मुसलमानों में ऊंच-नीच / सुहेल वहीद

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भारत में मुस्लिम समाज ‘अशराफ’ और ‘अजलाफ’ में बँटा हुआ है। अशराफ वे लोग हैं जो साधनसंपन्न, पढ़े-लिखे, सभ्य, सुसंस्कृत, चरित्रवान, भलेमानुस और ‘गुडलुकिंग’ होते हैं। यानी अशराफ वे हैं, जिनकी नस्ल ऊँची हो—वे खानदानी लोग, जिनका शजरा किसी प्रभावशाली या किसी बड़े व्यक्ति या किसी बड़ी धार्मिक संस्था से मिलता हो। बाकी सब अजलाफ हैं। अजलाफ का शाब्दिक अर्थ उर्दू के शब्दकोशों में ‘कमीना’ और ‘घटिया’ लिखा है यानी ‘मुस्लिम शूद्र’।

फिर मामला आता है सादात का। सादात वे हैं, जो सैय्यद होते हैं या होने का दावा करते हैं। सैय्यद का शाब्दिक अर्थ भारत के उर्दू तथा अरबी-उर्दू शब्दकोशों में लिखा है, सरदार तथा हजरत फातमा और हजरत अली के खानदान की नस्ल के लोग ( हजरत फातमा पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब की बेटी थीं)। मुसलमानों में सैय्यद के घर पैदा होना बड़े गर्व की बात है। सैय्यद आज भी लगभग पूजनीय का दर्जा रखते हैं। मुस्लिम समाज (शिया-सुन्नी) में सैय्यद सबसे ज्यादा पवित्र और ऊँची श्रेणी के माने जाते हैं और इसीलिए हर सैय्यद खानदान अपने को असली सैय्यद साबित करने के लिए जमीन-आसमान के कुलाबे मिलाता नजर आता है। उसकी वजह यह है कि सबसे ज्यादा घपला इसी ‘सैय्यदवाद’ में है। यह बात आसानी से गले के नीचे नहीं उतरती कि भारत के वर्ण व्यवस्था वाले माहौल में मुसलमानों ने जाति को महत्त्व नहीं दिया। लेकिन प्रचारित कर दिया गया है, बल्कि साबित कर दिया गया है कि मुसलमान सिर्फ़ मुसलमान होता है—कुछ और नहीं, इसलिए दूसरे लोग कुछ कहते हुए जरा डरते हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि भारत और पाकिस्तान में ऊँची-नीची जात का चक्कर मुसलमानों में हिंदुओं से कम नहीं है।

‘नदवा’ विख्यात इस्लामी संस्था है। सैय्यद अबुल हसन अली नदवी यानी ‘अली मियाँ’ इस संस्था के प्रमुख हैं, जिनकी लिखी पुस्तकें पूरी दुनिया के विश्वविद्यालयों के धर्मशास्त्र विभाग में पढ़ाई जाती हैं। इस संस्था के दो पाक्षिक मुखपत्र छपते हैं। एक उर्दू में ‘तामीरे-हयात’ और दूसरा अरबी भाषा में ‘अरायद’। काफी समय तक दोनों का संपादक मंडल एक ही रहा है? लेकिन जब उर्दू में संपादक मंडल के नाम छपते थे तो सभी के नाम से पहले ‘सैय्यद’ लिखा होता था, लेकिन यही नाम जब अरबी में लिखे जाते थे, तो किसी नाम के आगे सैय्यद शब्द नहीं लिखा जाता था। कारण यह है कि सैय्यद शब्द का वास्तविक अर्थ ‘श्री’, मिस्टर या जनाब होता है। अरबी में अगर अपने नाम के पहले सैय्यद लिखेंगे, तो पूरी अरब दुनियाँ में इनकी स्थिति हास्यास्पद हो जाएगी। यही नहीं, अरब देशों से आनेवाले समाचार पत्र-पत्रिकाओं में भारतीय समाचारों में लिखा होता है: सैय्यद एल.के. आडवाणी, सैय्यद कांशीराम या सैय्यदा मायावती। नदवा के अरबी मुखपत्र में भी जहाँ कहीं आडवाणी या कांशीराम का नाम आता है, उससे पहले ‘अल सैय्यद’ अवश्य लिखा होता है। लेकिन भारत में ‘सैय्यद’ होना पवित्र होना है यानी सबसे उच्च जाति।

तर्क देने वाले यह भी कहते हैं कि अरबी में ‘अल सैय्यद’ लिखा होता है, लेकिन इसका जवाब कोई नहीं देता कि अरबी में तो कुरान को भी ‘अल कुरान’ लिखा जाता है। वास्तव में अल का शाब्दिक अर्थ अंग्रेजी का ‘द’ होता है। अरबी के अखबार जब कांशीराम या एल.के. आडवाणी के नाम के पहले अल सैय्यद लगाते हैं, तो उसका सीधा मतलब ‘श्री’ ही होता है। इस तरह नदवा के मुखपत्रों में एक ही संपादक-मंडल के नामों में उर्दू में सैय्यद लिखा जाना और अरबी में न लिखा जाना इस घपले को साबित करता है, क्योंकि नदवा का अरबी मुखपत्र अरायद भी ‘अल रायद’ है, लेकिन रायद के अर्थों में ही प्रयुक्त होता है। इस संपादक मंडल में अभी भी मौलाना मुहम्मद राबे हसनी नदवी का नाम उर्दू में छपता है तो मौलाना के बाद ‘सैय्यद लिखा होता है, लेकिन जब अरबी में लिखा जाता है तो ‘सैय्यद’ गायब होता है।

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय वर्षों तक मुस्लिम राजनीति का प्रमुख मुद्दा रहा, जिसे भुना कर कई लोग बड़े राजनीतिज्ञ बन गए। कुछ मंत्री भी बने और फिर खानदानी रईस हुए। वहाँ चले जाइए, बड़े से बड़े वामपंथी प्रोपेâसर की जाति और उसका खानदान मालूम नहीं करना पड़ेगा। हर एक की जबान पर हर एक की जाति बोलती है और हर एक का माथा उसकी जाति की उँâच-नीच से नीचा या ऊँचा है। यहाँ एक अजीबो-गरीब आरक्षण आज भी लागू है—५ परसेंट ओल्ड ब्वायज के खानदान वालों के लिए। यानी अगर आप अलीगढ़ विश्वविद्यालय के ‘ओल्ड ब्यायज’ (गल्र्स भी) रहे हैं और आपका बच्चा दुनिया के किसी भी हिस्से में किसी भी क्लास में ५० प्रतिशत अंक पाता है, तो अलीगढ़ विश्वविद्यालय में दाखिले के वक्त उसे ५५ प्रतिशत माना जाएगा। ‘ओल्ड ब्वायज’ के बच्चों के लिए विश्वविद्यालय के हर विभाग में १० प्रतिशत, बीस, तीस,इतने पर भी पेट नहीं भरता, तो ५० प्रतिशत सींटे आरक्षित की जा सकती थीं, लेकिन नहीं, इस ‘पांच परसेंट’ में असीम संभावनाएँ हैं। यानी अगर संभव हो जाए तो अलीगढ़ विश्वविद्यालय में केवल ओल्ड ब्वायज के बच्चे ही दाखिल किए जाएँ। निश्चित रूप से ऐसा होता भी रहा होगा और विडंबना देखिए कि इसी अलीगढ़ विश्वविद्यालय के लिए पिछले पचास सालों में कितनी बार गरीब मुसलमान न जाने कहाँ-कहाँ दंगों का शिकार हुआ। पिछले दस-पंद्रह सालों में तो कुछ मध्य वर्ग भी ‘ओल्ड ब्वायज’ के रूप में सामने आया है। लेकिन उससे पहले ‘ओल्ड ब्वायज’ का सम्मान सिर्फ़ जमींदार-जागीरदार घरानों के लड़कों को ही प्राप्त हो पाता था और कोई भी जमींदार सैय्यद से कुछ कम होता था तो असली पठान होता था। जात-पाँत के इस तरह के ‘सॉफिस्टीकेटेड खेल’ मुसलमानों में बहुत पहले से प्रचलित हैं।

दरअसल, सर सैय्यद अहमद खाँ जात-पाँत की समाजी व्यवस्था के कट्टर समर्थक थे। अशराफ और अजलाफ के फर्वâ को बड़ी प्राथमिकता देते थे। अपने समय में अंग्रेजों के घारे समर्थक और विपत्ति में उनकी ‘मेंमों’ को पनाह देनेवाले, ‘मिस्टर बेक’ के लेखों और विचारों को अपने नाम से कई वर्षों तक प्रकाशित करने वाले सर सैय्यद अहमद खाँ ने मुसलमानों में वर्ण व्यवस्था कायम कर देने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के स्वरूप और उससे निकल कर आने वाले को देखने से ही पता चल जाता है कि भारत के किसी गरीब और कथित ‘नीच कौम’ खानदान के किसी छात्र को इस विश्वविद्यालय ने इज्जत की जिंदगी बसर करने लायक नहीं बनाया। चंद नवाबों की आला औलादों से पनपने वाले घरानों के बिगड़े फरजंद यहाँ पढ़ने जाते थे। उनके लिए पंद्रहबीस साल वहाँ रहना आम बात थी। उनके लिए सस्ता, लेकिन स्तरीय खाना और स्तरीय हॉस्टल रिजर्व रहता था और उकता जाने पर किसी इंजीनियरिंग की डिग्री उन्हें थमा दी जाती थी। निश्चित रूप से कुछ अपवाद भी रहे हैं और बड़े नामी-गिरामी लोग भी इसी विश्वविद्यालय से आए हैं। लेकिन इसके अल्पसंख्यक स्वरूप की बहाली के लिए गरीब मुसलमान सड़कों पर खींच-खींच कर मारे गए हैं। इस वर्ग के कितने बच्चे वहाँ पढ़ाए गए? कौन-सी व्यवस्था लागू की गई कि गरीब मुसलमान का बच्चा भी अलीगढ़ में तालीम पा सके? विश्वविद्यालय के कोर्ट के सदस्यों के नाम पते देख लीजिए, नवाबों के खानदानों के सदस्य बेवजह अभी भी नियुक्त किए जाते हैं और यह सब उसी अल्पसंख्यक स्वरूप के कारण यह होता है, जिसके लिए गरीब मुसलमान मारा जाता रहा है।

अलीगढ़ विश्वविद्यालय में वर्षों तक विभागाध्यक्ष रहे आले-अहमद सुरूर उर्दू के विख्यात लेखक हैं। अपनी किताब ‘दानिशवर इकबाल’ में उन्होंने पृष्ठ २० पर लिखा है, ‘सर सैय्यद के असर से पश्चिम की जहनी गुलामी नए जहन में आम हो रही थी, इकबाल ने इससे आजाद होना सिखाया।’ सुरूर साहब आगे लिखते हैं, सर सैय्यद मुसलमानों में तबकाती तफरीक (अशराफ -अलजाफ) के शिद्दत से कायल हैं।’ यकीन नहीं होता कि वर्ण व्यवस्था के इतने कट्टर समर्थक सर सैय्यद ने मुसलमानों में समाज सुधार के लिए अलीगढ़ विश्वविद्यालय की स्थापना की। हाँ, वे मुसलमानों में एक ‘फिरंगी नस्ल’ तैयार

करना चाहते थे, जिसमें वे एक हद तक कामयाब रहे। ‘सर सैय्यद डे’ पर आपको ये मुस्लिम फिरंगी काली शेरवानी में कहीं भी मिल जाएँगे। बताया जाता है कि सर सैय्यद अहमद खां का शजरा दसवें इमाम मोहम्मद नकी की आठवीं पीढ़ी से मिलता था। यानी वे बहुत पवित्र खानदान से थे। लेकिन इसी भारत में ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती थे, जिनका शजरा हजरत इमाम हुसैन की १२वीं पीढ़ी से मिलता था। उन्होंने न कभी अपने नाम में सैय्यद जोड़ा और न उच्च तबके की सुख-समृद्धि के लिए कार्य किया। उन्होंने यहाँ की गरीब जनता की भलाई और भाई चारे के लिए अपने आपको वक्फ कर दिया। पूरी दुनिया से हर मजहब के माननेवाले आज ख्वाजा की दरगाह पर अकीदत से सिर झुकाते हैं आशय सिर्फ़ इतना है कि भारत में मुसलमानों ने हिंदुओं के समानांतर जिस वर्ण व्यवस्था को अपने ऊपर लागू किया, सर सैय्यद ने उसे न सिर्फ़ परवान चढ़ाया, बल्कि ऐसी शैक्षिक व्यवस्था कायम कर दी कि यह नस्ल-दर-नस्ल लोगों के जहन में आसानी से समाती चली जाए।

भारत जैसे देश में, जहाँ सती प्रथा के तहत जवान औरतें जला डाली जाती हों और वर्ण व्यवस्था में आदमी-आदमी का भेद इतना गहरा है कि छुआछूत जैसी अमानवीयता लोगों को स्वीकार्य हो, वहाँ मुसलमानों में ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती जैसे लोगों की जरूरत थी, सर सैय्यद जैसे लोगों की नहीं, क्योंकि इस्लाम धर्म का बुनियादी आधार ही समाज सुधार है। लेकिन मुसलमानों ने यहाँ आ कर समाज सुधार करने के बजाय यहाँ के बेहूदा रस्मों-रिवाज को पूरी तरह से अपना लिया और इस्लाम का एक भारतीय स्वरूप पैदा किया, जिसमें सैय्यद, शेख, पठान नामक जातियाँ पैदा हुई। सभी जानते हैं कि भारत के अधिकतर मुसलमानों के पूर्वज यहाँ के गैर-मुस्लिम थे। धर्म परिवर्तन के समय वर्ण व्यवस्था के अनुसार ही इस्लाम कुबूल किया गया और कतिपय ऊँची जाति के लोग सैय्यद, शेख, पठान बन गए। भारत में जिस तरह का मुस्लिम समाज आज हमारे सामने है, उसमें कोई मुसलमान लगता ही नहीं। यह सब ‘कलमागो आर्य समाजी’ नजर आते हैं।

दरअसल, बुनियादी मामला धर्म-परिवर्तन का है। अवध के पहले नवाब बुरहानुल मुल्क ने शासन सँभालते ही लगभग एक लाख लोगों का धर्म परिवर्तन कराया था या लोगों ने स्वयं सत्ता के प्रभाव या लालच में धर्म परिवर्तन कर लिया था। फ़ैजाबाद के अंसारी घरानों ने नवाब का शिया धर्म तो स्वीकार कर लिया, लेकिन ‘अंसारी’ लिखना नहीं छोड़ा। यही वजह है कि फ़ैजाबाद के पुराने शिया घराने आज भी अपने को अंसारी लिखते हैं। अंग्रेज लेखक डब्ल्यू. होव की किताब ‘मेमोआएर्स ऑफ डेल्ही एंड फ़ैजाबाद’ में इसका जिक्र मिलता है। इसी तरह कश्मीर का मामला है। वहाँ के शिया संप्रदाय के बहुत से लोग अंसारी लिखते हैं। लखनऊ के शिया संप्रदाय के बारे में इतिहास की किताबों में स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि यहाँ का खन्नी समुदाय धर्म परिवर्तित कर शिया बन गया। भोलानाथ खत्री से बने तहसीन अली खाँ का जिक्र कई जगह मिलता है। अब्दुल हलीम शरर की विख्यात पुस्तक ‘गुजिश्ता लखनऊ’ में भी इसका जिक्र मिलता है। आज भी खाँटी किस्म के शिया और कथित सैय्यद घरानों के बेटे-बेटियों की शादियाँ लखनऊ के शियों से नहीं की जातीं, क्योंकि इन्हें असली शिया या सैय्यद नहीं माना जाता। इसी तरह का मामला कथित पठानों या ‘खाँ’ लिखनेवालों का है। पुराने गजेटिर्य और विशेष रूप से एच.आर. नेविल के गजेटियर्स पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि १२वीं-१३वीं शताब्दी में अवध पर मुस्लिम शासकों के हमले के समय इस क्षेत्र के भर व पासी समुदाय के लोगों ने, जो बहुत लड़ाकू थे, इस्लाम धर्म स्वीकार किया तो झोझे कहलाए। धीरे-धीरे अपनी लड़ाकू प्रवृत्ति को पठानों से जोड़ते हुए, क्योंकि अब वे मुसलमान बन चुके थे, पठान कहलाने लगे और खाँ या खान लिखने लगे, जो वास्तव में बहादुरी का खिताब था। इतिहास की किताबें साबित करती हैं कि भारत के मुसलमान हिंदुओं की वर्ण व्यवस्था के तहत एक नई मुस्लिम वर्ण व्यवस्था प्रस्थापित कर चुके हैं। इसका सबसे जीता-जागता उदाहरण मेवात है, जहाँ इस्लाम धर्म तो स्वीकार किया गया, लेकिन हिंदू वर्ण व्यवस्था की एक-एक प्रथा के साथ। इटावा में एक पूरा मुहल्ला है जिसका नाम ही मेवाती टोला है। इसमें रहने वाले मुसलमानों का रहन-सहन और शादी के समय होने वाली रस्मों को देखने से कोई अंदाजा नहीं लगा सकता कि यह शादी मुसलमान की है। मेवातियों ने बाकायदा हिंदू वर्ण व्यवस्था को अभी भी अपना रखा है। इसी तरह का मामला राजस्थान का है, जहाँ के मुसलमानों को मुसलमान ही मुसलमान मानने को तैयार नहीं होते।

दरअसल, यह सब उसी सर सैय्यद प्रभाव के कारण है कि मुसलमान वह होता है जो देखने में जरा नफीस हो, खूबसूरत जबान बोलता हो, उसे उठने-बैठने के महफिली आदाब आते हों, वह हर बड़ी महफिल में अपनी अलग पहचान रखता हो, अंग्रेजी-उर्दू में दक्ष हो, अपने मजहब की मनमाफिक व्याख्या कर सकता हो वगैरह-वगैरह। इसीलिए बिहार के उस मुसलमान वर्ग ने जो आज सत्ता के बहुत करीब पहुँच चुका है, सबसे पहले इन्हीं सब चीजों से छुटकारा पाया। यही कारण है कि बिहार की उर्दू में वहाँ की भोजपुरी का भाव और अन्य स्थानीय भाषाओं का रंग दिखता है और वहाँ के मुसलमानों का रंग-ढंग अपने आस-पड़ोसी से बिल्कुल जुदा नजर नहीं आता। यही कारण था कि भारत के मुसलमानों के सबसे बड़े वर्ग बुनकर तथा अन्य पिछड़ों को हमेशा उपेक्षित रखा गया और सामाजिक स्तर पर उन्हें सबसे अधिक प्रताड़ित किया गया। आज उन्हीं सब चीजों को बिहार के मुसलमान ने अपना धर्म बना लिया और प्रत्येक क्षेत्र में सफल हो कर दिखा दिया।

‘जुलाहा’ शब्द मुसलमानों में बहुत हेय और निम्न अर्थ रखता है, बल्कि जलालत का पर्याय बन गया है। साहिर लुधियानवी ने एक नज्म लिखी थी ‘आओ कि कोई ख्वाब बुनें कल के वास्ते.......’ नज्म सुन कर अमृता प्रीतम ने कहा था। ‘जुलाहा’। खुशवंत सिंह

ने अपने उपन्यास ‘ए ट्रेन टू पाकिस्तान’ में बग्गा डाकू की जिस रखैल को दिखाया है, वह ‘जुलाहे की लड़की’ है, उसका कोई नाम नहीं है। गुलजार की एक नज्म है ‘आओ यार जुलाहे’। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रख्यात माक्र्सवादी आलोचक ने गोरखपुर विश्वविद्यालय के एक विभागाध्यक्ष के बारे में मुझसे कहा था कि उन्हें जुलाहा होने की ग्रंथि है, इसलिए वे हर चयन समिति में हमारे उम्मीदवार को खारिज कर देते हैं। इस तरह के सैकड़ों उदाहरण मिल जाएँगे। रोजाना की जिंदगी में ‘जुलाहा’ नामक गाली आम तौर पर सुनने को मिल जाएगी। यह जुलाहा कौम कोई और नहीं, भारत का बुनकर वर्ग है, जिसने पिछले पचास सालों में सबसे ज्यादा तरक्की की है। उद्योग हो या व्यापार या सरकारी नौकरी, इसी वर्ग का प्रतिनिधित्व सबसे ज्यादा मिलेगा। भिवंडी हो या भागलपुर, भदोही हो या मुरादाबाद, बनारस हो या मेरठ, इसी वर्ग ने अपनी कड़ी मेहनत और मशक्कत के बल पर पूरी दुनिया में अपनेपन का जादू जगाया है और आज करोड़ों रुपए का राजस्व भारत को इन्हीं बुनकरों के जरिए प्राप्त होता है और यही वह वर्ग है जिसने अधिक अत्याचार सहा है, क्योंकि ये जहाँ कहीं भी आगे बढ़े हैं, इन्हें दंगों को झेलना पड़ा है। उसके बावजूद इसी वर्ग के बच्चे सबसे ज्यादा तादाद में स्तरीय शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं और सिविल सेवाओं से लेकर छोटी-मोटी नौकरियों में इसी वर्ग के लोग आगे हैं। कथित जुलाहों ने सबसे पहले धार्मिक शिक्षा में अपनी दक्षता साबित की, क्योंकि इसके बगैर सामाजिक स्तर पर उन्हें कोई पूछता भी नहीं। भारत की कोई भी बड़ी धार्मिक-शैक्षिक संस्था ऐसी नहीं है, जहाँ इस वर्ग के लोगों का वर्चस्व न हो या जल्द ही होने की संभावना न हो। कारण स्पष्ट है कि यह हाथ का कारीगर लुटते-पिटते हुए भी लगातार संघर्ष करता रहा और जिंदगी की जद्दोजहद में जीतता रहा, क्योंकि यही वह वर्ग था, जो विभाजन के समय पाकिस्तान नहीं गया था, क्योंकि पाकिस्तान का सपना सँजोने वाले लोग इसे बड़ी गिरी निगाह से देखते थे, क्योंकि पाकिस्तान का सपना चंद पढ़े-लिखे उच्च कुलीन घरानों ने ही देखा था, क्योंकि पाकिस्तान उन खाते-पीते लोगों ने बनाने की ठानी थी, जो भारत में रहकर अपना शाही अस्तित्व अलग कायम नहीं रख सकते थे, क्योंकि भारत में कुल मुस्लिम आबादी का ८० प्रतिशत यही दस्तकार बुनकर था, क्योंकि यह वर्ग जुझारू प्रवृत्ति का था तो कभी न कभी यह वर्ग उन सभी शाही अस्तित्व वालें लोगों के सामने खड़ा हो सकता था जो धर्म, जाति और पेशे के हिसाब से ऊँचे थे, क्योंकि यही वह वर्ग था, जिसने १८५७ में मेरठ में जन आंदोलन खड़ा कर दिया था जिससे स्वतंत्रता आंदोलन की चिनगारी फूटी थी, क्योंकि यही वह वर्ग था जिसने स्वदेशी आंदोलन के समय मलमल बुनने के कारण अपने हाथों के अँगूठे कटवाए थे, क्योंकि यही वह वर्ग था जो मूलत: भारत की जड़ों से गहराई तक जुड़ा था, क्योंकि इस वर्ग के पूर्वज भारत के गरीब लोग थे जो अपने समय में वर्ण व्यवस्था के कारण प्रताड़ित हुए थे, क्योंकि यही वह वर्ग था, जिसका शजरा किसी अरब खानदान से नहीं जा मिलता था। लेकिन जब १९४७ में देश विभाजन के साथ आजाद हआ तो भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री तथा भारत में सभी राज्यों के मुख्यमंत्री ब्राह्मण थे या उच्च जाति के थे और पाकिस्तान में भी सभी प्रांतों के प्रमुख बड़े खानदानों के शजरेवाले लोग थे। और यह सब उसी वर्ण व्यवस्था नामक संविधान की परिणति थी, जिसे इस देश में बड़ी मेहनत से लागू किया गया था।

दरअसल मामला मुसलमानों में न शिया-सुन्नी का है और न बरेलवी-देवबंदी का। मामला सिर्फ़ है तो जात-पात की उँâच-नीच का। इसीलिए देखिए, महाराष्ट्र में उत्तर प्रदेश से गए मुसलमानों ने वहाँ के मुसलमानों का सांस्कृतिक परिष्कार करना चाहा और वहाँ की सामाजिक जिंदगी में ये लोग वर्चस्व प्राप्त कर गए। इसी तरह का मामला पश्चिम बंगाल का है। वहाँ भी बिहार और उत्तर प्रदेश से गए मुस्लिम परिवारों ने सांस्कृतिक व धार्मिक क्षेत्रों में इसी सैय्यदवाद के चलते वर्चस्व बना लिया। बिलकुल ‘ब्राह्मण के शाप’ की तर्ज पर मुसलमानों में ‘सैय्यद की बात’ की बड़ी धाक है। सैय्यद जो कह दे या सैय्यद की बद्दुआ.......... वगैरह जुमले खूब प्रचलित हैं। प्रचारित किया गया है कि सैय्यद आग से जलता नहीं है। इस तरह सैय्यद, शेख, पठान होने के नाम पर अपने आपको पुजवाने का सिलसिला जगह-जगह निकाला गया और इसके लिए सबसे आसान रास्ता निकाला गया सूफियों की मजारों का। बड़े सूफियों के पाक मजारों पर इस तबके ने कब्जा जमा लिया और फिर समय के साथ दूसरे लोग भी सैय्यद बन-बन कर इस फिरके में शामिल होते गए। किछौछा शरीफ और बरेली की दरगाहों के बीच चल रहे शीत युद्ध के पीछे भी यही सैय्यदवाद है। किछौछा शरीफ के लोग सैय्यद होने का दावा करते हैं, इसीलिए उनका कहना है कि बरेलवी मसलक का मुख्यालय किछौछा शरीफ होना चाहिए, जबकि बरेली के लोगों का कहना है कि जब उनके आला हजरत का मजार यहाँ है तो वे वहाँ कैसे सब कुछ स्थानांतरित कर दें।देवबंद और नदवा के बीच आपसी सौहार्द न होने का कारण भी यही सैय्यदवाद है, क्योंकि नदवा शुद्ध किस्म के सय्यदों के हाथों में है, जबकि देवबंद में अब सिर्फ़ सैय्यद नहीं हैं और वहाँ छात्रों में बहुसंख्यक गरीब तबके के हैं। सबसे दिलचस्प यह कि शिया कहते हैं कि कोई भी सुन्नी सैय्यद हो ही नहीं सकता, क्योंकि सैय्यद वही होते हैं जो हजरत फातमा और हजरत अली के वंशज हों और उनके वंशज शियों के अनुसार शिया ही थे।

मौलाना अशरफ अली थानवी की मशहूर धार्मिक पुस्तक ‘बहिश्ती जेवर’ का मुसलमानों में अभी भी प्रचलन है। इसमें साफ-साफ लिखा है कि रजीलों के साथ कैसा बरताव किया जाना चाहिए, औरतों को किस तरह अपने पतियों की सेवा करनी चाहिए और कमीने लोगों को किस हद तक सजा दी जानी चाहिए। यह कमीने और रजील कोई और नहीं, अजलाफ की श्रेणी में आने वाले शूद्र मुसलमान ही हैं। उनके घर किस दिशा में हों, यह भी लिखा है। यानी बिलकुल वही ब्राह्मणवाद मुसलमानों में है, जो भारत में वर्षों तक स्थापित रहा। पाकिस्तान में आज भी यही समाजी तफरीक मुहाजिर और गैरमुहाजिर के रूप में नजर आती है। मुहाजिरों में कुछ बड़े खानदानों को छोड़ कर अपना घर-बार लुटवा कर जानेवालों में गरीब भी थे। शुरू में उन्होंने अपने साथ होनेवाले अमानवीय सामंती अत्याचार को सहा, क्योंकि वहाँ के बाद वे जाते कहाँ, लेकिन नई नस्ल ने वह सब बर्दाश्त नहीं किया। मुहाजिर आंदोलन शुरू होने का एक कारण यह भी है। मुस्लिम समाज में इसी तरह के विराधाभास रहे हैं। पाकिस्तान चूँकि घोषित इस्लामी राज्य है और वहाँ कई किस्म की शरई पाबंदियाँ हैं, इसलिए वहाँ के सामंतवाद और जात-पांत की ऊँच-नीच के अत्याचार गैरमुहाजिर या मुहाजिर के रूप में सामने आए। भारत में समानांतर वर्ण व्यवस्था थी और यहाँ लोकतंत्र था, इसलिए यहाँ जात-पाँत को बढ़ाने का अवसर ज्यादा मिला। इसीलिए पाकिस्तान में अब जातिसूचक शब्द सुनने को नहीं मिलते जैसे पहले सुनने को मिलते थे या भारत में अभी भी राष्ट्रीय स्तर पर सुनने को मिलते हैं, जैसे सैय्यद शहाबुद्दीन, आरिफ मोहम्मद खां, खुर्शीद आलम खां, आमिर खां, सलमान खाँ, जियाउर्रहमान अंसारी, सईद नकवी, सैय्यद अब्दुल्ला बुखारी वगैरह-वगैरह। भारत के अलावा दुनिया के किसी मुस्लिम के नाम के पहले सैय्यद नहीं लिखा मिलेगा। यह बीमारी भारत में ही खूब फूली फली है।

१२ अगस्त, १९९७ को लखनऊ में पिछड़े मुसलमानों का पहला बाकायदा सम्मेलन हुआ और इसमें मुख्य अतिथि आए यूसुफ खाँ यानी दिलीप कुमार। इस मुस्लिम ओ.बी.सी. सम्मेलन में पहली बार लखनऊ में लोगों ने देखा कि किस तरह छोटी-छोटी मुस्लिम बिरादरियों ने अपने बैनर बनवा रखे थे। जैसे मुस्लिम नाई बिरादरी, मुस्लिम भिश्ती (सक्का), मुस्लिम लोहार यानी सैफी, मुस्लिम वुँâजड़े यानी सब्जीफरोश, मुस्लिम कसाई, लालबेगी, संगतराश.......। और भी न जाने कौन-कौन-सी छोटी-छोटी बिरादरियों के समूह यहाँ आए थे। कैसे इन्कार किया जाए कि मुसलमानों में जात-पांत नहीं है। सारा सामाजिक ढाँचा इसी बुनियाद पर खड़ा है। इसी सम्मेलन में दिलीप कुमार ने बताया कि उनके पूर्वज फल-सब्जीफरोश थे। तो क्या इसका मतलब यह नहीं कि वे वुँâजड़े थे? लेकिन यूसुफ साहब अपने को ‘खाँ’ लिखते हैं।

भारत में जिस तरह की पेशेगत व्यवस्था लागू है, उसके हिसाब से पैंगबर हजरत नूह लकड़ी काटते थे तो बढ़ई हुए। हजरत अय्यूब अंसारी कपड़ा बुनते थे, तो जुलाहे हुए। हजरत दाऊद लोहे का काम करते थे, तो लोहार हुए। हजरत इब्राहीम के बाप पत्थर तराशते थे, तो वे संगतराश हुए। हजरत उमर फारूक की एक बहू एक दूधवाले की बेटी थीं, तो वह गद्दी हुर्इं। हजरत मुहम्मद साहब भेड़ें चराते थे तो चारवाहे हुए और स्वयं अपने जूते टाँकते थे तो.... तौबा...तौबा।