मुर्दों का शहर / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल

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अपने-आप को भीड़-भाड़ से निकालकर मैं कल एक पहाड़ी पर ले गया। कुदरत ने उसे नया परिधान पहनाया था। मैं वहाँ पहुँचकर साँस ले पाया।

मैंने पीछे देखा। शहर खूबसूरत मस्जिदों, भव्य महलों और दुकानों के धुएँ में अटा पड़ा था।

मैं मनुष्य की आमद के उद्देश्य के बारे में सोचने लगा। लेकिन सिर्फ इसी नतीजे पर पहुँच सका कि उसकी जिन्दगी का ज्यादातर हिस्सा संघर्षों और कठिनाइयों में बीत जाता है। अंतत: मैंने आदम की औलाद पर सिर खपाना छोड़ दिया। अपना ध्यान मैदान पर केन्द्रित किया जो ईश्वर का दिव्य सिंहासन है। मैदान के एक एकांतिक कोने में मुझे पोपलर के पेड़ों से घिरी एक कब्रगाह दिखाई दी।

जीवितों और मुर्दों के शहर के बीच उस जगह पर खड़े मैंने अपने-आप को एकाग्र किया। पहले मैंने आन्तरिक शान्ति के बारे में सोचा; उसके बाद, अंतहीन पीड़ा के बारे में।

जीवितों के शहर में मैंने आशा और निराशा, प्रेम और घृणा, खुशी और ग़म, संपन्नता और गरीबी, विश्वास और धोखे को देखा।

मुर्दों के शहर में, जहाँ ज़मीन के नीचे मिट्टी दबी पड़ी है। रात के सन्नाटे में कुदरत जिसे पादपों में तब्दील कर देती है। ये पादप चौपायों के पेट में जाते हैं और वहाँ से मनुष्यों के पेट में। जब मेरा मस्तिष्क यह सब सोच रहा था, समान रूप से धीमी गति में चलता एक जुलूस मुझे दिखाई दिया। उसके साथ उदास धुन आकाश में बिखेरते बाजे वाले भी थे। यह एक भव्य शवयात्रा थी। जीवित लोग शव के पीछे-पीछे चल रहे थे। वे रो रहे थे और मरने वाले से अपनी गलतियों के लिए क्षमा माँग रहे थे। शवयात्रा जब प्रार्थना-स्थल पर पहुँची, पादरी ने प्रार्थना करना और अगरबत्तियाँ जलाना शुरू कर दिया। बाजे वालों ने बाजों को जोर से बजाया, तोड़कर फेंका और जाने के लिए वापस घूम लिए। उसके बाद, मुख्य लोग एक-एक कर आगे आये और बेहतरीन शब्दों में श्रद्धांजलि देते गये।

अंत में, शव को कीमती फूलमालाओं को लपेटकर सजाए हुए एक बहुत बड़े गुम्बद के नीचे छोड़कर भीड़ चली गई।

शवयात्रा से लौटे लोग शहर में पहुँचे। मैं वहीं पर खड़ा उन्हें दूर तक देखता रहा। उस समय जब सूरज क्षितिज में गोता लगाने की तैयारी कर रहा था और कुदरत नींद की देवी का स्वागत करने की तैयारी करने लगी थी, मैं मन-ही-मन अपने-आप से बातें करने लगा।

तभी मैंने दो लोगों को लकड़ी के एक भारी-भरकम बक्से को सिर पर लादे आते देखा। उनके पीछे एक कृशकाय औरत अपनी गोद में एक बालक को लिए आ रही थी। सबसे पीछे एक कुत्ता था। पथराई-सी आँखों से पहले उसने औरत को घूरा, फिर बक्से को।

यह एक गरीब की शवयात्रा थी। मौत का यह मेहमान अपने पीछे एक मजबूर बीवी, उसका दु:ख बाँटने को एक दुधमुँहा बच्चा और एक स्वामीभक्त कुत्ता छोड़ गया था जिसका हृदय अपने मालिक की मौत से विदीर्ण था।

दफन करने की जगह पहुँचकर बक्से को उन्होंने फुलवारियों और मार्बल पत्थरों से बनी कब्रों से दूर एक गड्ढे में उतार दिया। कुत्ते ने अन्तिम बार अपने दोस्त की कब्र को देखा। उसके बाद वे लोग नीचे उतरकर पेड़ों के पीछे गुम हो गये।

मैंने जीवितों के शहर की ओर देखा और अपने-आप से कहा - "वहाँ बहुत कम लोग हैं।" फिर मैंने मुर्दों के छोटे-से शहर को देखा और कहा - "उस शहर में भी कम ही लोग हैं। हे ईश्वर! स्वर्ग कहाँ है, जहाँ सब रह सकें?"

जैसे ही यह कहा, मैंने बादलों की ओर देखा। वे सूरज की लम्बी और खूबसूरत सुनहरी किरणों से दमक रहे थे। उस पल मुझे अपने अन्दर से आवाज़ आई - "वहाँ है।"