मुवक्किल जेल से कैसे बचा ? / सत्य के प्रयोग / महात्मा गांधी
इन प्रकरणो के पाठक पारसी रूस्तम जी नाम से भलीभाँति परिचित हैं। पारसी रूस्तम जी एक समय में मेरे मुवक्किल और सार्वजनिक काम के साथी बने, अथवा उनके विषय में तो यह कहा जा सकता हैं कि पहले वे मेरे साथी बने और बाद में मुवक्किल। मैने उनका विश्वास इस हद तक प्राप्त कर लिया था कि अपनी निजी और घरेलू बातो मे भी वे मेरी सलाह लेते थे और तदानुसार व्यवहार करते थे। बीमार पड़ने पर भी वे मेरी सलाह की आवश्यकता अनुभव करते थे और हमारी रहन-सहन मे बहुत फर्क होने पर भी वे अपने ऊपर मेरे बतायो उपचारो का प्रयोग करते थे।
इन साथी पर एक बार बड़ी विपत्ति आ पड़ी। अपने व्यापार की भी बहुत सी बाते वे मुझ से किया करते थे। लेकिन एक बात उन्होंने मुझ से छिपा कर रखी थी। पारसी रूस्तम जी चुंगी की चोरी किया करते थे। वे बम्बई -कलकत्ते से जो माल मँगाते थे , उसी सिलसिले मे यह चोरी चलती थी। सब अधिकारियों से उनका अच्छा मेलजोल था, इस कारण कोई उन पर शक करता ही न था। वे जो बीजक पेश करते , उसी पर चुंगी ले ली जाती थी। ऐसे भी अधिकारी रहे होगे , जो उनकी चोरी की ओर से आँखे मूँद लेते होगे।
पर अखा भगत की वाणी कभी मिथ्या हो सकती है ? --
काचो पारो खावो अन्न, तेवुं छे चोरीनुं धन।
(कच्चा पारा खाना और चोरी का धन खाना समान ही हैं )
पारसी रूस्तम जी की चोरी पकड़ी गयी। वे दौड़े-दौड़े मेरे पास आये। आँखो मे आँसू बह रहे थे और वे कह रहे थे, 'भाई, मैने आपसे कपट किया है। मेरा पाप आज प्रकट हो गया हैं। मैने चुंगी की चोरी की हैं। अब मेरे भाग्य मे तो जेल ही हो सकती हैं। मैं बरबाद होनेवाला हूँ। इस आफत से आप ही मुझे बचा सकते हैं। मैने आपसे कुछ छिपाया नही। पर यह सोचकर की व्यापार की चोरी की बात आपसे क्या कहूँ, मैने यह चोरी छिपायी। अब मै पछता रहा हूँ। '
मैने धीरज देकर कहा, 'मेरी रीति से तो आप परिचित ही हैं। छुड़ाना न छुड़ाना खुदा के हाथ हैं। अपराध स्वीकार करके छुड़ाया जा सके, तो ही मैं छुड़ा सकता हूँ।'
इन भले पारसी का चेहरा उतर गया।
रूस्तम जी सेठ बोले, 'लेकिन आपके सामने मेरा अपराध स्वीकार कर लेना क्या काफी नही हैं ?'
मैने धीरे से जवाब दिया , 'आपने अपराध तो सरकार का किया है और स्वीकार मेरे सामने करते हैं। इससे क्या होता है ?'
पारसी रूस्तम जी कहा, 'अन्त मे मुझे करना तो वही हैं जो आप कहेगे। पर ... मेरे पुराने वकील हैं। उनकी सलाह तो आप लेंगे न ? वे मेरे मित्र भी हैं।'
जाँच से पता चला कि चोरी लंबे समय से चल रही थी। जो चोरी पकडी गयी वह तो थोड़ी ही थी। हम लोग पुराने वकील के पास गये। उन्होने केस की जाँच की और कहा, 'यह मामला जूरी के सामने जायगा। यहाँ के जूरी हिन्दुस्तानी को क्यो छोड़ने लगे ? पर मैं आशा कभी न छोड़गा।'
इन वकील से मेरा गाढ परिचय नही था ष पारसी रूस्तम जी मे ही जवाब दिया , 'आपका आभार मानता हूँ किन्तु इस मामले मे मुझे मि. गाँधी की सलाह के अनुसार चलना हैं। वे मुझे अधिक पहचानते है। आप उन्हें जो सलाह देना उचित समझे. देते रहियेगा।'
इस प्रश्न को यों निबटा कर हम रूस्तम जी सेठ की दुकान पर पहुँचे।
मैने उन्हें समझाया, 'इस मामले को अदालत मे जाने लायक नही मानता। मुकदमा चलाना न चलाना चुंगी अधिकारी के हाथ मे हैं। उसे भी सरकार के मुख्य वकील की सलाह के अनुसार चलना पड़ेगा। मैं दोनो से मिलने को तैयार हूँ , पर मुझे तो उनके सामने उस चोरी को भी स्वीकार करना पड़ेगा , जिसे वे नही जानते। मैं सोचता हूँ कि जो दंड वे ठहराये उसे स्वीकार कर लेना चाहिये। बहुत करके तो वे मान जायेंगे। पर कदाचित् न माने तो आपको जेल के लिए तैयार रहना होगा। मेरा तो यह मत है कि लज्जा जेल जाने मे नहीं , बल्कि चोरी करने मे हैं। लज्जा का काम तो हो चुका है। जेल जाना पड़े तो उसे प्रायश्चित समझिये। सच्चा प्रायश्चित तो भविष्य मे फिर से कभी चुंगी की चोरी न करने की प्रतिज्ञा मे हैं।'
मैं नही कह सकता कि रूस्तम जी सेठ इस सारी बातो को भलीभाँति समझ गये थे। वे बहादुर आदमी थे। पर इस बार हिम्मत हार गये थे। उनकी प्रतिष्ठा नष्ट होने का समय आ गया था। और प्रश्न यह था कि कहीं उनकी अपनी मेहनत से बनायी हुई इमारत ढह न जाये।
वे बोले, 'मै आपसे कह चुका हूँ कि मेरा सिर आपकी गोद में हैं। आपको जैसा करना हो वैसा कीजिये।'
मैने इस मामले मे विनय की अपनी सारी शक्ति लगा दी। मैं अधिकारी से मिला और सारी चोरी की बात उससे निर्भयता पूर्वक कह दी। सब बहीखाते दिखा देने को कहा और पारसी रूस्तम जी के पश्चाताप की बात भी कही।
अधिकारी मे कहा , 'मै इस बूढे पारसी को चाहता हूँ। उसने मूर्खता की हैं। पर मेरा धर्म तो आप जानते हैं। बड़े वकील जैसा कहेंगे वैसा मुझे करना होगा। अतएव अपनी समझाने की शक्ति का उपयोग आपको उनके सामने करना होगा।'
मैने कहा , 'पारसी रूस्तम जी को अदालत मे घसीटने पर जोर न दिया जाये, तो मुझे संतोष हो जायेगा।'
इस अधिकारी से अभय-दान प्राप्त करके मैने सरकारी वकील से पत्र-व्यवहार शुरू किया। उनसे मिला। मुझे कहना चाहिये कि मेरी सत्यप्रियता उनके ध्यान मे आ गयी। मैं उनके सामने यह सिद्ध कर सका कि मैं उनसे कुछ छिपा नही रहा हूँ।
इस मामले मे या दूसरे किसी मामले मे उनके संपर्क मे आने पर उन्होंने मुझे प्रमाण-पत्र दिया था , 'मै देखता हूँ कि आप 'ना' मे तो जवाब लेनेवाले ही नही हैं।'
रूस्तम जी पर मुकदमा नही चला। उनके द्वारा कबूल की गयी चुंगी की चोरी के दूने रूपये लेकर मुकदमा उठा लेने का हुक्म जारी हुआ।
रूस्तम जी ने अपनी चुंगी की चोरी की कहानी लिखकर शीशे मे मढवा ली औऱ उसे अपने दफ्तर मे टाँगकर अपने वारिसों और साथी व्यापारियों को चेतावनी दी।
रूस्तमजजी सेठ के व्यापारी मित्रो ने मुझे चेताया, 'यह सच्चा वैराग्य नही हैं, श्मशान वैराग्य है।'
मै नही जानता कि इसमे कितनी सच्चाई थी।
मैने यह बात भी रूस्तम जी सेठ से कही थी। उनका जवाब यह था , 'आपको धोखा देकर मैं कहाँ जाऊँगा ?'