मुस्कुराती आँखों का आँसू / सुषमा गुप्ता
हर साल बदल जाती थी कोर्स की किताबें। पुरानी निकालते थे नई लगाते थे। अलग उत्साह रहता था।
डायरी भी हर साल भर जाती है हर साल नई लगती है। पर ज़िन्दगी के कोर्स में एक समय के बाद कुछ नहीं बदलता। एक गहरी रिक्तता, एक उदासीनता घेर लेती है सवालों के प्रति। इतनी ज़्यादा कि जब सवाल नहीं बदलते तो जवाब देने तक का मन खत्म होता चला जाता है
या कहें कि
कंडीशनिंग के सही जवाब देने का मन खत्म हो जाता है
ज़िंदगी फिर कहती है ...
फेल हो जाओगे
मन कहता है
न, फेल तो नहीं होंगे। मार्जन पर ही सही पास तो हो ही जाएँगे पर हमेशा अब सही-सही भरने का मन नहीं रहा तो 'फिल इन द ब्लैंक्स' में आधे जवाब ग़लत भरेंगे।
कब तक 'सबका सही' 'अपना सही' करते रहेंगे!
कभी तो 'सबका ग़लत' 'अपना सही' भी रहे
कभी तो पन्ने पलटे और अचंभित हों कि
अच्छा इतना समझदार होकर यह सब भी किया है!
और फिर मुस्कुराती आँखों का आँसू दुनिया के हर सवाल का सबसे सही जवाब है।