मुशर्रफ आलम ज़ौकी / परिचय

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मुशर्रफ आलम ज़ौकी

उर्दू साहित्य के मशहूर लेखक मुशर्रफ आलम जौकी नहीं रहे। उन्हें उर्दू का प्रेमचंद कहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगी क्योंकि कोई ऐसा मुद्दा शायद ही होगा जिस पर उन्होंने दिल खोलकर न लिखा हो। उनके उपन्यास, उनकी कहानियां हमेशा पाठकों को रोमांचित करती रहीं।

मुशर्रफ आलम ज़ौकी सामयिक उर्दू दुनिया का सबसे चर्चित और सबसे सक्रिय नाम। सामयिक उर्दू फिक्शन का एक जरूरी नाम। आधुनिक उर्दू साहित्य की एक लाज़मी शख्सियत। करीब तीन दशक से ज्यादा समय तक उन्होंने उर्दू फिक्शन की हर विधा में खूब लिखा। इतना कि जितना शायद ही कोई लिख सके। निरंतर लिखने के मामले में उन्हें प्रेमचंद के बोनसाई के रूप में देखा जाए तो शायद गलत नहीं होगा। प्रेमचंद की ही तरह उर्दू में लिखने के बाद वह हिंदी में भी लिखते थे। अपनी कहानियों को खुद ही हिंदी में उतार लेते थे। उन्हीं की तरह उनकी कहानियों में उस दौर की भाषा, शैली और किरदार होते थे। ज़ौकी ने हमेशा अपने आसपास के बिल्कुल करीब के और साथ में जीने मरने वालों की कहानियां लिखीं हैं, उन्हीं पर उपन्यास लिखे हैं।

पिछली सदी में जब अस्सी का दशक अपनी अंतिम सांसे ले रहा था तब उन्होंने पहली बार बिहार से बिस्तर बांधा और लखनऊ आए थे जहां से उन दिनों उर्दू की एक मासिक साहित्यिक पत्रिका ’मुअल्लिमे उर्दू’ प्रकाशित होती थी। वह सीधे उसके दफतर में आए, वहीं रुके और हफता भर रुके रहे। यह उनका पहला ब्रेक कहा जा सकता है। यहीं से उन्होंने अपने करियर की शुरुआत की। यहां से एक समाचार पत्रिका ’खोज खबर’ भी प्रकाशित होती थी। इसके लिए भी उन्होंने उस एक हफते में कई अंकों का कंटेंट लिख दिया। देखने वालों ने तब देखा कि ज़ौकी जब तक सोते नहीं थे, मुस्तकिल लिखते ही रहते थे।

ज़ौकी से पहली बार वहीं मुलाकात हुई थी। एक हफ्ते ही में लखनऊ से ज़ौकी का मन भर गया और बिहार वापसी के बजाए दिल्ली का टिकट कटा लिया। उसके बाद कहां का लखनऊ और कौन सा बिहार। तब से जो उन्होंने लिखना शुरु किया तो तब तक लिखते रहे जब तक कि उनकी सांसें थम नहीं गईं।

करीब दो दर्जन फिक्शन की किताबों के लेखक ज़ौकी के कुछ बेहद मशहूर नाॅवेल हैं जिन्होंने हिंदुस्तान और पाकिस्तान समेत पूरी उर्दू दुनिया में अपनी धाक जमाई। इनमें प्रमुख हैं ’बयान’, ’पोके मान की दुनिया’, ’मर्ग-ए-अंबोह’, ’नाला-ए-शबगीर’, ’नीलाम घर’, ’शहर चुप है’, ’उकाब की आंखें, ’आतिशे रफ्ता का सुराग’, ’ले सांस भी आहिस्ता’। इसके अलावा ’नफरत के दिनों में’ उनका कहानी संग्रह है। ’आबे रवाने कबीर’ उर्दू समालोचना पर आधारित उनके लेखों का संग्रह है और ’गुज़रे हैं कितने’ उनके खाकों और अन्य साहित्यिक लेखों का संग्रह है। इसके अलावा उनकी किताब ’सिलसिलाए रोज़ो शब’ में उन्होंने वह लेख शामिल किए हैं जिनमें उर्दू नॉवेल और अन्य विषयों पर उन्होंने अपने विचार व्यक्त किए हैं।

करीब तीन साल पहले जब ज़ौकी का नावेल ’मर्ग-ए-अंबोह’ आया तो सभी चैंक गए थे। इसमें जर्मनी के नाजी होलोकाॅस्ट को हिंदुस्तान के पसमंज़र में लिखा गया था। फासीवाद की जड़ें और उसकी फसल, उसका अंजाम और उसके मकसद। ज़ौकी ने अपनी रौ में इसमें न जाने कहां कहां से हवाले लेकर इसे लिख डाला था। इसी तरह हाल ही में प्रकाशित उनका बेहद मशहूर हुआ नावेल ’मुर्दा खाने की औरत’ है। फिलहाल यह उनका सबसे चर्चित नॉवेल है। इसका प्लाट हाल के दिनों में फासिज्म के प्रति बढ़ती दिलचस्पी और उससे पैदा होने वाले हालात हैं। इसे उन्होंने बेहद जज्बाती अंदाज में लिखा है।

हालांकि उनका ज्यादातर लेखन जज्बाती ही कहा जाता है। शायद है भी, उर्दू साहित्य में जितने ठहराव, जितने संयम, जितने गूढ़ होने की अनिवार्यता का स्तर अभी तक बाकी है, उसमें ज़ौकी शायद खरे नहीं उतरते थे। उनके आधुनिक प्रेमचंद बनने में कहीं यहीं पर समालोचकों का एक वर्ग इसी को छोटा सा रोड़ा मानता है, वर्ना उनके लिखने का स्टाइल और सिर्फ लिखने का कमिटमेंट और सिर्फ लिखकर जीने की लगातार कोशिश उन्हें प्रेमचंद बनाने में कसर नहीं छोड़ती। प्रेमचंद की ही तरह उन्होंने बंबइया फिल्मों के लिए काम करना चाहा लेकिन उन्हीं की तरह नाकाम हुए। लौटे तो दूरदर्शन के साथ सैकड़ों छोटी छोटी फिल्में और डाक्यूमेंटरी बना डालीं। कई धारावाहिक का प्रोडक्शन किया और सैकड़ों आडियो विजुअल कृतियों में उन्होंने काम किया। उनके अंदर अतिशय उर्जा ने उन्हें कभी चैन से बैठने ही नहीं दिया। उन्हें कुछ करना था, लिखना था या फिल्म बनानी थी या फिर कोई नावेल पढ़ना था।

तेज रफ्तारी उनकी ताकत भी थी और कमजोरी भी। अभी पिछले साल ही एक लोकप्रिय उर्दू दैनिक के मुख्य सम्पादक बना दिए गए तो वहां कायापलट कर दी। जाहिर है कि बहुत दिनों तक ऐसे शख्स को लोग बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं। चार पांच महीने में ही वापस आ गए। लेकिन चूंकि उनके सीने में एक पत्रकार का दिल धड़कता था, इसलिए वह कभी भी बहुत ज्यादा सोच समझ कर लिखने के आदी नहीं हो पाए। वह जिस दौर में लिख रहे थे उस दौर में लेखक का पत्रकार होना कोई विशेषता नहीं मानी जाती है लेकिन पिछले जमानों में यही बात सबसे बड़ी खूबी हुआ करती थी। ऐसा कौन सा विषय था, ऐसी कौन सी विपदा थी या ऐसा कौन सा मामला था जो किसी के दिल को अगर छू गया तो ज़ौकी ने उस पर कलम न उठाया हो। जब से फेसबुक आया, तब से तो ज़ौकी ने उसे ही अपना अखबार और पत्रिका बना लिया था और तकरीबन हर मसले पर वह खूब लिखते थे। किसी भी नाइनसाफी के एक मामूली पहलू पर भी उनकी निगाह रहती थी, जरूर लिखते थे जैसे कि इस पर लिखने का सबसे पहला हक उन्हीं का बनता है।

ज़ौकी जब पिछली सदी के अस्सी के दशक के आखिर में जब बिहार से लखनउ आए थे, तब से लेकर अब तक केवल लिख कर जिंदा रहने के उनकी प्रतिबद्धता को सौ सौ सलाम। यह बहुत बड़ा फैसला था, बहुत बड़े संघर्ष को दावत थी जिसे उन्होंने हमेशा चुनौती के रूप में लिया। हालात कितने भी और कैसे भी रहे हों, ज़ौकी लिखते रहे, पढ़ते रहे और सबसे बड़ा कमाल कि दिल्ली में टिके ही नहीं रहे बल्कि जमे रहे। हमारे आस पास शायद ऐसे बहुत कम लोग हैं जो अपने आपको फख्र से बताएं कि वह लेखक हैं। आधुनिक साहित्य के इस पुजारी के शौक बड़े पारंपरिक थे। शेरवानी की उपरी जेब में गुलाब का फूल और बेहतरीन इत्र ज़ौकी की कमजोरी था। वह बिना इत्र लगाए शायद ही कभी घर से निकले हों.......!