मूरख मिले बलेस्सर, पढ़ा-लिखा गद्दार ना मिले / दयानन्द पाण्डेय
चले गए बालेश्वर
जैसे जाड़ा चुभ रहा है देह में वैसे ही मन में चुभ रहा है आज बालेश्वर का जाना। इस लिए भी कि वह बिलकुल मेरी आंखों के सामने ही आंखें मूंद बैठे। बताऊं कि मैं उनको जीता था, जीता हूं, और शायद जीता रहूंगा।
सोते जागते हम लोगों की बात होती रहती थी। हंसी मजाक होता था। गाना बजाना होता था। वह तो मेरी देह में, मेरे मन में गा ही रहे हैं। जाने कितने लोगों की भावनाओं को उन्होंने स्वर दिया है, तेवर और ताव दिया है। मैं अमूमन सुबह देर तक सोता हूं। फिर आज तो इतवार था। सोया ही था कि बालेश्वर जी के सबसे छोटे बेटे मिथिलेश का फोन आया। आवाज में घबराहट थी। उसने बताया कि पिताजी को अस्पताल लाए हैं। मैंने पूछा कि, ‘हुआ क्या है।’ उसने बताया कि, ‘बोल नहीं पा रहे हैं।’ मैं खुद घबरा गया। अस्पताल जाने के लिए तैयार हो ही रहा था कि तभी उनके दूसरे बेटे अवधेश का भी फोन आ गया। मैंने बताया कि, ‘बस पहुंच रहा हूं।’ जल्दी से पहुंचा भी।
ज्यों उनके पास गया, वह पहचान गए। मैंने हाथ जोड़े और आश्वासन दिया, ‘घबराइए नहीं ठीक हो जाएंगे।’ वह जैसे हमेशा धधा कर मिलते थे, आंखों में चमक आ जाती थी, रोआं-रोआं फड़क उठता था, आज भी हुआ पर लेटे-लेटे। आंखों-आंखों में। वह जैसे हुटुक कर रह गए। निःशब्द हो गए। लेकिन बहुत कुछ कहते हुए। उनकी आंखों में जैसे एक आस थी, जीवन जीने की। उनकी यह तकलीफ मुझ से देखी नहीं गई। और मैं रो पड़ा। उन्हों ने आंखों-आंखों में सांत्वना दी। मुझे लगा अभी जीवन चलेगा।
उन के लड़के ने मुझे इशारा किया कि डॉक्टरों की तरफ ध्यान दें। आनन-फानन में डॉक्टरों की व्यवस्था करवाई। छुट्टी के बावजूद सीनियर डॉक्टर भी आ गए। खून की जांच हुई। शुगर 314 था। लेकिन ई.सी. जी. और बी. पी. ठीक था। अच्छा लगा। लेकिन ज्यादा देर तक ऐसा नहीं रहा। थोड़ी देर बाद फिर खून की जांच हुई। शुगर और बढ़ गया था। दो-तीन डॉक्टर और आ गए। बालेश्वर का नाम ही काफी था। सभी डॉक्टर उन की मिजाजपुर्सी में लग गए। पल्स गुम होने लगी। आक्सीजन लग गया। इंजेक्शन पर इंजेक्शन। फिर ई.सी. जी. हुआ।
पल्स तो गायब हो ही रही थी, दिल भी डराने लगा। सीने पर फिजियोथेरेपी शुरू हो गई। जाने क्या-क्या दवाएं। लेकिन तिबारा जांच में शुगर 650 हो गया। फिर 700 और डॉक्टरों के साथ-साथ हम लोगों के चेहरे भी इस सर्दी में और भी सुन्न होने लगे। सबके चेहरे पर हवाईयां थीं। एक दूसरे को सांत्वना देते हुए। भीड़ बढ़ती जा रही थी। अचानक एक डॉक्टर ने हाथ उपर खड़े कर दिए। और हाथ जोड़ कर बालेश्वर जी को प्रणाम करते हुए वार्ड से बाहर निकल गए। दिन के साढ़े ग्यारह बजे थे। परिजनों का रोना-धोना भी शुरू हो गया। भोजपुरी की आन-मान और शान ने हम सबसे बिदा ले ली। हम सभी अवश थे समय के हाथों। काल का क्रूर पंजा अवधी की धरती पर भोजपुरी का झंडा गाड़ने वाले को, दुनिया भर में भोजपुरी का झंडा फहराने वाले को दबोच चुका था।
कोई ढाई दशक से हमारी और बालेश्वर की दोस्ती थी। हम दोनों एक दूसरे के दोस्त भी थे और दुश्मन भी। ठीक उनके एक गाने में कहें तो, ‘दुश्मन मिले सबेरे लेकिन मतलबी यार न मिले।’ हम दोनों के बीच सचमुच कोई मतलब नहीं था। एक सेतु था जिस पर भोजपुरी की संधि होती थीं। हम दोनों भोजपुरी को जीते थे। अगर कोई स्वार्थ था भी तो सिर्फ भोजपुरी का था। एक समय था कि मैं भी दारूलशफा में रहता था और बालेश्वर भी। तो हम लोगों की सुबह-शाम की मुलाक़ात थीं। मैं सुबह बच्चों को स्कूल छोड़ कर आता तो बालेश्वर की गरम जलेबी खा कर घर लौटता। शाम को दफ्तर से लौटता तो बालेश्वर की संगीत महफिल में बैठ जाता। कलाकारों के साथ उनकी रिहर्सल और बतकही में सारी थकान डूब जाती।
हाल-फिलहाल तो भोजपुरी बाजार में हाहाकार मचाए हुई है। पर एक समय मैंने भोजपुरी की समस्याओं को उकेरने के लिए कि कैसे तो भोजपुरी मरती जा रही है और कि सतही होती जा रही है, उनके स्वर्गीय बालेश्वरजीवन को आधार बना कर एक उपन्यास लिखा था, ‘लोक कवि अब गाते नहीं’, जिसमें उनके जीवन के कुछ स्याह-सफेद प्रसंग भी थे। कुछ ‘शुभचिंतकों’ ने कान भर दिए। मेरे भी और उनके भी। बालेश्वर को कुछ ज्यादा ही ऐतराज हो गया। लेकिन हमारे खिलाफ उन्होंने कभी कुछ कहा नहीं। कोई कुछ कहता भी तो वह कहते, ‘जाने दीजिए दोस्त हैं।’ बावजूद इस सबके हम दोनों के बीच कुछ दिनों तक संवादहीनता जारी रही। एक दिन अचानक वह सुबह-सुबह मेरे घर आ गए। और कहने लगे, ‘माफ करिए पांडेय जी, गलती हो गई। आपने तो हमको अमर कर दिया!’ ठठा कर हंसे और गले मिलने लगे। फिर तो जाने कितने ताने आए, गाने आए पर हम लोग इधर से उधर नहीं हुए।
बालेश्वर वस्तुतः कवि थे। हालांकि वह अपने गाने को लिखना नहीं, बनाना कहते थे। अपने गाए सारे गाने उन्होंने ही लिखे। चाहे वह जिस भी मूड के हों। एक बार मैंने उनसे पूछा भी कि, ‘आप कवि सम्मेलनों में भी क्यों नहीं जाते!’ वह एकदम सपाट बोले, ‘फ्लाप हो जाउंगा।’ और हंस पड़े। मैंने पूछा, ‘अगर आप गायक न होते तो क्या होते!’ वह बोले, ‘कहीं मजूरी करता।’ और जैसे जोड़ा, ‘और जो थोड़ा पढ़ लिख गया होता तो उच्च कोटि का साहित्यकार होता!’ कह कर वह फिर फिस्स से हंस पड़े। दरअसल बालेश्वर को अपने बारे में कोई गुमान था भी नहीं। वह इतने बड़े गायक थे, भोजपुरी की दुनिया उन्हें पूजती थी लेकिन वह अपने को मजूर ही मानते थे। कहते थे, ‘लोग ईंट गारा की मजूरी करते हैं, मैं गाने की मजूरी करता हूं।’ शायद सच भी यही था।
‘तोहरे बरफी ले मीठ मोर लबाही मितवा’ गाते-गाते वह लखनऊ आये थे। अवधी की धरती पर भोजपुरी गाने। बहुत संघर्ष किया, बहुत दुत्कार खाई, अपमान पिए और फिर मान और सम्मान भी चखा कि आज लखनऊ में अवधी नहीं भोजपुरी की बात होने लगी है। वह खुद भी कहते थे कि बताइए, ‘अवधी में जो तुलसी दास, रसखान और जायसी न होते तो अवधी का होता क्या!’
दरअसल भिखारी ठाकुर के बाद अगर भोजपुरी को किसी ने आधारबिंदु दिया, जमीन और बाजार दिया तो वह बालेश्वर ही हैं कोई और नहीं। एक समय था कि बालेश्वर के कैसेटों से बाज़ार अटा पड़ा रहता था। कारण यह था कि वह गायकी को भी साधते थे और बाजार को भी। कैसेट और आरकेस्ट्रा दोनों में उनकी धूम थी। यह अस्सी और नब्बे के दशक की बात है। वह भोजपुरी की सरहदें लांघ कर मुंबई, बंगाल और आसाम, नागालैंड जाने लगे। हालैंड, सूरीनाम, त्रिनिडाड, फिजी, थाईलैंड, मारीशस और जाने कहां-कहां जाने लगे। बालेश्वर के यहां प्रेम भी है, समाज भी और राजनीति भी। यानी कामयाबी का सारा गुन! बालेश्वर कई बार समस्याओं को उठा कर अपने गीतों में जब प्रहार करते हैं और बड़ी सरलता से तो लोग वाह कर बैठते हैं। उनके कहने में जो सादगी होती थी, और गायकी में जो मिठास होती थी, वही लोगों को बांध देती थी।
‘हम कोइलरी चलि जाइब ए ललमुनिया क माई!’ गीत में बेरोजगारी और प्रेम का जो द्वंद्व है, वह अदभुत है। ‘बिकाई ए बाबू बी. ए. पास घोड़ा’ और ‘बाबू क मुंह जैसे फैजाबादी बंडा / दहेज में मांगै लैं हीरोहोंडा’ या फिर ‘जबसे लइकी लोग साइकिल चलावे लगलीं तब से लइकन क रफ्तार कम हो गइल’ जैसे गीत उन्हें न सिर्फ लोकप्रिय बनाते थे, लोगों को मोह लेते थे। ‘नीक लागे टिकुलिया गोरखपुर क’ और ‘मेला बीच बलमा बिलाइल सजनी’ जैसे रिकार्ड जब एच. एम. वी. ने 1979 में जारी किए थे तो बालेश्वर की धूम मच गई थी। फिर तो ‘चुनरी में लागता हवा, बलम बेलबाटम सिया द’ जैसे गीत के साथ वह समय के साथ हो गए थे। वह थे, बाजार था, सफलता थी, शोहरत थी। पर बाद के दिनों में जब लोग हाईटेक हुए, बालेश्वर नहीं हो पाए। वह बाजार से फिसल गए।
यह उनके ज्यादा पढ़े लिखे न होने का दंश था। बाजार को वह लाख साधने की कोशिश करते, बाजार उनसे फिसलता जाता। यश भारती वह पा चुके थे। और इसके जुनून में वह गा चुके थे, ‘शाहजहां ने मोहब्बत की तो ताजमहल बनवा दिया / कांशीराम ने मोहब्बत की तो मायावती को मुख्यमंत्री बनवा दिया!’ राजनीतिक स्थितियां बदल गई थी। इसके लिए उन्हें अपमान भी झेलना पड़ा और सरकारी आयोजनों से बाहर हो गए। फिर भी वह भूले नहीं, ‘दुश्मन मिलै सबेरे लेकिन मतलबी यार न मिले / हिटलरशाही मिले मगर मिली-जुली सरकार न मिले / मरदा एक ही मिलै हिजड़ा कई हजार न मिलै।’ वह तो गा रहे थे, ‘लागता जे फाटि जाई जवानी में झूल्ला’, ‘अंखिया बता रही हैं लूटी कहीं गई है’, ‘अपने त भइल पुजारी ए राजा, हमार कजरा के निहारी ए राजा।’ वह गा रहे थे, ‘आवा चलीं ए धनिया ददरी क मेला’ और कि, ‘फगुनवां में रंग रसे-रसे बरसै /उहो भींजि गइलीं जे निकरै न घर से।’ शादी-ब्याह में जयमाल में अकसर वह एक गीत गाते, ‘केकरे गले में डारूं हार, सिया बउरहिया बनि के।’ तो लोग तो झूम जाते पर दुलहनें अकसर सचमुच भौचक हो जातीं। कि किसके गले में हार डालूं। तो यह देखते ही बनता था।
बालेश्वर के साथ मैं
जैसे कोई नरम और मीठी ऊंख हो। एक गुल्ला छीलिए तो पोर-पोर खुल जाए। कुछ वैसी ही मीठी, नरम और फोफर आवाज बालेश्वर की थी। अपनी गमक, माटी की महक और एक खास ठसक लिए हुए। भोजपुरी गायकी में एक समय शिखर पर आसीन रहे बालेश्वर की गायकी की यात्रा बहुत सुविचारित नहीं थी। उनका कोई गुरू भी नहीं था। एक बार उनसे पूछा था, ‘आप का गुरू कौन है!’ छूटते ही वह बोले थे, ‘कोई गुरू नहीं!’
‘तो सीखा कैसे!’
‘बस गाते-गाते।’
‘और शिष्य।’
‘शिष्य मानता ही नहीं किसी को। फिर भी हमारे गाने बहुत लोग गाते हैं।’
‘फिरकापरस्ती वाली बस्ती बसाई न जाएगी / मंदिर बनी लेकिन मस्जिद गिराई न जाएगी / आडवानी वाली भाषा पढ़ाई न जाएगीं।’ जैसे तल्ख गीत लिखने और गाने वाले बालेश्वर ने गायकी की यात्रा शुरू की नकल कर-कर के। वह कहते थे, ‘गांव में शादी-ब्याह में, रामलीला, नौटंकी में गाना सुन के हम भी गाना शुरू किए।’
‘किन कलाकारों को।’
‘भोजपुरी लोकगायकों को। जैसे वलीवुल्लाह थे, जयश्री यादव थे। हमने न सिर्फ इनकी नकल की, बल्कि कोशिश की कि इनकी टीम में आ जाऊं। पर इन्होंने अपनी टीम में हमें नहीं लिया। लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी। गांव के मंचों पर चंग बजा-बजा कर अकेले ही गाना शुरू किया। पैसे कुछ भी नहीं मिलते थे। खाली वाह-वाही मिलती थी।’ वह बताते थे कि गांव की घटनाओं पर ही गाना बनाते और गाते तो लोग नाराज हो जाते। पिटाई भी हो जाती थी।’ वह जैसे जोड़ते, ‘लेकिन मैंने गाना बनाना और गाना नहीं छोड़ा। पैदाइशी गांव बदनपुर भले छोड़ दिया और चचाईपार में आ कर बस गया।’ 1962 के चुनाव में पूर्व विधायक व स्वतंत्रता सेनानी विष्णु देव गुप्ता ने सोशलिस्ट पार्टी के चुनाव प्रचार के लिए दोहरी घाट भेज दिया। वह वहीं गाने बना-बना कर गाने लगे। कम्युनिस्ट पार्टी के झारखंडे राय की नजर उन पर पड़ गई तो वह अपने साथ घोसी ले गए। अपने चुनाव प्रचार में। झारखंडे राय जब जीत गए तो अपने साथ ही बालेश्वर को भी लखनऊ ले आए। अब लखनउ था और बालेश्वर और उनके भोजपुरी गाने। कोई सुनने को तैयार नहीं। भटकाव सामने था। मिट्टी-गारा की मजदूरी शुरू की। 1965 में आकाशवाणी लखनऊ में गाने का आडिशन दिया। फेल हो गए। लगातार फेल होते गए। परेशानी बढ़ती गई।
सूचना विभाग में एक के. बी. चंद्रा थे। उन्होंने आकाशवाणी का इम्तहान पास करने के गुन बताए। दस साल बाद 1975 में बालेश्वर आकाशवाणी का इम्तहान पास कर गए। आकाशवाणी पर उनकी बुलंद आवाज जब छा गई तो बहुतेरे लोग मौका देने को तैयार हो गए। हरवंश जायसवाल मिले। चार साल तक सरकारी कार्यक्रमों में उनसे गवाया। एच. एम. वी. के मैनेजर जहीर अहमद मिले 1978 में। 1979 में एच. एम. वी. ने बालेश्वर के दो रिकार्ड जारी किए, ‘नीक लागे टिकुलिया गोरखपुर क’ और ‘बलिया बीचे बलमा हेराई सजनी।’ 1982 आते-आते बालेश्वर छा गए। और फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा। बहुत सारे लोग फिल्मी गानों की पैरोडी गाते हैं। लेकिन बालेश्वर ऐसे गायकों में शुमार हैं जिनके गाने की पैरोडी फिल्मों में चलती है। सबसे पहले सुजीत कुमार ने अपनी फिल्मों में उनके गाने लिए। एक नहीं तीन-तीन। और बालेश्वर को क्र्रेडिट भी नहीं दिया। पर बालेश्वर उनसे नाराज नहीं हुए, न उनसे कुछ कहा।
भोजपुरी के ‘विकास’ से ही वह खुश थे। फिर तो उनके बीसियों गाने फिल्मों में चले गए। मैं कभी कुछ टोकता कि, ‘कुछ ऐतराज करिए ना!’ वह कहते, ‘जाने दीजिए। भोजपुरी का विकास हो रहा है, लोग खा कमा रहे हैं।’ कई बार वह बुदबुदाते, ‘समय बड़ा बलवान होता है। कहीं हमसे भी अच्छे-अच्छे गाने वाले पड़े हैं। पर उनको कोई जानता नहीं। हमको तो लोग जान गए हैं।’ वह अपने मकान की पक्की फर्श दिखाते। बोलते, ‘पक्का में रह रहा हूं और का चाहिए!’ और गाने लगते, ‘कजरवा हे धनिया!’ फिर जैसे जोड़ने लगते, ‘नाचे न नचावे केहू, पैसा नचावेला!’ गाने लगते, ‘मोर पिया एम.पी., एम. एल. ए. से बड़का / दिल्ली लखनउवा में ओही क डंका / अरे वोट में बदलि देला वोटर क बक्सा!’ अचानक वह जोश में आते तो ‘रई-रई-रई-रई-रई’ कर गाने लगते, ‘समधिनिया क पेट जैसे इंडिया क गेट.... / समधिनिया क बेलना झूठ बोलेला।’
एक समय उनका एक कैसेट आया था, ‘बलेसरा काहे बिकाला।’ अब कौन बिकेगा और कौन बेचेगा! कौन गायकी के रस का वह नशा, उनकी कहरवा धुन में पगे उनके गीत, उनकी गायकी का वह मिठास, ऊंख जैसी मिठास, वह फोफर आवाज आकाश में धरती पर गांव की मेड़ों पर मद्धिम रोशनी वाले मटियारे घरों में, मेहनतकशों और मजूरों के घरों में कौन गाएगा! फिलहाल तो मैं उनको एक भोजपुरी निर्गुण में ही हेर रहा हूं, ‘सुधि बिसरवले बा पिया निरमोहिया बनि के!’ और ‘तोहरे बरफी ले मीठ मोर लबाही मितवा!’ में जोह रहा हूं। हेरते-जोहते उनको शत-शत प्रणाम कह रहा हूं।
बिरहा भवन से लौट कर : देख नयन भरि आइल सजनी
आज ही बिरहा भवन से लौटा हूं. शोक, कोहरा और धुंध में लिपटा बिरहा भवन छोड़ कर लौटा हूं. शीत में नहाता हुआ. बिरहा भवन मतलब बालेश्वर का घर. जो मऊ ज़िले के गांव चचाईपार में है. कल्पनाथ राय रोड पर. बालेश्वर की बड़ी तमन्ना थी हमें अपने बिरहा भवन ले जाने की. दिखाने की. मैं भी जाना चाहता था. पर अकसर कोई न कोई व्यवधान आ जाता. कार्यक्रम टल जाता.
गोरखपुर में मेरे गांव बैदौली बालेश्वर तीन बार गए थे. सो वह मुझे भी अपना गांव दिखाना-घुमाना चाहते थे. गया भी बिरहा भवन कल. पर इस तरह जाना होगा, यह नहीं जानता था. कल २३ जनवरी को बालेश्वर की तेरहवीं थी. भोजपुरी के इस अमर गायक, अपनी माटी के गायक के घर जैसे पूरा क्षेत्र उमड़ पड़ा था. कहूं कि टूट पड़ा था. सुबह से देर रात तक लोगों के आने-जाने का तांता लगा हुआ था. यह आत्मीय जन समुदाय देख कर लगा कि काश बालेश्वर ने यहीं आंखें मूंदी होतीं. या फिर कम से कम उन की अंत्येष्टि यहीं की गई होती तो शायद लखनऊ में उनको जो उपेक्षा मरने के बाद भोगनी पड़ी, न भोगनी पड़ी होती. लखनऊ में जो थोड़े बहुत लोग आए भी थे ज़्या्दातर औपचारिकता में भींगे हुए थे. पर बिरहा भवन में आत्मीयता में भींगे हुए. ऐसे जैसे कोई दूब ओस में नहाई हुई हो. वैसे भी बालेश्वर लखनऊ में रहते भले थे पर कहते थे, 'जियरा त हमार वोहीं रहला!' भोजपुरी बिरहा गायकी में ठेके के तौर पर साथी कलाकार जिय !! जिय !! की ललकार जैसे देते हैं वैसे ही.
हालांकि यहां लखनऊ में भी उनकी शवयात्रा में एक सांसद थे, भोजपुरी समाज के लोग थे, मालिनी अवस्थी थीं, विधानसभा अध्यक्ष सुखदेव राजभर खुद पहुंचे थे भैंसाकुंड उन्हें अंतिम विदाई देने. लखनऊ में रह रहे उनके संगी-साथी, कलाकार, हित-मित्र थे. लेकिन एक दिखावा लगातार पाबस्त था, जो चचाईपार के बिरहा भवन में दूर-दूर तक नहीं दिखा, न यह दिखावा करने वाले लोग. उनके साथी कलाकार भी ज़्यादातर नहीं दिखे जो यहां उनके साथ दिन रात नत्थी रहते थे, जिनको यहां उन्होंने बसाया था, उंगुली पकड़ कर गायकी में चलना सिखाया था. हां, उनके हरमुनिया मास्टर हरिचरन दो दिन पहले से बिरहा भवन पहुंचे पड़े थे, गोया कार्यक्रम के पहले रिहर्सल और रियाज़ ज़रूरी था. कि कहां कितना मीटर देना है, कहां तान देनी है, कहां मुरकी, कहां खटका और कहां आलाप या कोरस देना है. और हां जिय! जिय! की ललकार भी. मास्टर बरसों से बालेश्वर की संगत अपनी हारमोनियम के साथ करते रहे थे, उन के साथ दुनिया घूमें. अभी भी उसी भूमिका में थे. हां बिल्कुल नई पौध के कुछ कलाकार भी पहुंचे थे और पूरे मन-जतन के साथ. जैसे संजय यादव, दीपक और अंगद जैसे बच्चे. जिनकी मूंछ की रेख भी साफ़ नहीं आई है. और कि अभी पढाई भी खत्म नहीं हुई है. बालेश्वर जो जीते जी किंवदंती बन चले थे, सभी उन्हीं की बतकही में लगे हुए हैं. बालेश्वर के भतीजे हैं शिवशंकर. गांव ही पर रहते हैं. घर दुआर, खेती-बारी वही संभालते हैं. बता रहे हैं कि, एक बार आए तो लगे यहीं खेत में लोटने. लगे रोने. मैंने पूछा क्या हुआ? तो हमको छाती से लगा लिए. कहने लगे इस माटी का बड़ा कर्जा है, हम पर. हमको कहां से कहां पहुंचा दिया. वह कहीं विदेश से लौट कर आए थे.
याद आता है १० जनवरी को बालेश्वर की शव यात्रा में एक सांसद और भोजपुरी समाज के पदाधिकारी चलते जा रहे थे और बालेश्वर के बारे में जो भी आधी-अधूरी जानकारी थी परोसते जा रहे थे.और जब ज़्यादा हो गया तो बालेश्वर टीम के एक पुराने एनाऊंसर सुरेश शुक्ला अचानक भड़क गए. बिल्कुल चीख कर बोले, 'आप लोग कुछ नहीं जानते! बंद करिए बकवास! सब गलत-सलत बोले जा रहे हैं. सांसद महोदय भकुआ गए. मेरी ओर देखा सशंकित नज़रों से. कि जैसे मैं उनकी बातों की पुष्टि कर दूं. वह लोग शायद शुक्ला जी को भी नहीं जानते थे. मैं चुप रहा. लेकिन जब उन्होंने दुबारा सवालिया नज़र से मेरी तरफ देखा तो मैंने धीरे से कहा, 'शुक्ला जी ठीक कह रहे हैं.' लोग बिखर गए थे. ऐसे ही १६ जनवरी को प्रेस क्लब में आयोजित श्रद्धांजलि सभा में भी बहुत सारे लोग आधी-अधूरी जानकारियों में झूठ-सच मिला कर ताश फेंटते रहे.
यहां तक कि पूर्व मुख्यमंत्री रामनरेश यादव जो कि बालेश्वर के क्षेत्र के ही रहने वाले हैं. बोलते-बोलते रौ में बह गए. कहने लगे कि, 'जब मैं मुख्यमंत्री था तब होली में बालेश्वर अपनी टोली के साथ आते थे हमारे यहां. कदंब के पेड़ के नीचे बैठ कर गाते थे. एक बार हमसे कहने लगे कि मुझे रेडियो में गाने का मौका दिला दीजिए, और मैंने दिलाया.' तो यह भी बहुत लोगों को हजम नहीं हुआ. संयोग से शुक्ला जी नहीं थे. न ही यहां माइक भी था. जाने शुक्लाजी उनकी क्या गति बनाते. तथ्य यह था कि राम नरेश यादव १९७७ में मुख्यमंत्री बने थे और बालेश्वर १९७५ से आकाशवाणी पर न सिर्फ़ गाने लगे थे बल्कि भोजपुरी गायकी में झंडा गाड़ रहे थे. खैर, यहां बिरहा भवन में भी खूब बतकही थी. किसिम-किसिम के किस्से थे बालेश्वर के बाबत. भाऊकता थी, और सहज थी. कोई घाल-मेल नहीं अच्छी-बुरी हर तरह की चाशनी में. पर बिना मिर्च-मसाले के.
उनके मूल गांव बदनपुरा के कृपाशंकर सिंह बचपन के संहतियां है. आठवीं तक साथ पढे है. उनके बारे में एक से एक ब्योरे परोस रहे हैं. उनकी खुराफातें भी बता रहे हैं. और उनका चालूपना भी. बिलकुल मित्र भाव में. बता रहे हैं कि, 'तब बिरहा का दंगल होता था. तो हम लोग बटुर कर लाठी-वाठी ले कर जाते थे. आखिर दोस्त को जितवाना भी होता था. बाद में कुछ भी हो जाता था.' अचानक वह रुकते हैं, कहते हैं, 'एक बार तो गज़ब हो गया. ऐन बिरहा में अपोज़िट पार्टी को गा कर गरिया दिया और भाग चला. हम लोग घिरा गए.' वह जैसे जोड़ते हैं, 'अरे बड़ा चालू था. बाद में कल्पनथवा के चक्कर में आया तो और चालू हो गया.' एक दूसरे साथी जोड़ते हैं,' चालू था तब्बै न एतना आगे बढ गया. नाम कर गया ज़िला जवार का.' यह सही है कि बालेश्वर को सबसे पहले स्वतंत्रता सेनानी और विधायक विष्नुदेव गुप्ता ने पहचाना और अपने चुनाव में सोसलिस्ट पार्टी का मंच दिया. पर जल्दी ही वह झारखंडे राय के साथ जुड़ कर कम्युनिस्ट हो गए. फिर बहुत दिनों तक वह झारखंडे राय के साथ ही जुड़े रहे. बाद में उनके यही साथी रमाशंकर सिंह ने कल्पनाथ राय के बहुत दबाव पर बालेश्वर को उनसे मिलवाया. फिर तो वह कल्पनाथ राय के हो कर रह गए. आगे के दिनों में तो वह सबके लिए गाने लगे. सोनिया गांधी तक के लिए भी्ड़ को बटोरने और उसे बांधे रखने का काम उन्हें सौंपा गया. फिर तो उन्होंने मुलायम-लालू से लगायत लालजी टंडन तक क्या जाने किस-किस के लिए गाया. लोग कहते बालेश्वर का यह पतन है. बालेश्वर कहते पतन नहीं, मजूरी है. जो मजूरी देगा, उसके लिए गाऊंगा. हालांकि सच यह है कि वह अधिसंख्य बार बिना मजूरी लिए भी गाते रहे. संबंधों के निभाव में. कई बार लोगों ने उनकी मजूरी भी मार दी. पर वह उसकी गांती बांध कर नहीं घूमे. चचाईपार के मनोज यादव बता रहे हैं कि अभी हमारे एक दोस्त के घर में शादी थी. ४ जनवरी को. बालेश्वर चाचा ने हमारे एक बार के कहने पर ही लखनऊ से आकर गा दिया.
हम जब लखनऊ से पहुंचे बिरहा भवन तो मनोज यादव अपने घर ज़बरदस्ती हम लोगों को ले गए. नहाने धोने और खाने के लिए. और यही नहीं, चचाईपार का हर घर किवाड़ खोले सबके स्वागत के लिए तैयार था. कि बाहर से जो भी आए उसे कोई असुविधा न हो. हालांकि बालेश्वर खुद बिरहा भवन इतना बड़ा बनवा गए हैं कि एक पूरी बारात क्या दो-दो, तीन-तीन बारात टिक जाए वहां. फिर भी गांव वालों की अपनी भावना थी. बालेश्वर से उनका जुड़ाव था. यह जुड़ाव ही था कि कल्पनाथ राय के बेटे और पत्नी भले ही राजनीतिक रूप से अलग- अलग हों पर अलग- ही सही आए सिद्धार्थ राय भी और सुधा राय भी. और उन की बहू भी. कल्पनाथ राय का गांव सेमरी जमालपुर भी बालेश्वर के गांव से ४ किलोमीटर की दूरी पर है.
लखनऊ वाला दिखावा यहां नहीं था पर ऐसी कोई जमात नहीं थी जो कल बिरहा भवन बालेश्वर को श्रद्धा के फूल चढाने न आई हो. कोई ऐसी पार्टी नहीं थी कि जिसके कार्यकर्ता न आए हों. छोटे-बड़े सभी. इतने लोग, इतनी तरह से आ रहे थे कि क्या बताएं? सारे पूर्व विधायक, वर्तमान विधायक, ज़िला पंचायत सदस्य. अलाने-फलाने. अचानक एक साथ कई-कई गाड़ियां जब रुकतीं तो वहां उपस्थित बच्चों में कौतूहल उपजता. एक लड़का जो टीन एज था, अपने को ज़्यादा चतुर बरतते हुए सबका ब्योरा परोसता जाता. लेकिन जब ज़्यादा हो गया. तो कोई पूछ्ता, 'यह कौन है?' तो वह कहता, ' कोई श्रेष्ठजन हैं !' और लोग हंसने लगते. हमें अचानक कैलाश गौतम की याद आ गई. अब तो वह भी नहीं हैं. पर एक बार इलाहाबाद में उनके बेटे की शादी थी. वह कार्ड देते हुए बोले, 'राजा अइह ज़रूर.' मैं गया भी. बारात में देखा कि कमिशनर से लगायत खोमचा रिक्शा वाला सभी मौजूद थे और सभी एक साथ भोजन करते हुए. यही हाल बालेश्वर के यहां भी था. कैलाश गौतम भी जनता से जुड़े कवि हैं और बालेश्वर भी जनता से जुडे गायक. तो यह साम्य स्वाभाविक ही था.
लखनऊ में १० जनवरी को जब बालेश्वर की अंत्येष्टि हो रही थी तो भैसाकुंड पर खड़े-खड़े कहानीकार शिवमूर्ति जी बोले, 'कोई और लेखक नहीं दिख रहा?' मैंने कहा,' लेखक समाज में रहते कितने हैं?' वह चुप रह गए थे. लेकिन यहां बिरहा भवन में कोई चुप नहीं था. वह चाहे पंडित जी हों चाहे डोम जी, चाहे ठाकुर सहब हों या यादव जी, अमीर हों, गरीब हों, सभी बालेश्वर की बतकही में धंसे पड़े हैं. आकंठ. घर में गांव की औरतें लाइन से बैठी पूड़ी बेल रही हैं. चलन के मुताबिक गा नहीं रही हैं. गांव में चलन है कि कोई भी काम करते हुए औरतें गाना गाती हैं. पर आज शोक में कैसे गाएं? सबकी आंखें नम हैं. बालेश्वर का एक गीत याद आ जाता है. हमरे बलिया बीचे बलमा भुलाइल सजनी! जिसमें आखिर में वह गाते हैं,' लिखके कहें बलेसर, देख नयन भरि आइल सजनी!' सचमुच मेरे भी नयन भर आते हैं . लौट पड़ता हूं बिरहा भवन से. शीत में नहाता हुआ.
बालेश्वर के बिना एक साल
बालेश्वर के बिना यह एक साल बड़ी चुभन के साथ बीता है। दोस्ती तो याद आती ही है। हर सुबह, हर शाम याद आती है। पर इस साल इतनी सारी नई घटनाएं हुईं और हर बार बालेश्वर याद आए। वह चाहे राजा, कलमाडी, कनिमोझी या येदुरप्पा आदि का जेल जाना हो, मंहगाई, भ्रष्टाचार, लोकपाल या अन्ना का मुद्दा हो, या उत्तर प्रदेश में धकाधक बीस मंत्रियों की बर्खास्तगी या इस्तीफ़ा हो। या तमाम और मसले। हर बार बालेश्वर याद आए। इस लिए याद आए कि अगर वह होते तो इन मसलों पर उन के एकाधिक गीत आ गए होते।
व्यवस्था विरोध और बदलाव के जो गाने बालेश्वर ललकार कर गाते थे वह गाने गाना वाला अब कोई नहीं है। ठकुरसुहाती गानों और गोंइयां, सइयां से आगे भोजपुरी गायकी को अगर भिखारी ठाकुर के बाद कोई ले गया तो वह बालेश्वर ही थे। वह तो गाते थे कि दुश्मन मिले सबेरे लेकिन मतलबी यार ना मिले और जैसे विसंगति को रेखांकित करते थे, मूरख मिले बलेस्सर, पढ़ा लिखा गद्दार न मिले। अब देखिए न ज्यादातर पढ़े-लिखे लोग ही देश और समाज के साथ गद्दारी करते मिल रहे हैं। पता चला आक्सफ़ोर्ड के पढ़े हैं और करोड़ों-अरबों के भ्रष्टाचार में डूब-उतरा रहे हैं।
बालेश्वर का एक गाना है नाचे न नचावे केहू पइसा नचावे ला। जब यह गाना लिखा था बालेश्वर ने तब नरसिंहा राव प्रधान मंत्री थे। सुखराम का घोटाला सामने आया था और चंद्रास्वामी की राजनीति में गरमाहट थी और घोटालों में भी। तो बालेश्वर गाते थे नाचे न नचावे केहू पइसा नचावे ला और फिर जोड़ते थे कि हमरी न मानो सुखराम जी से पूछ लो! फिर वह चंद्रास्वामी और नरसिंहा राव तक आते थे। बालेश्वर की गायकी दरअसल व्यवस्था के गुब्बारे में पिन चुभोती थी। वह चाहे राजनीतिक व्यवस्था हो चाहे सामाजिक कुरीति। वह हर जगह चोट करते मिलते थे। यह व्यवस्था पर चोट अब भोजपुरी गायकी से नदारद है। इसी लिए बालेश्वर की याद आती है। बालेश्वर का एक गाना है मोर पिया एम पी, एम एल्ले से बड़का, दिल्ली लखनऊआ में वोही क डंका, और जब वह इस में ललकार कर जोडते थे कि अरे वोट में बदलि देला वोटर क बक्सा! मोर पिया एम पी, एम एल्ले से बड़का! तो चुनावी दलालों का चेहरा बरबस सामने आ जाता था। बाबू क मुंह जैसे फ़ैज़ाबादी बंडा, दहेज में मांगेलैं हीरो होंडा या फिर बिकाई ए बाबू बीए पास घोड़ा जैसे गीत भी बालेश्वर के यहां बहुतायत में हैं।
बालेश्वर असल में भोजपुरी गायकी में कबीर की सी साफगोई और बांकपन के लिए ही जाने भी जाते थे। सो वह गाते भी थे, बिगड़ल काम बनि जाई, जोगाड़ चाही! एक समय मंडल कमंडल पर भी वह खूब गाते थे। फ़िरकापरस्ती वाली बस्ती बसाई न जाएगी गाते थे और बताते थे कि हिटलरशाही मिले पर मिली जुली सरकार ना मिले। दलबदलुओं पर तंज करते हुए एक समय वह गाते थे चार गो भतार ले के लड़े सतभतरी! मंहगाई को ले कर उन का एक तंज देखिए। चंद्रलोक का टिकट कटा है, आगे और लडाई है, सोनरा दुकनिया भीड़ लगी है को कहता मंहगाई है। वह तो गाते थे जब से लइकी लोग साइकिल चलावे लगलीं तब से लइकन क रफ्तार कम हो गइल। या फिर समधिनिया क पेट जैसे इंडिया क गेट जैसे गानों मे उन की गायकी की गमक देखते बनती है। नीक लागे टिकुलिया गोरखपुर कै जैसे गानों ने तो उन्हें शिखर पर बिठा दिया था।
बालेश्वर असल में गरीब गुरबों के गायक हैं। खुद भी गरीब थे। दबे कुचलों के समाज से आते थे सो उन का दुख सुख भी करीब से जानते थे। सो उन का दुख सुख गाते भी थे। लोहवा के मुनरी पर एतना गुमान, सोनवा क पइबू त का करबू! गीत में गरीबी का जो दंश और डाह का जो डंक वह परोसते हैं वह अविरल है। या फिर हम कोइलरी चलि जाइब ए ललमुनिया क माई गीत में बेरोजगारी और प्रेम का जो कंट्रास्ट वह परोसते हैं वह अदभुत है। अदभुत है उन का यह गीत भी कि तोहरा बलम कप्तान सखी त हमरो किसान बा। गंवई औरत का जो गुरुर और स्वाभिमान इस गीत में छलक कर सामने आता है वह विरल है। बलिया बीचे बलमा हेराइल जैसे विरह गीत भी उन के खाते में दर्ज है। आव चलीं ददरी क मेला। या अपने त भइल पुजारी ए राजा हमार कजरा के निहारी ए राजा या फिर कजरवा हे धनिया जैसे गीतों की बहार भी है। केकरे गले में डालूं हार सिया बउरहिया बनि के जैसे मार्मिक गीत भी बालेश्वर के यहां उपस्थित हैं।
बालेश्वर के यहां प्रेम है तो प्रेम के बहाने अश्लीलता भी भरपूर है। खिलल कली स तू खेलल त हई लटकल अनरवा का होई। या फिर काहें जलेबी के तरसेली गोरकी, बडा मज़ा रसगुल्ला में। या फिर लागता ज फाटि जाई जवानी में झुल्ला, आलू केला खइलीं त एतना मोटइलीं दिनवा में खा लेहलीं दू दू रसगुल्ला। या फिर अंखिया बता रही है, लूटी कहीं गई है। जैसे गीतों की भी उन के यहां कमी नहीं है। वह मानते थे कि द्विअर्थी या अश्लील गाने गाना गलत हैं पर बाज़ार में बने रहने के लिए इसे एक तरकीब और ज़रुरी तत्व मानते थे। कहते थे कि जो यह सब नहीं गाऊंगा तो मार्केट से आऊट हो जाऊंगा। तो मुझ को पूछेगा कौन। भूखों मर जाऊंगा।
चाहे जो हो बालेश्वर की गायकी भोजपुरी गायकी की अब धरोहर है। अब अलग बात है कि उन के निधन के बाद एक से एक लुभावने वायदे हुए। बड़े से बड़े नेता आए। और चले गए तमाम वायदे कर के। पर साल भर बीत जाने के बाद भी भोजपुरी के इस अमर गायक के नाम से कोई एक पार्क, सड़क, मूर्ति या स्मारक नहीं बन सका। और भोजपुरी की ठेकेदारी करने वालों को भोजपुरी को रोज-ब-रोज बेचने वालों को, भोजपुरी की दुकान चलाने और भोजपुरी की राजनीति करने वालों को कभी इस की चिंता भी नहीं हुई। और उस बालेश्वर के लिए नहीं हुई जिस ने अवध की धरती लखनऊ में भोजपुरी का झंडा गाड दिया। और लखनऊ में ही नहीं वरन पूरी दुनिया में भोजपुरी गायकी का परचम लहराया। भोजपुरी गायकी को स्टारडम से नवाज़ा। भोजपुरी गायकी के वह पहले स्टार थे। साल भर में ही लोग उसे भूल जाएं तो यह क्या है? भोजपुरी भाषियों की यह कृतघ्नता ही है कुछ और नहीं। तो क्या कीजिएगा वह लिख भी तो गए हैं कि जे केहू से नाईं हारल ते हारि गइल अपने से!
जो भी हो लोग उन्हें लाख भूल जाएं पर भोजपुरी गायकी जब तक रहेगी बालेश्वर अमर रहेंगे। बहुत सारे कलाकार उन के गाए गीत पहले ही से गाते रहे हैं। संतोष की बात है कि उन के मझले बेटे अवधेश ने उन की गायकी की विरासत को न सिर्फ़ संभाल लिया है बल्कि उन के संगी साथियों, साजिंदों, कलाकारों की पूरी टीम, प्रशंसकों, उन के कार्यक्रमों को भी सहेज लिया है। उन की गायकी, उन का मंच, उन का कार्यक्रम सब कुछ। अवधेश को मंच पर गाते देख कर युवा बालेश्वर की याद मन में ताजी हो जाती है। और फिर बालेश्वर की याद आ जाती है। उन की गायकी की याद आ जाती है। फगुनवा में रंग रसे रसे बरसे उनकी गायकी का एक ऐसा बिरवा है, ऐसा होली गीत है जिस में रंग भी है, रस भी और रास भी। होली की ठुनक भी है और उस की मुरकी और खुनकी भी। उन की आवाज़ के मिठास की मिसरी मन में आज भी फूटती है। औरी महिनवा में बरसे न बरसे, फगुनवा में रंग रसे रसे बरसे, सास घरे बरसे, ससुर घरे बरसे अरे उहो भींजि गइलीं, जे निकले न घर से! फगुनवा में रंग रसे रसे बरसे। उन की यह गायकी अभी भी मन को पुकारती है। रई रई रई रई कर के मन बांध लेती है। वह मरदानी और मीठी आवाज़ जिस में समाई भोजपुरी माटी की खुशबू पागल बना देती है। तो उन के बिरहा के ठेके में ही कहने को मन करता है जिया बलेस्सर, जिया!