मूर्खता की नदी / सुधा भार्गव

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एक लड़का था। उसका नाम था मुरलीI वह वकील साहब के घर काम करताI वकील साहब ज्यादातर लाइब्रेरी में ही अपना समय बिताया करतेI वहाँ छोटी-बड़ी, पतली-मोटी किताबों की भीड़ लगी थी।

मुरली को किताबें बहुत पसंद थीं I मगर वह उनकी भाषा नहीं समझता थाI खिसिया कर अपना सिर खुजलाने लगताI उसकी हालत देख किताबें खिलखिला कर हँसने लगतीं I

एक दिन उसने वकील साहब को मोटी-सी किताब पढ़ते देखाI उनकी नाक पर चश्मा रखा था I जल्दी-जल्दी उसके पन्ने पलट रहे थे I कुछ सोच कर वह कबाड़ी की दुकान पर गया जहाँ पुरानी और सस्ती किताबें मिलती थीं।

"चाचा मुझे बड़ी-सी, मोटी-सी किताब दे दोI"

"किताब का नाम?"

"कोई भी चलेगी.... कोई भी दौड़ेगी...!"

"तू अनपढ़... किताब की क्या जरूरत पड़ गईI"

"पढूँगाI"

"पढ़ेगा...! चाचा की आँखों से हैरानी टपकने लगी!"

"कैसे पढ़ेगा?"

"बताऊँ...I"

"बता तो, तेरी खोपड़ी में क्या चल रहा हैI"

"बताऊँ... बताऊँ...I"

मुरली धीरे से उठा, कबाड़ी की तरफ बढ़ा और उसका चश्मा खींच कर भाग गयाI

भागते-भागते बोला - "चाचा, चश्मा लगाने से सब पढ़ लूंगाI मेरा मालिक ऐसे ही पढ़ता है। दो-तीन दिन बाद तुम्हारा चश्मा, और किताब लौटा जाऊँगा।"

वकील साहब की लाईब्रेरी में ही जा कर उसने दम लियाI कालीन पर आराम से बैठ कर अपनी थकान मिटाईI चश्मा लगाया और किताब खोलीI किताब में क्या लिखा है... कुछ समझ नहीं पायाI उसे तो ऐसा लगा जैसे छोटे -छोटे काले कीड़े हिलडुल रहे होंI कभी चश्मा उतारता, कभी आँखों पर चढ़ाता I

"क्या जोकर की तरह इधर-उधर देख रहा है I चश्मा भी इतना बड़ा, आँख-नाक सब ढक गये, चश्मा है या तेरे मुँह का ढक्कन" - किताब ने मजाक उड़ायाI

"बढ़-बढ़ के मत बोलI इस चश्मे से सब समझ जाऊँगा तेरे मोटे से पेट में क्या लिखा हैI"

"अरे मोटी बुद्धि के... चश्मे से नजर पैनी होती है बुद्धि नहींI बुद्धि तो तेरी मोटी ही रहेगीI धिल्ला भर मुझे नहीं पढ़ पायेगाI"

मुरली घंटे भर किताब से जूझता रहा पर कुछ उसके पल्ले न पड़ाI झुंझला कर किताब मेज के नीचे पटक दी I रात में उसने लाइब्रेरी में झाँका, देखा कि मालिक के हाथों में पतली-सी किताब हैI बिजली का लट्टू चमचमा रहा है और उन्होंने चश्मा भी नहीं पहन रखा हैI मुरली उछल पड़ा। रात में तो मैं जरूर पढ़ सकता हूँI चश्मे की जरूरत ही नहींI

सुबह होते ही वह किताबों की दुकान पर जा पहुँचा I

"लो चाचा, अपनी किताब और चश्माI मुझे तो पतली-सी किताब दे दोI लट्टू की रोशनी में चश्मे का क्या काम हैI बिना चश्मे के कबाड़ी देख नहीं पा रहा था I उसे पाकर बहुत खुश हुआ बोला - तू एक नहीं दस किताबें ले जा, पर खबरदार... मेरा चश्मा छुआ तो...।"

मुरली ने चार किताबें बगल में दबाईंI झूमता हुआ वहाँ से चल दियाI घर में जैसे ही पहला बल्ब जला उसके नीचे किताब खोल कर बैठ गयाI पन्नों के कान उमेठते-उमेठते उसकी उँगलियाँ दर्द करने लगीं पर वह एक अक्षर न पढ़ सकाI कुछ देर बाद लाइब्रेरी में रोशनी हुईI मुरली चुपके से अंदर गया और सिर झुका कर बोला -"मालिक आप मोटी किताब के पन्ने पलटते हो, उसमें क्या लिखा है-सब समझ जाते हो क्या?"

"समझ तो आ जाता है क्यों? क्या बात है?"

"मोटी किताब लाया, फिर पतली किताब लाया मगर वे मुझसे बातें ही नहीं करतींI"

"बातें कैसे करें! तुम्हें तो उनकी भाषा आती नहींI भाषा समझने के लिए उसे सीखना होगाI सीखने के लिए मूर्खता की नदी पार करनी पड़ेगीI"

"नदी...I"

"हाँ... I अच्छा बताओ, तुम नदी कैसे पार करोगे?"

"हमारे गाँव में एक नदी हैI एक बार हमने देखा छुटकन को नदी पार करतेI किनारे पर खड़े हो कर जोर से उछल कर वह नदी में कूद गयाI"

"तब तो तुम भी नदी पार कर लोगेI"

"अरे, हम कैसे कर सके हैंI हमें तैरना ही नहीं आता, डूब जायेंगेI"

"तब तो तुम समझ गये, नदी पार करने के लिए तैरना आना जरूरी हैI"

"बात तो ठीक हैI"

इसी तरह मूर्खता की नदी पार करने के लिए पढ़ना जरूरी हैI पढ़ाई की शुरुआत भी किनारे से करनी होगीI वह किनारा कल दिखाऊँगाI

कल का मुरली बेसब्री से इंतजार करने लगाI उसका उतावलापन टपक पड़ता थाI

"माँ...माँ, कल मैं मालिक के साथ घूमने जाऊँगा।"

"क्या करने!"

"तूने तो केवल नदी का किनारा देखा होगा, मैं पढ़ाई का किनारा देखने जाऊँगा।"

माँ की आँखों में अचरज झलकने लगाI दूसरे दिन मुरली जब अपने मालिक से मिला, वे लाईब्रेरी में एक पतली-सी किताब लिए बैठे थेI मुरली को देखते ही वे उत्साहित हो उठे - "मुरली यह रहा तुम्हारा किनारा! किताब को दिखाते हुए बोलेI"

"नदी का किनारा तो बहुत बड़ा होता है, यह इतना छोटा! इसे तो मैं एक ही छलांग में पार कर लूंगाI"

"इसे पार करने के लिए अंदर का एक-एक अक्षर प्यार से दिल में बैठाना होगाI इन्हें याद करने के बाद दूसरी किताब, फिर तीसरी किताब...।"

"फिर मोटी किताब, और मोटी किताब, मुरली ने अपने छोटे-छोटे हाथ भरसक फैलायेI कल्पना के पंखों पर उड़ता वह चहक रहा थाI थोड़ा थम कर बोला - क्या मैं आपकी तरह किताबें पढ़ लूंगा?"

"क्यों नहीं! लेकिन किनारे से चल कर धीरे-धीरे गहराई में जाओगेI फिर कुशल तैराक की तरह मूर्खता की नदी पार करोगेI उसके बाद तो मेरी किताबों से भी बातें करना सीख जाओगेI"

मुरली ने एक निगाह किताबों पर डाली वे हँस-हँस कर उसे अपने पास बुला रही थींI लेकिन मुरली ने भी निश्चय कर लिया था, किताबों के पास जाने से पहले उनकी भाषा सीख कर ही रहूँगाI

वह बड़ी लगन से अक्षर माला पुस्तक खोल कर बैठ गया। तभी सुनहरी किताब परी की तरह फर्र-फर्र उड़ कर आई। बोली - "मुरली, तुम्हें पढ़ता देख कर हम बहुत खुश हैंI अब तो हँस-हँसकर गले मिलेंगे और खुशी के गुब्बारे उड़ायेंगे मुरली के गालों पर दो गुलाब खिल उठे और उनकी महक चारों तरफ फैल गई।"