मुश्किल काम / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल

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नगर के मुख्यद्वार पर एक शाम दो फरिश्ते मिले। परस्पर अभिवादन के बाद वे यों बतियाने लगे -

"इन दिनों तुम क्या रहे हो, और कौन-सा काम तुम्हें सौंपा गया है?"

"मुझे एक गिरे हुए आदमी की देखभाल का जिम्मा सौंपा गया है जो नीचे, घाटी में रहता है। बड़ा पापी है। एकदम नीच। यह बड़ा मुश्किल काम है लेकिन मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूँ कि इस जरूरी काम को मैं कर डालूँगा।"

पहले ने कहा, "यह मुश्किल नहीं है। मेरा वास्ता पापियों से पड़ता रहा है। मैं बहुत बार उनका खैरख्वाह बना हूँ। लेकिन इस बार मुझे एक अच्छे सन्त का खैरख्वाह बनने का काम सौंपा गया है। वह सामने वाले कुंज में रहता है। मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूँ कि इस मुश्किल जिम्मेदारी को बड़ी चतुराई से निभाऊँगा।"

"यह निरी कल्पना है। किसी सन्त का खैरख्वाह बनना किसी पापी का खैरख्वाह बनने से ज्यादा मुश्किल कैसे हो सकता है?" पहले ने पूछा।

"मेरी बात को कल्पना कहना अशिष्टता है। जो कुछ भी मैंने कहा है, सच है। मैं कहता हूँ कि काल्पनिक तुम्हारी बात है।" दूसरे ने कहा।

इस पर दोनों में झगड़ा हो गया। पहले वे ज़ुबानी लड़े फिर हाथापाई पर उतर आए।

तभी उनसे सीनियर एक फरिश्ता उधर आ निकला। उसने दोनों को रोका और बोला, "क्यों झगड़ रहे हो? क्या तुम नहीं जानते कि खैरख्वाह फरिश्तों का नगर के द्वार पर झगड़ना नियम-विरुद्ध है? हुआ क्या, मुझे बताओ।"

तब दोनों फरिश्ते एक-साथ बोलने लगे। दोनों अपने-अपने काम को मुश्किल अपने-आप को बड़ा सिद्ध करने लगे।

सीनियर फरिश्ते ने अपना सिर हिलाया और सोचने लगा। फिर बोला, "दोस्तो! मैं नहीं कह सकता कि सम्मानित और अलंकृत होने का दावा तुममें से किसका ज्यादा मज़बूत है। लेकिन तुम दोनों के बीच शान्ति की बहाली के लिए मैं अपने एक अधिकार का प्रयोग कर सकता हूँ। वो ये कि मैं तुम दोनों को सौंपे गए काम अदल-बदल कर देता हूँ। अब आप शान्तिपूर्वक अपना-अपना काम करें और खुश रहें।"

यह आदेश पाकर दोनों फरिश्ते अपने-अपने रास्ते चले गए। जलती हुई आँखों से वे दोनों पीछे मुड़कर सीनियर फरिश्ते को घूरते जाते थे। दोनों ही अपने दिल में कह रहे थे - "ओह, ये सीनियर फरिश्ते! बैठे-बिठाए ये हम जूनियर्स का जीवन दूभर बना डालते हैं।"

सीनियर फरिश्ता अपनी जगह पर खड़ा था। वह मन-ही-मन कह रहा था - "हमें निश्चित रूप से इन फरिश्तों पर कड़ी नजर रखनी चाहिए।"