनाकर रहने वाले हजारों चूहे डूबते हुए पानी की सतह पर ऊपर आ जाते थे। गांव के बच्चे तरकुल या खजूर के पत्तों से बनी झाड़ू से चूहों को मार-मार कर बाल्टी भर जाने पर उन्हें घर लाता। इन चूहों को पहले घर के लोग रहट्ठा यानी अरहर का डंठल जलाकर उस पर खूब सेकते थे। इस तरह चूहों के बाल बिल्कुल जल जाते थे। इसके बाद उन्हें साफ करके बोटी- बोटी काट दिया जाता। फिर मसाला डालकर उसका मांस पकाकर खाया जाता था। उन बरसाती कड़की के दिनों में इस प्रकार के चूहे जब तक उपलब्ध रहते सभी दलित दाल-सब्जी के बदले उन्हीं से गुजारा करते थे|” जिन्हें दोनों शाम भोजन नसीब होता है उनमें से अधिकांश को तुलसीराम की यह सचाई अतिशयोक्तिपूर्ण लग सकती है किंतु इन पंक्तियों के लेखक ने अपने बचपन में सत्तर के दशक में पशुओं की लीद से अनाज के दाने को निकालते और जमा करते देखा है। बिहार में पहले एक अत्यंत लोकप्रिय फसल होती था जिसे ‘मरुआ’ कहा जाता है। आजकल यह बहुत कम होता है। इस अनाज की विशेषता यह थी कि वह कम लागत में बहुत उपजता था। भारी होने की वजह से श्रमिकों को उनके काम के बदले यही अनाज दिया जाता था। इसकी सिर्फ मोटी सी रोटी बनती। दलितों के पशु मालिकों के खेत में मरुआ चर लिया करते। इस अनाज की एक और विशेषता यह थी कि यह खूब सुपाच्य नहीं होता। इसके दाने बहुत छोटे-छोटे किंतु गोल और काले होते थे। पशुओं की लीद से ये दाने साबूत निकल जाते थे। दलित औरतें लीद को भरी बाल्टी में डाल देते और कपड़े से अनाज के दाने को छान लेते। उस दाने को धो-सुखाकर फिर खाने के काम में लाते। बरसात के दिनों में उनकी हालत सबसे अधिक खराब हो जाया करती थी। क्योंकि वे साल भर किसी परिवार के बाल काटने के एवज में उन्हें सिर्फ एक बार एक केड़ा अनाज मिलता, लेकिन अकाल या बाढ़ के कारण उपज कम होने की स्थिति में वह भी नहीं मिलता|” यह विलक्षण संयोग की बात है कि हिंदी साहित्य में भूख और दारिद्रय पर लिखने वाले पहले रचनाकार का नाम तुलसीदास था। कवितावली में तुलसीदास ने चार चने के महत्व को जिस तरह समझा और अभिव्यक्त किया है, वह सूंपर्ण भक्ति साहित्य के लिए अनोखी वस्तु है। दरिद्रतता को दसानन कहनेवाले तुलसीदास के बाद संपूर्ण हिंदी दलित साहित्य में तुलसीराम ने मुर्दहिया में जिस तरह भूख और अभाव को चित्रित किया है वह भूमंडलीकरण और आर्थिक विकास के तमाम भारतीय दावे को दो कौड़ी का सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं। ये दलित चूहे के अतिरिक्त “ताल से सेरुकी नामक पौधे की जड़ें उखाड़कर जो एक बड़ी प्याज के चुकंदर जैसी लगती, पानी में उबालकर खाते|’ इतना ही नहीं, “जब ये प्राकृतिक खाद्य सामग्री समाप्त हो जाती तो असाढ़ का महीना आते-आते घरों के पास की जमीनों पर फेंकी गई आम की गुठलियों से पौधे निकालने लगते थे। दो चार पत्तियों के पनप जाने के बाद बैंगनी रंग के ये पौधे बहुत मनमोहक लगते। इन्हें अमोला कहा जाता था। बच्चे जमीन से गुठली समेत इन अमोलों को उखाड़ लाते तथा गुठली के उपर का फटा हुआ कड़ा छिलका हटाकर अंदर से कच्ची गुठलियों को आग में भूनकर खा जाते थे|” आज भी कई दलित समुदायों को साल भर काम करने के एवज में फसल के मौसम में सिर्फ एक केड़ा अनाज मिलता है। तुलसीराम ने भी अपनी आत्मकथा में इस सचाई से पाठक को रू-ब-रू कराया है। इनकी आत्मकथा सिर्फ अपने दलितों के ही दुखों से नहीं भरा है बल्कि इसमें अन्य निम्न जातियों, दलितों के आसन्न संकट को अत्यंत संवेदनशीलता के साथ महसूस किया गया है। इस तरह तुलसीराम अपनी संवेदनाओं का विस्तार करते हैं- “सबसे बुरी हालत नाइयों, धोबियों, मुसहरों तथा नटों की हो जाया करती|” सरकार जैसे तैसे ठेल-ठालकर देश को विकसित राष्ट्र भले सिद्ध कर दे लेकिन इस जमीनी सचाई को समझ पाना और दूर करना निकट भविष्य में संभव नहीं दिखता। देश के प्रधानमंत्री की रिपोर्ट जब बताती है कि देश के 42 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं तो मसले की गंभीरता को समझा जा सकता है। उन्होंने इसे राष्ट्रीय शर्म की संज्ञा दी है। सहायता एजेंसी “सेव द चिल्ड्रेन’ की रिपोर्ट तो इससे भी अधिक भयानक है। उनकी रिपार्ट के अनुसार भारत में लगभग आधे बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। इनमें से अधिकतम बच्चे दलित वर्ग के हैं क्योंकि सर्वाधिक विपन्नता आज भी दलित समुदाय में ही है। इस पृष्ठभूमि में तुलसीराम की आत्मकथा मुर्दहिया की समकालीनता और उसका महत्व काफी बढ़ जाता है। पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नबाव पूरी आत्मकथा पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि तुलसीराम को बचपन में ही इलहाम हो गया था कि शिक्षा ही एकमात्र साधन है जो उसे मुर्दहिया की जिंदगी से मुक्ति दिला सकती है। यह आत्मकथा दलित शिक्षा की वास्तवविकता और दलितों के लिए इसकी असंभाव्यता को बहुत सहजता से अभिव्यक्त करती है। बड़ी से बड़ी बात को अत्यंत सहजता से कह देने की रचनात्मक कला में तुलसीराम का जोड़ नहीं है। आत्मकथा में दलित शिक्षा की दशा का जो चित्र खींचा गया है, उससे लगता है कि भारत के शिक्षा के इतिहास को दुबारा लिखा जाना चाहिए। सिर्फ फूलो दंपति और अंबेदकर के योगदान का रेखांकित कर इसे पूरा नहीं किया जा सकता। इसे मुक्कमल बनाने के लिए देश के कोने-कोने से कई तुलसीरामों के अनुभवों को समेटना होगा। शिक्षा प्राप्त करने के लिए लेखक तुलसीराम का संघर्ष अप्रतिम है। एक-एक कक्षा पास करने के लिए तुलसीराम को एक-एक महाभारत जीतना पड़ा। एक तो शिक्षा के प्रति उसके परिवार में नासमझी और भ्रम, पैसे की घोर किल्लत और सबसे बढ़कर स्कूल में उच्च जाति की ओर से घोर उपेक्षा। तुलसीराम को इस उपेक्षा का दंश पहली कक्षा में ही डस गया था। छुआछूत तो खैर उस दिनों आम बात थी और सभी दलित बच्चों को एक साथ बैठना होता था किंतु सरकारी स्कूल के पंजी में भी अलग से उनके नाम एक साथ होते थे। तुलसीराम याद करते हुए बताते हैं, “हमारी पहली कक्षा में कुल 43 बच्चे थे जिनमें तीन लड़कियां थीं। रोल नम्बर के हिसाब से कक्षा में टाट पर बैठाया जाता था। पहली पंक्ति रोल नम्बर एक से शुरु होकर तेरह पर समाप्त हो गई थी। शेष दो पंक्तियों में इसी क्रम में पंद्रह- पंद्रह बच्चे बैठते थे। मेरा नाम और स्थान पहली कतार में रौल नं0 पांच के साथ होता था। इन तेरह बच्चों में मेरे अलावा चिखुरी, रमझू, यदुनाथ। शीघ्र ही इस तेरह का रहस्य उजागर हो गया। हम सभी दलित थे। मुंशी जी की उपस्थिति में हमें कोई अन्य बच्चा नहीं छूता था। (मुर्दहिया, पृ 23) अर्थात् इस छुआछूत के दरोगा शिक्षक मुंशीजी ही थे। जिस समुदाय को खाने के लिए आम की सूखी गुठलियां और पोधे की जड़ नसीब होती हो, उस बच्चे को साल में दो रूपये जुटाना कितनी बड़ी मुश्किल का काम रहा होगा, कल्पना की जा सकती है। उन दिनों शिक्षक पास करने के लिए दो रूपये प्रति विद्यार्थी वसूल करते जिसे ‘पसकराई’ कहा जाता। अर्थात पास कराने का घूस। एक बार कक्षा तीन में इस दो रूपये के अभाव में ‘पसकराई’ न दे पाने के कारण गुरुजी ने उन्हें फेल कर दिया। गनीमत यह हुई कि कक्षा तीन तक पहुंचते-पहुंचते वे स्कूल के सबसे तेज विद्यार्थी के रूप में पहचाने जाने लगे थे। हेडमास्टर साहेब के हस्तक्षेप से वे किसी तरह पास किए गए। तुलसीराम की कठिनाई यह थी कि उनके घर के लोग यह मानने के लिए तैयार नहीं थे कि पसकराई अनिवार्य घूस है। उन्हें लगता था कि तुलसीराम वास्तव में फेल कर जाता है और इसलिए उसे घूस देना पड़ता है। तुलसीराम के लिए पढ़ाई जारी रखना असंभव था। दिन में या तो स्कूल में रहना या फिर पिताजी के साथ खेत में हरवाही का काम। रात को पढ़ने के लिए उनका मन बहुत ललचाता किंतु ढ़िबरी में तेल न होने के कारण वे पढ़ नहीं पाते। उनके घर में अंधेरा होने से पहले खाना बन जाता कि ढिबरी यानी दिया न जलाना पड़े। स्कूल में खाना से लेकर पानी तक के लिए इन दलित बच्चों को भारी संघर्ष करना पड़ता। खाने में जिस उच्छिष्ट दाने को वे स्कूल ले जाते, उसे अन्य बच्चों से छिपा कर खाते। मराठी दलित रचनाकार शरण कुमार लिंबाले ने भी अपनी आत्मकथा अक्करमाशी में इस पीड़ा को अत्यंत मार्मिक ढंग से व्यक्त किया है। उन्होंने अपनी आत्मकथा में स्कूल द्वारा आयोजित एक वनभोज का अत्यंत यथार्थ चित्र खींचा है। किस तरह सवर्ण बच्चे अलग और दलित बच्चे अलग- अलग समूह बनाकर खाने के लिए बैठते हैं। दलित बच्चों के पास खाने के नाम पर कुछ भुने हुए दाने होते हैं और सवर्ण बच्चों के छोड़े हुए जूठन पर ये दलित बच्चे टूट पड़ते हैं। सबसे मार्मिक क्षण तो तब आता है जब दूसरे दिन शिक्षक वनभोज पर निबंध लिखने के लिए कहते हैं। लिंबाले के शब्दों में, “दूसरे दिन स्कूल पहुंचा तो शिक्षक कहने लगे, वनभोज पर निबंध लिखो। अधिकांश लड़के तेजी से लिखने लगे। क्या लिखूं, समझ में नहीं आ रहा था। वन भोजन का वह दृश्य आंखों के सामने आया। वे कतारें, अलग- बलग बैठने की योजना, हमारा स्पर्श न हो इस भय से परोसने वाली वे लड़कियां, कागज़ में बांधकर दी गई वह जूठन, माँ और शिक्षक द्वारा पूछे गए प्रश्न। कहाँ से शुरु करूं यह निबंध। स्कूल में खाने (टिफिन) की बात तो दूर पीने के लिए कुंए का पानी भी काफी जद्दोजहद से मिलता था। कई बार इस जद्दोजहद से तंग आकर इन दलित बच्चों को जलकुंभी का गंदा पानी पीना पड़ता। तुलसीराम की जवानी ही ‘मिशन-ए-पानी’ सुनें- ‘‘गर्मी के दिनों में प्यास लग जाना एक बड़ी समस्या थी। स्कूल के पास एक एक कुंआ था, जिसके चबूतरे तक को हम दलित बच्चे छू नहीं सकते थे। पानी पिलाने की विनती मुंशीजी से की जाती। वे हमारी कक्षा में पढ़नेवाले परसूपुर गांव के मिसिर बाबा को पानी पिलाने को कहते।...वे पानी पिलाते समय खूब खिलवाड़ करते थे। हम अंजुरी मुंह से लगाए झुके रहते, और वे बहुत उपर से चबूतरे पर खड़े-खड़े पानी गिराते। वे पानी बहुत कम पिलाते थे किंतु सर पर गिराते ज्यादा थे जिससे हम बुरी तरह भींग जाते थे। ...पानी पीना वास्तव में एक विकट समस्या थी। कभी-कभी तो हम चुपके से पोखरे पर चले जाते जिसका पानी गहन जलकुंभियों से ढका रहता था। हम जलकुंभियों को हटाकर उसका पानी पीते।’’ (मुर्दहिया, पृ 54) ‘यूज एंड थ्रो बॉल पेन’ का उपयोग करने वाली आज की युवा पीढी कल्पना भी नहीं कर सकती कि इस बॉल पेन तक पहुंचने में कितनी लंबी यात्रा तय की गई है। विशेषकर इन दलित बच्चों को स्लेट और भट्ठा (चौकनुमा पुराना पेंसिल) नसीब नहीं था। स्वंय निर्मित स्लेट और पेंसिल बनाना एक भारी मुहिम था, इन दलित बच्चों के लिए। शिक्षा के इतिहास में इस मुहिम का रेखांकन आवश्यक है- ‘‘उस समय प्राइमरी स्कूल में कागज पर लिखने का चलन नहीं के बराबर था सिर्फ कक्षा पांच में कागज पर कुछ-कुछ पढ़ाई-लिखाई शुरु की जाती थी। बाकी सारी लिखाई-पढ़ाई हर छात्र लकड़ी की पट्टी पर करता था। करीब पंद्रह इंच लंबी और नौ इंच चैड़ी पट्टी को गांव के लोहार ही बसूले से गढ़कर रंदा से रगड़कर चिकना बना देते थे। किंतु उस पर लिखने लायक बनाने के लिए छात्र रोज पोचारा से रंगकर पटरी को धूप में सुखाते थे, जिसके बाद चुल्ला से रगड़कर खूब चमकाया जाता। इसके बाद इस पर दुधिया के घोल से नरकट की बनी कलम के द्वारा लिखा जाता था। काला पोचारा बनाने की विधि बड़ी विचित्र होती थी। हर छात्र द्वारा अपने घर मिट्टी के तेल से जलने वाली ढिबरी की लौ के उपर एक परई अर्थात् मिट्टी का बना छिछला कटोरा ओठगा दिया जाता था, जिस पर करीब एक घंटा बाद ढेर सारा गुल जम जाता। इस गुल को मिट्टी से ही बनी एक घरिया में घोल दिया जाता, जिसे पोचारा करते थे। एक बड़ी शीशी को चुल्ला कहते थे, जिससे पोचारा लगाने के बाद पटरी को चूला जाता था। गिनती सीखने के लिए हर छात्र को अपने घर से पटसन के सूखे सफेद डंठल को एक एक फीट लंबा तोड़कर उसे लाल, पीले, हरे और नीले रंग में अलग-अलग रंगकर स्कूल ले जाना पड़ता था। लेखन सामग्री के रूप में पहली कक्षा में मेरे पास यही समान यानी एक लकड़ी की पटरी, एक घरिया दुधिए का घोल, एक नरकट की कलम, एक भरुकी पोचारा और एक चुल्ला रंगबिरंगे लग्गे थे, किंतु कोई किताब नहीं थी। इन्हीं समानों के साथ शुरु हुई मेरी चिट्ठी पढ़ने लायक क्षमता प्राप्त करने वाली युगांतकारी शिक्षा।’’ (उपर्युक्त,पृ 24) मुर्दहिया की आलोचना कुछ दलित विद्वान इसलिए करते हैं कि इसमें सवर्णों के शोषण और दमन की मुखर अभिव्यक्ति नहीं मिलती। लेकिन वास्वविकता यह नहीं है। यह मुखर अभिव्यक्ति एसे धारदार व्यंग्य के माध्यम से तुलसीराम ने की है कि उसे व्यंगय की मार झेलने वाले ही समझ सकते हैं। इसलिए मुझे कई बार लगता है कि मुर्दहिया हिंदी दलित रचना की पहली विलक्षण व्यंग्य रचना है। एक बार तुलसीराम के स्कूल में हड़कंप मच गया। निरीक्षण का डर तो था ही लेकिन हड़कंप इसलिए मचा कि डिप्टी साहब जाति से ‘चमार’ थे। इन मास्टरों को डिप्टी साहब की आवभगत तो करनी ही थी, क्योंकि उनकी एक शिकायत पर उनकी नौकरी जा सकती थी। लेकिन सबसे बड़ी समस्या उनकी यह थी कि, ‘‘ खाना तो रोज की तरह अध्यापकों के चैके में बन जाएगा, किंतु अपनी थाली में कैसे खिलायेंगे। हेडमास्टर साहब ने मुझसे कहा कि मैं अपने घर से एक लोटा तथा थाली लाऊं, किंतु यह बात किसी को भी न बताऊँ। मैंने वैसा ही किया और उसी में डिप्टी साहब को खाना दिया गया। चमार डिप्टी साहब से सबसे ज्यादा डर इस बात के लिए था कि यदि वे स्कूल से नाराज हो गए तो, जिला केंद्र पर शिकायत कर देंगे और सारे अध्यापकों की तनख्वाह रोक दी जायेगी।’’ (उपर्युक्त,पृ 60) इन सवर्ण शिक्षकों के मांस और मज्जा तक में जाति के प्रति इतनी घृणा थी कि हर साल दशहरा के अवसर पर मंदिर के पास लगने वाले मेले में खेली जाने वाली रामलीला में इन तमाम दलित लड़कों को रावण की सेना में विभिन्न राक्षसों की भूमिका दी जाती थी। तुलसीराम ही नहीं उन दिनों लगभग सभी दलित परिवारों की ऐसी विषम परिस्थिति थी कि दलित बच्चों के लिए आगे पढ़ पाना अत्यंत कठिन था। मुर्दहिया दलित बच्चों के पढ़ने की दुर्लभ आकांक्षा की अद्भुत रचनात्मक अभिव्यक्ति है। तुलसीराम तो जैसे तैसे प्रथम श्रेणी से पांचवीं पास कर गए किंतु उन्हें लगता नहीं था कि उनका नामांकन छठी कक्षा में हो पाएगा। क्योंकि छठी कक्षा के लिए उन्हें दूसरे स्कूल में नामांकन लेना था और उनकी पढ़ाई का लक्ष्य जो सिर्फ चिट्ठी पढ़ने तक के लिए था पूरा हो चुका था। पूरा घर उन्हें पढ़ाई छुड़वाने पर आमदा था, और हरवाही के लिए प्रेरित कर रहा था। पढ़ाई की इस अनिश्चितता में बालक तुलसीराम देवी- देवताओं के प्रति काफी आसक्त हो जाता है। अंततः दादी ने उनकी कठिनाइयों में उनके लिए एक नया रास्ता खोल दिया। इस तथ्य को स्वीकारते हुए वे लिखत हैं कि, ‘‘1 जुलाई 1959 के आगमन ने मेरी चिंता को धधका दिया। यह एक ऐसी तारीख थी जिससे मेरा भविष्य तय होने वाला था। घर में कोहराम मचा हुआ था। बड़ी मुश्किल से दादी की ज़िद पर मुझे चार आना मिला, जो छठी कक्षा में नाम लिखाने की फीस थी। यह चवन्नी इस बात की गांरटी थी कि अब छठी से लेकर दसवीं कक्षा तक की पढ़ाई का मार्ग खुल गया। इस दिन मैं दौड़ते हुए स्कूल गया था। छठी कक्षा में मेरा दाखिला युगांतकारी सिद्ध हुआ, क्योंकि यहीं से शुरु हुई थी मेरी अंग्रेजी भाषा की शिक्षा, जिसके ज्ञान ने मुझे आगे चलकर गांव के किसी अन्य ग्रह का मानव बना दिया।’’ (उपर्युक्त,पृ 101)
आज भी दसवीं की पढ़ाई और परीक्षा किसी भी सचेत विद्यार्थी के लिए अत्यंत चुनौतीपूर्ण होती है। सन् 1964 में जब बहुत कम बच्चे दसवीं पास कर पाते होंगे तुलसीराम के लिए दसवीं की पढ़ाई क्या मायने रखती होगी कल्पना की जा सकती है। इन्होंने अत्यंत विस्तार से जासूसी कथा की तरह इस जीवट संघर्ष को अपनी आत्मकथा में प्रस्तुत किया है। सबसे अधिक कठिनाई तब आई जब उन्हें दसवीं कक्षा का फॉर्म भरने के लिए 30रू की आवश्यकता हुई। यह तीस रूपया उनके लिए अत्यंत मोटी रकम थी। उन्होंने एक साथ तीस रूपये सिर्फ दादी की कुल जमा पूंजी के रूप में ही देखा था जिसे दादी समय-समय पर उससे गिनवाती। उस खजाने को वह एक मटके में डालकर मिट्टी में गारकर रखती थी। तुलसीराम को लग गया कि अब वह दसवीं में वगैर परीक्षा दिए फेल कर गया। लेकिन तुलसीराम को तो यह जंग जीतनी थी। तुलसीराम की तीक्ष्ण मेधा और पारिवारिक परिस्थिति देखकर अध्यापक सुग्रीव सिंह तुलसीराम की लड़ाई में सहायक के रूप में खड़े हुए- ‘‘मेरी दुर्दशा देखकर वही हिन्दी वाले अध्यापक सुग्रीव सिंह ने मेरे द्वारा बिना किसी आग्रह के स्वयं 30 रू0 फीस के रूप में जमा कर दिया। मुझे उन्होंने आश्वासन दिया कि और भी जरूरत पड़ने पर सहायता करते रहेंगे।’’ (उपर्युक्त,पृ 154) किस तरह उन्हें चंडेसर डिग्री कॉलेज में दसवीं की परीक्षा देनी पड़ी उसका लोमहर्षक वर्णन आत्मकथा की विशेषता है। दरअसल उस कॉलेज में क्षत्रियों का बोलबाला था। उन दिनों चंडेसर परीक्षा केंद्र पर दलित परीक्षार्थियों में से अनेक जातीय हिंसा के शिकार हो जाते। चंडेसर में एक महीना रहना तुलसीराम के लिए फिर एक बड़ी कठिनाई थी। किंतु उनके परम मित्र चिंतामणि सिंह ने उनकी यह कठिनाई दूर कर दी। उन्होंने लिखा है कि ‘‘परीक्षा शुरु होने के एक सप्ताह पूर्व चिंतामणि सिंह मुझे अपनी साइकिल पर बैठाकर चंडेसर ले गए, ताकि कहीं रुकने की व्यवस्था की जा सके। चिंतामणि सिंह मुझे अपने साथ रखना चाहते थे, किंतु मकान मालिक ने पहले ही साफ कह दिया था कि किसी चमार सियार को नहीं रहने दिया जायेगा। (उपर्युक्त,पृ 155) अंततः उन्हें किसी दलित परिवार में शरण मिली और डंडे की नोक पर दसवीं की परीक्षा दी। 18 जून 1964 को दसवीं का परिणाम घोषित हुआ और वे प्रथम श्रेणी से दसवीं पास हुए। इनसे पहले उस विद्यालय में कोई प्रथम श्रेणी से पास नहीं हुआ था। तुलसीराम का असली संघर्ष दसवीं के बाद शुरु होता है। अब उसे बुद्ध की तरह घर छोड़ना था। दसवीं के बाद की पढ़ाई आजमगढ़ में होती थी। गांव के ब्राह्मणों ने हल्ला कर दिया कि अब तुलसी को दो-तीन हजार रूपये महीने की नौकरी लग जायेगी। घर वाले इस रूपये को गंवाना नहीं चाहते थे। आजमगढ़ जाकर पढ़ने के रास्ते अत्यंत कंटकाकीर्ण थे। जो चिंतामणि सिंह ने उन्हें आश्वासन दिया था कि दसवीं पास करने के बाद आजमगढ़ में साथ- साथ पढ़ेंगे, वे दुर्भाग्य से फेल हो गए। अब तुलसीराम के पास कोई चारा नहीं था। लेकिन वे इस सत्य को जान गए थे कि जिंदगी दुबारा मिलने से रही। इसलिए अगर आगे की पढ़ाई करनी है तो इसी जिंदगी में कर लेनी है। उन्होंने अपनी इस बैचेनी और अंर्तद्वंद्व को अत्यंत सलीके से इस आत्मकथा में व्यक्त किया है। कवित्त विवेक एक नहि मोरे मुर्दहिया ऐसे आलोचकों के लिए एक जबर्दस्त चुनौती है जिन्हें दलित आत्मकथाओं में साहित्यिकता कम नजर आती है। हिंदी की किसी भी आत्मकथा से कम साहित्यिकता मुर्दहिया में नहीं है। कहीं-कहीं मुर्दहिया का शिल्प सौंदर्य तो चमत्कृत करने वाला है।शब्द, भाषा, शिल्प यहाँ तक कि रस और अलंकार की दृष्टि से भी मुर्दहिया संपूर्ण हिंदी साहित्य की आत्मकथाओं में विलक्षण कृति है। मुर्दहिया में यह विलक्षणता आयी है कि लेखक की सुपाठ्यता से। भारतीय और विश्व साहित्य के न जाने कितने संदर्भों का साहित्यिक उपयोग लेखक मुर्दहिया में विशिष्ट शैली में करते हैं। बिल्कुल नये और सर्वथा अछूते उपमानों से मुर्दहिया अंटा पड़ा है। ऐसे उपमानों का प्रयोग कोई अत्यंत सुपठित साहित्य विवेक संपन्न रचनाकार ही कर सकता है। आज तक साहित्य में फूल, वो शिरीश के हों या पलाश के, गुलाब के हों या बेला के सुंदरता, भक्ति, प्रेम आदि के लिए व्यवहृत होते रहे हैं। भयानक डर के लिए कदाचित सुंदर फूलों का उपयोग किसी ने नहीं किया होगा। मुर्दहिया में पलाश का फूल भयानक रस का सृजन करता है। तुलसीराम का दलित समुदाय मुर्दहिया यानी जहां मानव लाशों को फेका जाता है, के पास रहता है। ऐसी मान्यता है कि भूतों का निवास भी मुर्दहिया के आसपास ही अधिक होता है। उस मुर्दहिया में कई पलाश के पेड़ थे जो लाल लाल फूलों से आच्छादित थे। तुलसीराम का साहित्य विवेक इन फूलों के बारे में कहता है, ‘‘ गर्मी के दिनों में वहां हजारों बड़े-बड़े पलाश के पेड़ एकदम सुर्ख लाला टंसुओं से लद जाते थे। दूर से देखने पर लगता था कि जलती हुई लाल आग की रक्तीली लपटें हिलोरें ले रही हैं। उन्हें देखकर एसी अनुभूति होती थी कि मानो मुर्दहिया की बुझी हुई चिताएं पलाश के पेड़ों पर चढ़कर फिर से प्रज्वलित हो गई हैं।... लाल टेसुओं से लदे ये पलाश के पेड़ जहां एक तरफ अत्यंत मनमोहक लगते थे, वहीं उनके मुर्दहिया पर होने के कारण इन पेड़ों की लालिमा बेहद डरावनी छवि प्रस्तुत करती थी, विशेष रूप से चांदनी रात में वे खून से लथपथ किसी घायल व्यक्ति जैसे प्रतीत होते थे। (मुर्दहिया, पृ0 41-42) मुर्दहिया में जो लाशें जलायी जातीं तो एक विशेष समुदाय में ऐसी प्रथा थी कि कब्र पर एक बड़े से बांस में लाल झंडियां लगा दी जातीं। एक साथ कई झंडियां हवा में लहरातीं । साहित्यकार तुलसीराम लिखते हैं, ‘‘एक सिरे से देखने पर हवा के झोंकों से फड़फड़ाती ये झंडियां ऐसे लगती थीं मानो भूतों की लाल-लाल फसलें तैयार होकर लहलहा रही हों।’’ मुर्दहिया में तुलसीराम का बचपन घोर अंधविश्वास और भयानक भुतही वातावरण में बीता। दिन में खेती अर्थात हरवाही यानी पिता के साथ हल जोतना या फिर मरे हुए जानवर की खाल निकालना और रात में भूतों से डरते-डरते सो जाना। स्वाभाविक है कि मुर्दहिया के अधिकांश उपमान इन्हीं भूतों और कृषि से लिए गए हैं। दीवारों पर प्लास्तर के झरने से बनी आकृतियों की चर्चा मुक्तिबोध ने ‘अंधेरे में’ कविता में जबर्दस्त ढ़ंग से किया है। अंतरराष्ट्रीय अध्ययन के विशेषज्ञ तुलसीराम ने ‘अंधेरे में ’ कविता पढ़ी हो या न पढ़ी हो किंतु घोर रौदी यानी अकाल में खेतों में पड़ी दरारों का रेखांकन जिस तरह से तुलसीराम ने किया है यह वगैर उन्नत साहित्य विवेक के संभव ही नही। प्रारंभिक कक्षाओं में गणित विषय से उनका गहरा लगाव था। यह अकारण नहीं कि इन दरारों की व्याख्या में गणित और साहित्य दानों का उपयोग तुलसीराम करते हैं, ‘‘ पानी की कमी के कारण धान के खेत, जिन्हें ‘कियारा’ कहा जाता, की जमीन फटकर चारों तरफ विभिन्न प्रकार की दरारों में बदल जाती थी। कियारों की इन फटी दरारों से अनेक जगहों पर तरह-तरह की प्राकृतिक कलाकृतियां बन जाती थीं। सारे खेत रेखागणित के नमूने लगते थे। कई दरारों में तो चिड़ियों की चोंच, उंट की गर्दन समेत मुंह तथा हाथी के सूंड नजर आते थे। उस अकाल का यह एक अनोखा सौंदर्य था जिसमें मानव की भूखमरी और असीम पीड़ा का साम्राज्य था|” मुर्गे की बांग पर तो आज भी गांव में लोग जग जाते हैं किंतु मुर्गे की बांग इस दलित श्रमकिों के लिए अत्यंत कष्टकारी होता। मुर्गे की बांग के साथ ही गांव के जमींदार इन दलित श्रमिकों को अत्यंत अनादरपूर्वक जोर-जोर से चिल्लाकर जगाने लगते हैं और कई बार तो गालियों की बौछार भी कर देते हैं। तुलसीराम लिखते हैं कि, ‘‘अत्यधिक कामके बाद थककर अधपेट खाकर रात में सोये हुए दलित मुर्गे की आवाज के बाद बिना नींद पूरी किए हुए मजबूरी में जागने पर प्रतिदिन दुखित होकर इन मुर्गों को गालियां देते थे।’’ तुलसीराम विधा का अतिक्रमण करते हुए मुर्गे की बांग को राजस्थान की एक लोक कला से जोड़कर इस वर्णन का महत्व काफी बढ़ा देते हैं, ‘‘इस संदर्भ में राजस्थान के ग्रमीण दीवारों पर टंगी हुई एक लोक कला दृश्यपटल पर उभारकर सामने आती है जिसके अनुसार मुर्गे की बांग पर प्रेमी- प्रेमिका गुस्से में लाल होकर मुर्गे पर तीर से निशाना साध लेती हैं।’’ तुलसीराम की मुर्दहिया में सहृदयता के कई उदाहरण मिल जाते हैं, विशेषकर वियोग-श्रृंगार के। नटनिया के साथ तुलसीराम की अंतिम मुलाकात वास्तविक वियोग का अनूठा प्रतीकात्मक प्रयोग है। यह संयोग ही है कि हिन्दी साहित्य में अत्यंत कुरूप साहित्यकार के रूप में तुलसीराम से पहले जायसी की पहचान की जाती है। तुलसीराम की तरह जायसी के चेहरे पर भी भयानक चेचक के दाग थे और वे भी अपनी एक आंख गंवा बैठे थे। जायसी ने स्वयं अपनी कुरूपता का उल्लेख करते हुए लिखा है, ‘ एक नयन कवि मुहमद गुनी’ या ‘ मुहम्मद वाई दिसि तजा, एक स्रवन, एक आंखि।’ तुलसीराम ने भी मुर्दहिया में अपनी कुरूपता का वर्णन खुलकर किया है। जायसी ने पद्यमावत में वियोग श्रृंगार का अनूठा वर्णन किया है। कहीं-न-कहीं दोनों रचनाकारों के वियोग- वर्णन में कुरूपता का राज छिपा है। दोनों रचनाकारों की कुरूपता वियोग और सहृदयता में रूपांतरित हो गयी है। वैसे भी तुलसीराम ने जायसी की रचनाओं का गंभीर परायण किया है। जो पंक्तियां तुलसीराम ने उद्धृत की हैं वह नागमती के विरह का अत्यंत कारुणिक अभिव्यक्ति है- बरिसै मघा झकोरि-झकोरि मोर दउ नयन चुवै जस ओरी। तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा में पश्तो साहित्य के एक वियोग वर्णन का बहुत सुंदर उदाहरण प्रस्तुत किया है। तुलसीराम के पिता बरसात में बच्चों को नाला पार करा दिया करते। एक बार वे अपने मालिक की बेटी को नाला पार करा रहे थे तो कुछ ब्राह्मणों ने इसे देख लिया। आनन-फानन में उसकी पढ़ाई छुड़ा दी गई और ‘ चट मंगनी पट बयाह ’ कर दिया गया। डोली में बैठते समय पंडित की बेटी रो-रोकर कहती रही, ‘‘ हमार पढैया छूट गयल हो बाबा।’’ तुलसीराम को उसकी पढ़ाई छूटने की काफी पीड़ा थी। इसी संदर्भ में वे लिखते हैं, ‘‘वर्षों बाद जब सन् 1977 में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में मैं पश्तो भाषा पढ़ रहा था, तो काबुल के प्रध्यापक बेयेजिद हात्साक साहब ने पढ़ाते हुए बताया कि पश्तो साहित्य में मलालई की ‘लंड़इयां’ सौंदर्यशास्त्रीय दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं। छोटे-छोटे दोहे जैसी रचनाओं को पश्तो में ‘लंडई’ कहते हैं। मलालई किसी मध्ययुगीन अफगानी राजा की बेटी थी, जिसका लगाव उसके ही एक गुलाम से हो गया था। घबराकर राजा ने मलालई को जेल में बंद कर दिया। जेल की कोठरी में उसके पास न कागज था न कलम। अतः वह उंगलियों को घायल कर निकलते हुए खून से दीवारों पर लंडइयां लिखने लगी। ये रचनाएं बाद में चलकर पश्तो साहित्य की अमूल्य निधि सिद्ध हुई। ऐसा सुनकर क्षण भर के लिए कल्पना से होकर एक नई मलालई गुजर गई।’’ मुर्दहिया दलित शब्दावलियों का अनूठा खजाना है। दलित जीवन के दिन प्रतिदिन में काम आने वाली चीजें, उपकरणों, कृषि, सिंचाई तथा श्रम से संबंधित अनेकों शब्द जो कदाचित किसी भी शब्दकोश में नहीं हैं मुर्दहिया की साहित्यिक ताकत है। मुर्दहिया दलित साहित्य की दृष्टि से शब्दकोश लिखने की आवश्यकता की ओर संकेत करती है। तुलसीराम ने इन शब्दों की व्याख्या भी आत्मकथा में उसी शब्द के साथ अत्यंत रोचक ढ़ंग से कर दी है। केड़ा, दोन, ओड़िया, घर्रा, कूसी, लेव, हेंगा, कुज्जा, बर्दुउल, बेशवा, अगड़ी, दंवरी, रेह, अखन्हा, बंगही जैसे सैकड़ों शब्दों से आत्मकथा भरा-पूरा है। इन मूल शब्दों के प्रयोग से एक तो आत्मकथा की विश्वसनीयता बढ़ती है तो दूसरी तरफ हिन्दी भाषा में प्रयाग में आनेवाले शब्दों का दारिद्रय भी यथासंभव दूर होता है। सीमित शब्दों के प्रयोग से हिंदी भाषा में विचित्र तरह की एकरसता आती चली गई है। इस तरह की रचनाएं इस शाब्दिक एकरसता को भंग करती है। लरिकाई का प्रेम तुलसीराम सीधे-सीधे कहें वा ना कहें किंतु बचपन में उनका दिल नटनियां के लिए जरूर धड़कता था। पूरी आत्मकथा में ऐसे अनेक सूत्र बिखरे पड़े हैं जिनके आधार पर ‘लरिकाई’ के उस प्लेटोनिक प्रेम को देखा जा सकता है। आत्मकथा में यद्यपि नटनिया का प्रवेश काफी देर से यानी पांचवे अध्याय से होता है किंतु उसके बाद से वह स्थायी भाव या किसी गीत के मुखड़ा की तरह हमेशा इधर-उधर मंडराती रही है। तुलसीराम पाठकों से उसका परिचय सर्वप्रथम एक विलक्षण नर्तकी के रूप में कराते हैं, ‘‘नटनियां अप्रतिम मोहक होने के साथ-साथ अत्यंत कुशल नर्तकी थी। उन दिनों दिन भर मजदूरी करने के बाद दलित प्रायः विभिन्न गांवों में ढोल की थाप पर लोग गायन के साथ अपनी थकान मिटाया करते थे। ढोल चाहे किसी गांव में बजे, उसकी ध्वनि सुनते ही नटनियां जहां भी हो, थिरकना शुरु कर देती थी। नाचना किसी से सीखा नहीं था, किंतु उसे देखते ही ऐसा लगता था कि मानो वह नाचते ही पैदा हुई थी। उसके अंग प्रत्यंग नृत्यकला के कल-पुर्जे जैसे लगते थे। यहाँ तक कि संध्या होते ही मुर्दहिया से चरकर लौटीं गाय भैसों की ‘बांव-बांव’ वाली धुन पर भी वह नृत्य की दो-चार छलांगे लगा लेती थी।’’(मुर्दहिया, पृ0 116) आत्मकथा लेखक तुलसीराम नटनिया के नृत्य के भारी प्रशंसक हैं। वह किसी भी धुन पर नाचने की क्षमता रखती थी, ‘‘ गोरू हांकने वाली लाठियों को किसी मेड़ या झाड़ी से अंठगांकर दो सूखी लकड़ियों से लाठी पर नगाड़े की तरह बजाना शुरू कर देते थे जिसके साथ ही शुरू हो जाती थी नटनियां की अनोखी नृत्यकलाएं। शायद दुनिया की वह पहली नर्तकी थीं जो मेरे जैसे नौसुखिए लट्ठवादकों की लक्कड़ ध्वनि पर किसी श्मशान में यूं ही नाचने लगती थी।’’(मुर्दहिया, पृ0 116) दरअस्ल नटनियां चाहे जैसी नृत्य करती हो किंतु बालक तुलसीराम के चित्त पर तो वह दुनिया की सर्वश्रेष्ठ नुत्यांगना के रूप में राज करती थी। नटनियां तुलसीराम का सानिध्य प्राप्त करने हेतु उनसे अंग्रेजी सीखना चाहती थी। नटनियां की याचना को तुलसीराम ने अत्यंत प्रतीकात्मक ढ़ंग से अभिव्यक्त किया है,‘ ‘मैं जब भी शाम के समय स्कूल से लौटते हुए मुर्दहिया से गुजरता, वह झोपड़ी से निकलकर रास्ते में अपने अंकवार’’ (दोनों बाहों) में समा जाने वाले किसी पेड़ के तने को जकड़ लेती और अपने मुंह को निरंतर कभी दायें कभी बांये घुमाते हुए मुझसे कहती, ‘‘ हमहूं के रंगरेजिया पढ़ाव रे बाबू।’ निश्चित रूप से नटनिया का यह आंगिक भाव प्रेम का खुला निमंत्रण था, संभव है लेखक छोटी उम्र के कारण इस भाव को न पहचान पाया हो, किंतु आत्मकथा लिखते समय उसे इन भावों के अर्थ खुले हों। तुलसीराम पूरी लगन से नटनियां को अंग्रेजी सिखाने लगे किंतु यह दूसरी बात है कि अंग्रेजी का एक ही वाक्य वह सीख पायी-‘वल्चर्स आर सीटिंग आन पीपल ट्री’। दसवीं उत्तीर्ण कर जब तुलसीराम गांव से भागते हैं, तो अपना समान एक दिन पहले नटनियां के घर जाकर रखते हैं। यद्यपि उसे वे बताते नहीं हैं कि वे भागने की योजना बना रहे हैं किंतु नटनियां की छठी इन्द्रियां भांप जाती है तभी तो कहती है, ‘‘ओहर कहवां जात हउवे रे बाबू, तं तै बरहलगंज जाए खातिर टोटका कइले रहले।’’ नटनियां के साथ का यह सर्वाधिक कारुणिक और मार्मिक प्रसंग तुलसीराम ने रचा है। जब नटनियां को विश्वास हो गया कि वे सचमुच गांव से भाग रहे हैं तो एक ही वाक्य दुहराए जा रही थी, ’ अब लउटि के ना अइबे का रे बाबू।’ तुलसीराम लिखते हैं, ‘‘ क्षण भर के लिए नटनियां वहीं खड़ी रही और शायद मेरे द्वारा पढ़ाई गई अंग्रेजी वह भूल गई थी, इसलिए बोल पड़ी ‘ पिपरा पे गिधवा बईठल हउवे।’ इससे अधिक प्रेमाभिव्यक्ति क्या हो सकती है? आत्मकथा के अंतिम अध्याय ‘ आजमगढ़ में फाकाकशी’ का आरंभ तुलसीराम इन पंक्तियों से करते हैं, 1 जुलाई 1964’’(मेरा पंद्रहवां सर्टीफिकेट जन्मदिन) को घर से भागते हुए नटनिया तथा जोगी बाबा, दो ऐसे व्यक्ति थे, जिनसे होकर मैं एक अनिश्चित भविष्य के लिए रवाना हो गया।’’