मुसाफ़िर / विक्रम शेखावत
ट्रेन से उतरते ही विजय को एक भिखारी औरत ने कोहनी से धक्का दिया, और फिर उसके पीछे पीछे मजदूर से दिखने वाले एक शख्स ने धक्का देने वाली भिखारी औरत को ज़ोर से धक्का मारा जिस से वो मुँह के बल गिरी। विजय उस शख्स को कुछ कह पाता उस से पहले ही वह विजय का सामान उठाते हुये बोल पड़ा,”कहाँ जाना है साहब? बस अड्डे या धर्मशाला? आइये तांगा बाहर खड़ा है”
स्टेशन पर ज्यादा भीड़ नहीं थी, उतरने वाले मुसाफिरों मे विजय और इक्का दुक्का पैसेंजर ही थे। यहाँ दिनभर मे दो तीन ट्रेन ही आती थी। सुंदरगढ़ एक पहाड़ी स्टेशन था जहां सिर्फ गर्मियों मे ही सैलानी आते थे इसलिए सर्दियों मे प्राय सन्नाटा ही पसरा रहता था।
“लेकिन तुमने उसे इतने ज़ोर से धक्का क्यों मारा?”, विजय ने मुँह के बल गिरी उस भिखारी औरत की तरफ इशारा करते हुये गुस्से में धक्का देने वाले शख्स से पूछा। विजय ने एक पल उस मैले-कुचेले कपड़े पहने औरत की तरफ देखा और बाद में कुछ सोचते हुये उस शख्स के पीछे पीछे चल पड़ा जो उसका सामान उठाए बाहर की तरफ जा रहा था।
गिरने वाली भिखारी औरत ने अपनी फटी हुई गंदी सी शॉल को संभाला और उन दोनों की तरफ देखते हुये बड़बड़ाने लगी।
विजय पलट पलट कर उस भिखारी औरत की तरफ देखता जा रहा था जो लगातार उसी तरफ देखकर कुछ बड़बड़ाए जा रही थी।
तांगा धर्मशाला के सामने रुक गया, विजय ने तांगे वाले को पैसे देते हुये पूछा,”कौन थी वो भिखारी औरत?”
“अरे साहब वो पगली है, स्टेशन पर हर आने वाली मुसाफिर के ऐसे ही पीछे पड़ी रहती है।”
“हूँ”
विजय ने धर्मशाला मे अपने लिए कमरा लिया और अपना सामान कमरे मे रखकर अंधेरा होने से पहले शहर मे घूमने का इरादा कर धर्मशाला से बाहर आ गया। आज पच्चीस साल के लंबे अंतराल के बाद भी सुंदरगढ़ मे कोई खास तब्दीली नहीं आई थी। सड़के आज भी वैसी ही टूटी-फूटी और बाजार मे सड़क के किनारे वही पहले की तरह सामान बेचने वालों रेहड़ी और ठेले वालों की भीड़। हाँ कुछ बड़ी दुकाने और मॉल जरूर बन गए हैं। विजय टहलता हुआ शोरगुल से दूर एक कॉलेज के सामने जाकर खड़ा हो गया। वर्षों पहले इसी कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई पूरी की। बाहर से देखने पर लगता था कॉलेज मे अंदर की तरफ काफी निर्माण हो चुका है। कॉलेज का गेट भी पहले की अपेक्षा बहुत बड़ा बना दिया। कॉलेज के सामने खाली पड़ी जमीन पे अब काफी दुकाने खुल गई थी। कुछ देर घूमकर विजय धर्मशाला की तरफ चल पड़ा। रास्ते में उस रेस्टोरेस्ट के सामने ठिठक क रुक गया और फिर कुछ सोचकर अंदर चला गया। विजय अपनी उसी जानी पहचानी टेबल की तरफ बढ़ गया जहां कभी मधु के साथ बैठकर हसीं सपने बुने थे। रेस्टोरेन्ट के काउंटर पर पच्चीस छब्बीस साल का एक नौजवान बैठा था। विजय की नजरें काउंटर के आस पास मदन नामक उस शक्स को ढूंढ रही थी जो उन दिनों रेस्टोरेन्ट का मालिक हुआ करता था। उन दिनों मदन की उम्र भी लगभग उस नौजवान जितनी ही रही होगी, यानि उन दिनों विजय और मदन लगभग हमउम्र थे इसलिए विजय की उस से अच्छी जान पहचान थी। विजय, मदन और मधु अक्सर बैठकर बातें करते थे। चाय पीकर काउंटर पर पैसे देते वक्त विजय ने काउंटर के उस तरफ बैठे नौजवान से मदन के बारे मे पूछा।
“यहाँ पहले मदन पारिक जी बैठा करते थे”, विजय ने पूछा।
“जी..., हाँ अंकल वो मेरे पापा है, दोपहर तक वो काउंटर संभालते हैं और उसके बाद में , आप कैसे जानते हैं पापा को? पहले कभी देखा नहीं आपको?”
“हाँ, वो पहले में अक्सर यहाँ आता था, बहुत साल पहले... लगभग पच्चीस साल पहले की बात है..“
“ओहो.... बहुत लंबा अरसा हो गया अंकल फिर तो आपको पापा से मिले, अब आप एक दूसरे को पहचान भी पाओगे?”, नौजवान ने हँसकर पूछा।
“सायद”, विजय ने मुस्करा कर कहा और फिर कभी आने का वादा कर धर्मशाला की तरफ चल दिया।
विजय रातभर मधु के बारे मे सोचता रहा। पच्चीस साल पहले का वो दृश्य उसकी आंखो के सामने किसी चलचित्र की भांति तैरने लगा। उस वक़्त ज़ुदा होने से पहले मधु उस से लिपट कर बहुत रोई थी। उसने ये कहकर मधु को सांत्वना दी की वो आगे की पढ़ाई के लिए भी यहीं दाखिला लेगा और दो महीने के भीतर ही वापिस आयेगा। मधु उसे विदा करने स्टेशन पर साथ आई थी। उस दिन मधु का खिला खिला चेहरा बिलकुल बुझ-सा गया था। गाड़ी छूटने के साथ ही मधु की आँखों से अश्रुधारा बह निकली। विजय का हाथ थामे वो कुछ देर ट्रेन के साथ चलती रही, फिर ट्रेन के रफ्तार पकड़ने पर विजय ने उसके हाथ को चूमा और अपना ख्याल रखने का वादा कर हाथ छुड़ा लिया। मधु का हाथ अब भी हवा मे था, वो देर तक ट्रेन के दरवाजे पर खड़ी विजय को निहारती रही जो खुद भी अपने आँसू पोंछ रहा था और मधु की तरफ हाथ हिला रहा था। वक़्त के क्रूर चेहरे पर क्रूरता और गहरा गई थी।
विजय उसके बाद फिर पलटकर अपने उन पनपते ख्वाबों को पूरा करने फिर ना आ सका। पारिवारिक कारणों से उसने अपने ख्वाब वक़्त के हाथों तबाह होने के लिए छोड़ दिये। मगर इतने लंबे अरसे बाद भी विजय उस बिछोह का दर्द भुला नहीं पाया था और आज उस दर्द से निजात पाने फिर से वहीं आ गया था जहां से ज़िंदगी के मायने उसके लिए बदल गये थे।
अगले चार से पाँच दिन मधु के मिलने की सभी संभावित जगहों को छान मारा मगर कोई सफलता नहीं मिली। मधु से मिलकर वो अपने किए की माफी मांगना चाहता था। मधु का परिवार अब उस घर मे नहीं था जहां वो उन दिनों रहते थे। मधु के मिलने की उम्मीद तो उसे पहले भी कम ही थी। वो जानता था की इतने दिनों तक भला कैसे कोई किसी के इंतज़ार मे बैठा रह सकता था। मगर उसका दिल ना जाने क्यों मधु के मिलने की आस पाले बैठा था। आखिरकार थक हारकर विजय ने वापिस गाँव जाने का इरादा किया और वापिस जाने से पहले एक बार मदन से मिलने का निश्चय किया।
दूसरे दिन सुबह वापिस अपने गाँव चलने की तैयारी में अपना सूटकेस उठाया और स्टेशन की तरफ चल पड़ा। रास्ते मे मदन के रेस्टोरेन्ट मे पहुँच मदन के बारे मे पूछा तो उसके बेटे ने कहा,”अंकल पापा आज नहीं आए। रविवार को में ही पूरा दिन रेस्टोरेन्ट संभालता हूँ। आप कल इसी वक़्त आइये उस वक़्त पापा आपको जरूर मिलेंगे।”
“ओहो... नहीं, कल तो में नहीं आ पाऊँगा, में आज वापिस जा रहा हूँ, एक काम करो बेटे, मुझे अपने पापा का मोबाइल नंबर दो में उनसे फुर्सत मे बात कर लूँगा।”, मदन के बेटे से मदन के मोबाइल नंबर लेकर विजय स्टेशन की तरफ चल पड़ा। रास्ते भर वो सोचता रहा की काश उन दिनों मे भी मोबाइल होता तो आज मे मधु को यूँ न खोता।
स्टेशन पर पहुँचने के बाद उस स्थान को देखकर ठिठक गया जहां मधु उस से बिछुड़ गई थी। वो आस पास देखकर उस जगह का सही अंदाजा लगाने लगा। स्टेशन पहले की अपेक्षा काफी बड़ा बना दिया गया था। तभी ट्रेन ने प्लेटफार्म पर आने का संकेत दिया तो विजय ने चौंककर उस तरफ देखा और अपना सूटकेस संभाले फिर से उस शहर से विदा लेने भारी कदमों से ट्रेन की तरफ बढ़ गया। कुछ देर बाद ट्रेन पटरियों पर रेंगने लगी। विजय ट्रेन के दरवाजे पे आकर खड़ा हो गया और पीछे छूटते प्लेटफार्म को देखकर बरसों पहले जुदाई के उस मज़र को याद कर फफक कर रो पड़ा।
गाँव पहुँच एक दिन विजय को मदन की याद आई तो उसने बात करने लिए उसका नंबर डायल किया। दूसरी तरफ से आवाज आने पर विजय ने पूछा।
“क्या में मदन पारिक जी से बात कर सकता हूँ?”
“जी, हाँ बोलिए, में ही मदन पारिक हूँ”, दूसरी तरफ से आवाज आई।
“मदन !, में... . में विजय... विजय राज़दान... .. पहचाना?” दूसरी तरफ से कोई उत्तर नहीं मिलने पर विजय ने दुबारा कहा।
“मैं विजय राज़दान... आज से करीब पच्चीस साल पहले आपके रेस्टोरेन्ट मे था... . मधु और में अक्सर आपके रेस्टोरेन्ट मे आते थे,आप मैं और मधु तीनों अक्सर बैठकर बातें करते थे।”
“हाँ... हाँ... विजय .. अरे ! तुम कहाँ हो, कहाँ गायब हो गए थे, और मेरा नंबर कैसे मिला तुम्हें?”
“में तुम्हारे रेस्टोरेन्ट मे गया था, तुम से मुलाक़ात तो हो नहीं पाई तुम्हारे बेटे से तुम्हारा नंबर लिया, और कैसे हो यार? बहुत साल हो गए मिले हुये।”, विजय ने खुश होते हुये पूछा।
“हाँ में ठीक हूँ, लेकिन तुम कहाँ गायब हो गए थे? आए क्यों नहीं?, मधु की खबर मिली?”
“मेरे वहाँ वापिस ना आने का कारण तो मुझे खुद भी नहीं पता... . की में क्यों नहीं वहाँ वापिस जा सका, मधु को बहुत ढूंढा, उस से माफी मांगना चाहता था मगर कोई नामोनिशान नहीं मिला उसका। क्या तुम्हें उसकी कोई खबर है?“, विजय ने मायूसी के साथ पूछा।
“हाँ, तुम्हारे जाने के कुछ साल बाद तक वो तुम्हारे बारे मे पूछने आती थी। मगर पिछले बीस सालों से तो वो... ...”, कहते कहते दूसरी तरफ से मदन ने बात बीच मे ही छोड़ दी।
“क्या... क्या पिछले बीस साल से... कहाँ है वो, उसने शादी कर अपने घर तो बसाया लिया होगा ना ….. खुश तो है ना वो.... अपने पति और बच्चो के साथ....? हमारा मिलन तो सायद हम दोनों की किस्मत मे नहीं था”, कहते कहते विजय की आवाज भर्रा गई।
“नहीं विजय... कैसी शादी कैसा घर... .वो तो पिछले बीस सालों से तुम्हारे आने की राह में पागल होकर स्टेशन पे भिखारी सा जीवन जी रही है।“