मूक साथी / सत्या शर्मा 'कीर्ति'

Gadya Kosh से
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आज फिर जब कहा बेटे ने-"माँ अब और फालतू का इमोशन मत दिखलाइए कल से इस घर को तुड़वाकर नए स्टाइल का बनवाऊँगा। अब इस पुराने से घर में मेरा दम घुटता है।"

पर! आज वीणा जी ने कोई प्रतिरोध नहीं किया बस अपनी नम आँखों और काँपते हाथों से घर की दीवारों को यूँ सहलाया जैसे अंतिम बार अपने इस मूक सहभागी के अहसानो का सारा कर्ज उतार देना चाहती हों।

लोगों से अकसर सुना है–'दीवारों के भी कान होते हैं' लेकिन उन्होंने तो इसे खुद के साथ जीते हुए देखा है।

आज भी याद है शादी के प्रथम आगमन पर कोहबर से सनी दीवारें हँस-हँसकर उसका स्वागत कर रही थी और जब उन्होंने हल्दी-अरपन लगे हाथों से अपने गृहप्रवेश की छाप इन दीवारों पर लगाईं थी, तो जैसे इनकी आँखें ख़ुशी से छलक ही पड़ी थी।

बच्चों की छठी, शादी पर जब शुभ स्वस्तिक युक्त आशीर्वाद जब इन दीवारों पर बनाया गया, तो ये यूँ चमक उठी जैसे अपना स्नेह आशीष बच्चों पर लुटा रही हो।

और फिर जीवन का वह कारुणिक क्षण जब जीवन साथी उन्हें अकेला छोड़ चले गए, तब इन्ही दीवारों से लग वह घण्टों फूट-फूटकर रोती थी तब भी लगता था ये उनकी करुण रुदन सुन उनकी वेदना की सहभागी बन मन ही मन रोतें रहती है। फिर इन्हीं दीवारों की गोद में पति की तस्वीर लगा अकसर उन्हें निहारा करती थी। जाने कितनी अकेली सुनसान रातों में उन्होंने अपने बचपन से लेकर आज तक की कितनी ही कही-अनकही, सुख–दु: ख की बातें इन्ही दीवारों को सुनाया है।

इसलिए आज इस घर से जाने के पहले वह अपने हाथों से इसकी आँखे, मुँह और कान सब बन्द कर देना चाहती हैं, ताकि कल जब हथौड़े की चोट इन पर पड़े तो इनकी दुःखद रुदन उन तक न पहुँच सके।