मुसीबत की हार / दिविक रमेश

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पात्र

नन्ही बच्ची

माँ

फूल दादा (बड़ा फूल)

नदी (साड़ी में एक प्रौढ़ स्त्री)

संगीत दादी (एक खूबसूरत-सौम्य युवती) आवाज और भाषा की देवी

औरतें (गाँव की वेश-भूषा में)

दृश्य - एक

(जंगल के पास बसा एक छोटा - सा गाँव। रात। एक घर। घर के अंदर माँ और नन्हीं बच्ची। सोने का समय। चारपायी पर माँ और नन्हीं बच्ची। माँ कहानी सुनाने की मुद्रा में। )

माँ : तो यह थी बहादुर चिड़िया और साहसी चींटे की कहानी।

बच्ची : बड़ी मजेदार कहानी थी। पर माँ मजेदार कहानी इतनी जल्दी खत्म क्यों हो जाती है?

माँ : अरे! इतनी तो लंबी कहानी थी।

बच्ची : (मचल कर) हूँ... बस थोड़ी सी ही तो लंबी थी। पर माँ चिड़िया और चींटा कितने छोटे थे पर कितने बहादुर और साहसी निकले।

माँ : यही तो। उन पर मुसीबत आई लेकिन वे निराश होकर नहीं बैठ गए।

बच्ची : हाँ माँ मैं भी चिड़िया और चींटे जैसी बहादुर और साहसी बनूँगी।

माँ : यह तो बहुत अच्छी बात है। तुमने तो कहानी को कितनी अच्छी तरह से समझ लिया! अब तुम सो जाओ नहीं तो सुबह जल्दी नहीं उठ पाओगी!

बच्ची : (माँ की नकल उतारते हुए) 'और देर तक सोती रही तो तेरी सेहत खराब हो जाएगी।' यही न?

माँ : (हँसते हुए) शरारती कहीं की। चल सो जा अब।

(सो जाते हैं।)

दृश्य - दो

(सुबह का समय।)

बच्ची : माँ, माँ आज मैं भी आपके साथ चलूँगी।

माँ : फिर वही जिद्द। कितनी बार समझाया है कि वहाँ जंगल में कई जानवर होते हैं। काँटे होते हैं। चोट लग सकती है। और हम सब औरतें तो काम में लग जाएँगी तुम्हारा ध्यान कौन रखेगा। कोई बच्चा साथ नहीं जाता।

बच्ची : नहीं माँ मैं आप सब के साथ-साथ ही रहूँगी। अपना ध्यान रखूँगी। मुझे ले चलो न अपने साथ। आज तो स्कूल से छुट्टी भी है। मैं तो आपकी प्यारू बेटी हूँ न? और बहादुर चिड़िया और साहसी चींटे जैसी!

माँ : अच्छा बाबा। सिर्फ आज ले जाऊँगी।

बच्ची : (खुश होकर) हाँ, हाँ।

माँ : और इधर-उधर बिलकुल मत होना।

बच्ची : एकदम नहीं।

माँ : तो चल।

दृश्य - तीन

(दिन। जंगल। बड़े - बड़े पेड़। झाड़ियाँ। एक ओर रंग - बिरंगे फूल खिले हैं। औरतें पेड़ों - झाड़ियों के पास काम में लगी हैं। नन्हीं बच्ची वहाँ का दृश्य देखकर चकित है। फूलों के पास जाती है। एक - एक फूल देख रही है। उनमें खो गई है। देखते - देखते दूर निकल जाती है।)

बच्ची : ओह कितने सुंदर फूल हैं। कितनी अच्छी महक है। (खुशी से नाचती है)। कितनी सुंदर जगह है! (दूसरे फूल की ओर देखकर) उस फूल के पास चलती हूँ। (पास पहुँचकर) कितनी कोमल हैं इसकी पंखुरियाँ। क्यों न आँख मूँदकर यहीं लेट जाऊँ।

दृश्य - चार

(बच्ची आँख मूँदकर फूलों के बीच लेटी है। अच्छी - अच्छी महक से उसे नींद आ गई है। माँ और औरतें काम करते - करते दूर निकल जाती हैं। अचानक बच्ची की नींद खुलती है तो शाम हो चुकी है। वह घबरा कर इधर - उधर देखती है। दौड़ती है लेकिन कोई भी औरत या माँ नहीं दिखती। रुआँसी हो जाती है। )

बच्ची : (जोर से आवाज लगाते हुए) माँ, ओ माँ! ( कोई जवाब नहीं आता) (खुद से) अरे शाम हो गई है। यहाँ तो कोई भी नहीं है। माँ और औरतें कहाँ चली गईं! (जोर से) माँ, ओ माँ! कहाँ हो आप सब। मैं यहाँ अकेली रह गई हूँ। मुझे डर लग रहा है। मैं तो अपने घर का पता भी नहीं जानती। माँ, ओ माँ! मुझे आपकी बहुत याद आ रही है।

(कुछ देर उदास बैठी रहती है। अचानक साहस का भाव उभरता है। खड़ी हो जाती है। )

बच्ची : अरे मैं तो बहादुर और साहसी हूँ। माँ वाली कहानी की चिड़िया और चींटे की तरह। मैं तो निराश ही हो गई थी। मुझे डरना नहीं चाहिए। फूल दादा से ही पूछती हूँ। (बड़े से फूल के पास जाकर) फूल दादा, ओ फूल दादा!

फूल दादा : (आँखें मलते हुए जैसे सोते से जागा हो) कौन? मैं तो सो ही चला था। कौन हो तुम?

बच्ची : मैं हूँ फूल दादा। नन्हीं बच्ची!

फूल दादा : अरे तू? तू इस वक्त यहाँ क्या कर रही है? वह भी अकेली! यह तो घर पर रहने का समय है। तू तो सचमुच बहुत छोटी है! तू यहाँ क्या करने आई थी?

बच्ची : (सुबकते हुए) माँ ने समझाया था

पर कहाँ मानी थी

जिद मैंने ठानी थी

आकर यहाँ भी

बात नहीं मानी थी।

दूर-दूर निकल गई

की मनमानी थी

रह गई अकेली हूँ

बता न दो फूल दादा

मेरे घर का पता?

फूल दादा : हूँ। नन्हीं बच्ची मैं तो सदा यहीं रहता हूँ। कहीं आता जाता नहीं। फिर कैसे बताऊँ तुम्हें तुम्हारे घर का पता!

बच्ची : पर माँ और औरतें तो यहाँ हमेशा आती रहती हैं।

फूल दादा : हाँ आती तो हैं। कभी-कभी मेरे पास से भी गुजरी हैं। (एक दिशा में हाथ करते हुए) शायद उधर से आती हैं - काम काज वाला गीत गाती हुईं! उन्हें देखकर मन खुश हो जाता है। फिर वे चली जाती हैं। दोबारा आने के लिए।

बच्ची : (लाचार) तो अब मैं क्या करूँ फूल दादा?

फूल दादा : तुम जाओ नदी के पास। वह दूर-दूर तक बहती है। शायद वह जानती हो तुम्हारे घर का पता। पक्षियों से सुना है (संकेत करते हुए) उस ओर ही तो है प्यारी-सी नदी।

बच्ची : अच्छा चलती हूँ नदिया के पास।

फूल दादा : हाँ यही ठीक रहेगा। जरा अपनी नाक तो इधर लाना। (हँसते हुए) सबसे अच्छी वाली सुगंध तो भर दूँ तुम्हारी नाक में।

बच्ची : धन्यवाद फूल दादा। सचमुच बहुत अच्छी खुशबू है।

(नन्ही बच्ची चल पड़ती है। फूल दादा जमहाई लेते हुए देखते रहते हैं। )


दृश्य - पाँच

(थोड़ा अँधेरा। नदिया का किनारा। हर ओर शांति। बस बहने की कलकल आवाज। बच्ची थोड़ी परेशान। )

बच्ची : नदिया चाची, ओ नदिया चाची सो गई क्या?

नदी : कौन? अरे तुम! इतनी नन्हीं बच्ची! इस समय यहाँ। अकेली?

बच्ची :

हाँ नदिया चाची

माँ ने समझाया था

पर कहाँ मानी थी

जिद मैंने ठानी थी

आकर यहाँ भी

बात नहीं मानी थी।

दूर-दूर निकल गई

की मनमानी थी

रह गई अकेली हूँ

फूल दादा ने भेजा है

बता दो न नदिया चाची

मेरे घर का पता!

नदी : (गंभीर लेकिन प्यार से) दूर-दूर तक जाती तो जरूर हूँ नन्हीं बच्ची लेकिन अपनी ही मस्ती में बहते रहने के कारण इधर-उधर कभी ध्यान नहीं गया। काम काज का गीत गाती हुई जब औरतें मेरे पास से गुजरती हैं तो बहुत अच्छा लगता है। बस!

बच्ची : क्या आप उनसे बात नहीं करती नदिया चाची?

नदी : बात तो नहीं करती। पर कभी-कभी मैं भी पहाड़ से बिछुड़ने वाला या समुद्र से मिलनेवाला गीत जरूर गाने लगती हूँ। चाहती हूँ वे मेरा मीठा-मीठा पानी पीएँ। मुझमें नहाएँ, खेलें। मुझ में नाचें, तैरें। कभी-कभी तो अपने (हाथों को लहराते हुए ) लहरों के हाथों से उन्हें बुलाती ही रह जाती हूँ।

बच्ची : (उदास होकर) अब मैं क्या करूँ नदिया चाची?

नदी : मैं तुम्हें संगीत दादी का पता बता सकती हूँ। सब उन्हें आवाज और भाषा की देवी मानते हैं। शायद वे तुम्हारी कुछ मदद कर सकें। सुना है वे बच्चों को तो बहुत प्यार करती हैं। पहाड़ी के एक चाँदनी भरे घर में रहती हैं। उधर... थोड़ी दूर पर।

बच्ची : अच्छा चलती हूँ। जाकर उन्हीं से पूछती हूँ।

नदी : ठीक है।

(बच्ची चल पड़ती है )

नदी : अरी ठहर तो! चाची के पास से खाली हाथ जाएगी क्या? ले थोड़ी ठंडी लहर छुवाती हूँ तेरे गाल पर! (छुआ देती है) ठंडक मिली न? अब तुझे नींद भी नहीं सताएगी!

बच्ची : धन्यवाद चाची। चलती हूँ।

(बच्ची चल पड़ती है। नदी प्यार से देखती रहती है )

दृश्य - छह

(पहाड़ी। रात। लेकिन सब ओर खूब चाँदनी। हर चीज सफेद। सुंदर - सा घर। ह ल्का ह ल्का मधुर संगीत। घर के दरवाजे खुले हैं। नन्हीं बच्ची दरवाजे की ओर चल पड़ती है )

बच्ची : (मन ही मन सोचते हुए) कितना सुंदर है सब कुछ। कितना सुंदर और साफ घर है। सारी थकान मिट गई। पर संगीत दादी कहाँ होगी?

(बच्ची अंदर प्रवेश करती है। संगीत दादी आँखें मूदकर बैठी हैं - वीणा बजाते हुए। बच्ची चुपचाप वहाँ बैठ जाती है। संगीत दादी आँखें खोलती है।)

संगीत दादी : (मधुर आवाज में) अरे तुम कब आई बेटी? तुम्हें क्या चाहिए?

बच्ची : संगीत दादी मैं जंगल में भटक गई हूँ।

संगीत दादी : भटक गई हो! कैसे?

बच्ची : (धीरे-धीरे)

माँ ने समझाया था

पर कहाँ मानी थी

जिद मैंने ठानी थी

आकर यहाँ भी

बात नहीं मानी थी।

दूर-दूर निकल गई

की मनमानी थी

रह गई अकेली हूँ

नदिया चाची ने भेजा है

बता दो न संगीत दादी

मेरे घर का पता!

संगीत दादी : (हँस कर) बस इतनी सी बात है? तुम परेशान मत हो। आज रात तुम मेरे साथ आराम से रहो। मैं तुम्हें मीठी-मीठी लोरी भी सुनाऊँगी। तुम्हारे गले में बहादुर सिपाहियों वाला गीत भी भर दूंगी! सुबह मैं चलूँगी तुम्हें लेकर तुम्हारे घर!

बच्ची : (बहुत ही खुश होकर) सच्ची संगीत दादी?

संगीत दादी : सच्ची!

( दोनों सो जाते हैं )



दृश्य - सात

(सुबह। संगीत दादी ध्यान से कुछ सुनने की कोशिश कर रही है। बच्ची पास ही खड़ी है। )

संगीत दादी : प्यारी बच्ची! उधर से आ रही है तुम्हारे गाँव वालों की आवाज और भाषा।

बच्ची : (आश्चर्य से) पर मुझे तो कुछ भी सुनाई नहीं पड़ रहा।

संगीत दादी : हाँ बेटी! तुम नहीं सुन सकती। आवाज़ें अलग-अलग होती हैं और भाषाएँ भी। उनके अलग-अलग होने को समझने और उनकी पहचान के लिए बहुत पढ़ाई करनी पड़ती है। और फिर यंत्रों से भी काम लेना होता है। बड़ी होकर तुम भी सीख सकती हो! समझी?

बच्ची : यह तो बहुत अच्छी बात है। मजेदार भी। आप बहुत अच्छी हैं संगीत दादी माँ! मैं आपको माँ कह सकती हूँ न?

संगीत दादी : क्यों नहीं? क्यों नहीं? अच्छा मुझे एक बार फिर तुम्हारे गाँव की आवाज और भाषा सुनने दो! (ध्यान लगा कर सुनती है।)

बच्ची : कुछ पता चला संगीत दादी माँ!

संगीत दादी : हाँ, हाँ! चलो उधर चलते हैं। तुम्हें लेकर सब परेशान दीखते हैं।


(दोनों चल पड़ते हैं। बच्ची बहुत ही खुश है )



दृश्य - आठ

(गाँव। बच्ची का घर। माँ और कई औरतें खड़ी हैं। परेशान। तभी संगीत दादी और बच्ची प्रवेश करती हैं। )

माँ : (बच्ची को गले लगाती हुई) तुम कहाँ गुम हो गई थी मेरी बच्ची! हमने कितना ढूँढ़ा तुम्हें! कितनी आवाजें दीं! तुम्हारा कहीं पता नहीं चला! हार कर रोते हुए हमें घर लौटना पड़ा! (चूमती है) (संगीत दादी की ओर देखते हुए ) ये कौन हैं?

बच्ची : (भीगी आँखों से) माँ, संगीत दादी माँ बहुत अच्छी हैं। ये ही तो लाई हैं मुझे तुम्हारे पास! फूल दादा, नदिया चाची और सबसे ज्यादा संगीत दादी माँ मेरी मदद नहीं करती तो मैं खो ही जाती। इन्हें सब आवाज और भाषा की देवी कहते हैं। ये सब आवाजों को समझती और पहचानती हैं। हमारे गाँव की आवाज और भाषा को भी।

माँ : (आँखों में आभार। संगीत दादी की ओर देखते हुए) :

आप बहुत अच्छी हैं। आपने हमारी बच्ची को हम तक पहुँचाया।

औरतें : हाँ हाँ। हम आपकी इस भलाई को कभी नहीं भूलेंगी।

संगीत दादी माँ : (बच्ची की ओर प्यार से देखते हुए) सच पूछो तो खुद नन्हीं बच्ची ने ही अपने को यहाँ तक पहुँचाया है। मुसीबत की घड़ी में यदि ये हिम्मत और बहादुरी से काम न लेकर हार बैठती तो घर कैसे पहुँच पाती? मुसीबत को कैसे हराती?

(माँ सुनकर बहुत खुश हो जाती है। औरतें भी बच्ची को गर्व के भाव से देखती हैं )

बच्ची : माँ मुसीबत की हार तो आपके कारण हुई है। आपने ही तो बहादुर चिड़िया और साहसी चींटे की कहानी सुनाई थी न? बस मुझे वही तो याद आ गई थी। माँ कहानी-कविताएं कितनी अच्छी होती हैं न?

(माँ गदगद )

संगीत दादी माँ : तुमने ठीक कहा बच्ची। हमारे बड़ों को अपने बच्चों को अच्छी-अच्छी बाल रचनाएँ सुनानी चाहिए। और आजकल तो बच्चों के लिए बहुत अच्छी-अच्छी पुस्तकें छपती रहती हैं। पुस्तक मेले भी लगते रहते हैं जहाँ ये पुस्तकें आसानी से मिल जाती हैं। इंटरनेट पर भी जानकारी मिल सकती है। पता नहीं तुम्हारे गाँव में यह सुविधा है कि नहीं। बड़ों और बच्चों को वे पढ़नी चाहिए।

बच्ची : मैं तो ढेर सारी पुस्तकें लाऊँगी।

माँ : हाँ, हाँ। गाँव के स्कूल में तो तू जाती ही है। खूब पढ़ना-लिखना सीख ले। फिर बच्चों की अच्छी-अच्छी पुस्तकें मजे-मजे से पढ़ना! बच्ची: हाँ माँ! पर मैं बड़ी कब हूँगी?

(सब हँसती हैं )

संगीत दादी : बड़ी तो पहले से ही है बच्ची। अब तो तुझे और बड़ा होना है। मेरे पास बहुत सी अच्छी बाल पुस्तकें हैं। पत्रिकाएँ भी हैं। कुछ तुम्हारे पास भेजूँगी। पढ़ोगी न?

बच्ची : (ताली बजाकर) हाँ, हाँ संगीत दादी माँ। मैं तो और बच्चों को भी पढ़ने को दूँगी।

संगीत दादी : अच्छा, तो अब मैं चलती हूँ। (बच्ची की ओर देखते हुए ) बहुत प्यारी हो तुम! और तुम्हारी माँ भी बहुत अच्छी है। (हँसते हुए) पर जैसी मनमानी करके भटक गई थी वैसी तो अब तुम कभी नहीं करोगी न? तुमने अपनी कविता में मान लिया था न कि तुमसे गलती हो गई थी। इसीलिए। अपनी गलती मान लेना बहुत अच्छी बात होती है। तभी आदमी आगे बढ़ता है। क्या थी वह कविता...

बच्ची :

माँ ने समझाया था

पर कहाँ मानी थी

जिद मैंने ठानी थी

आकर यहाँ भी

बात नहीं मानी थी।

दूर-दूर निकल गई

की मनमानी थी

रह गई अकेली हूँ

नदिया चाची ने भेजा है

बता दो न संगीत दादी

मेरे घर का पता!

माँ : अरे वाह! तुम तो कवि भी हो।

औरतें : वाह! वाह! क्या अच्छा गाना है! (बच्ची की ओर देखते हुए ) यह तुमने बनाया है?

बच्ची : हाँ। पर पता नहीं कैसे बन गया!

संगीत दादी : यही तो बात है।

औरतें : हम गाएँ?

माँ : हाँ, हाँ गाओ!

(औरतें गाती हैं )

संगीत दादी : भई वाह! अच्छा तो अब चलती हूँ।

माँ : फिर कब आओगी?

बच्ची : हाँ, हाँ संगीत दादी आपको फिर आना ही होगा।

(संगीत दादी मुस्कुराती है और चल पड़ती है। बच्ची , माँ औरतों की आँखें भीगी आँखों से देखती रह जाती हैं। )